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लघुकथा : त्रिया चरित्र (गणेश जी बागी)

ये साहब बहुत ही कड़क और अत्यंत नियमपसंद स्वाभाव के थे ।  कई दिन रेखा देवी की हाजिरी कट गई |  फटकार लगी सो अलग ।

उस दिन साहब के चैम्बर से तेज आवाज़ें आ रही थीं । रेखा देवी चीखे जा रही थीं, "ये साहब मेरी इज़्ज़त पर हाथ डाल रहा है.."
सब देख रहे थे, ब्लाउज फटा हुआ था । साहब भी भौचक थे । उनकी साहबगिरी और बोलती दोनो बंद थी |


साहब संयत हुए और बोले, "जाओ रेखा देवी.. जब आना हो कार्यालय आना और जब जाना हो जाना, आज से मैं तुम्हें कुछ नही कहनेवाला । वेतन भी पहले जैसा समय से मिलता रहेगा ।.."
मामला सुलझ गया था । रेखा देवी जीत के भाव के साथ चैम्बर से बाहर निकल रही थीं |

(मौलिक व अप्रकाशित)

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 2, 2013 at 5:14pm

//आ. बागी जी आप भाव भूमि की समानता पर न जाएँ इमानदारी हमारे भीतर होनी चाहिए और ओ बी ओ में सभी साथी इस कसौटी पर किसी के द्वारा परखे जाने से परे पहचान और ईमान रखते हैं //

आदरणीय भाई अभिनव अरुण जी, सच कहूँ तो उपरोक्त पक्तियां सीधे ह्रदय तक समाती चली गयीं, जो हम लोगो ने ओ बी ओ परिवार की अवधारणा लेकर शुरू से चल रहे हैं उसका ही आप ने अनुमोदित किया है, लघुकथा पर आपकी सराहना और समर्थन मुझे अति संबल प्रदान करता है, बहुत बहुत आभार भाई ।  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 2, 2013 at 5:10pm

आभार आदरणीय लडिवाला जी, यदि हम सजगता से देखें तो इस लघुकथा के पात्र गण हमें आस पास ही दिख जायेंगे, सराहना हेतु बहुत बहुत आभार ।  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 2, 2013 at 5:08pm

आदरणीया डॉ प्राची जी, जो दीखता है केवल वही सही नहीं होता, परदे के पीछे न जाने कैसे कैसे खेल खेले जाते हैं, आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है, बहुत बहुत आभार ।  


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 2, 2013 at 5:06pm

आदरणीय सौरभ भईया जी, आपसे प्राप्त उत्साहवर्धन करती टिप्पणी निश्चित ही लघुकथा को सम्मानित करती है, बहुत बहुत आभार । 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 2, 2013 at 11:11am

सच! कुछ महिलाएं अपने इस कुचरित्र का उपयोग, सिर्फ लाभ पाने के लिए करती है,

बहुत ही सटीक व् सशक्त लघुकथा पर बधाई आदरणीय गणेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 2, 2013 at 9:31am

कुछ भी हो सकता है आज कल अच्छे बुरे का भेद ही कर पाना मुश्किल है ऐसे कुचरित्र ही पनप रहे हैं। जहां एक और नारी सुरक्षा के चलते क़ानून बनाए हैं वहां कुछ ऐसे चरित्रों के कारण इस कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है ये लघु कथा इस मर्म को स्पष्ट करने में कामयाब है हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी|

Comment by वीनस केसरी on September 2, 2013 at 3:33am

सिक्के का दूसरा पहलू सामने ले कर आती इस लघुकथा के लिए आप को हार्दिक बधाई

नए साहब के संवाद को और भावबोध दिया जा सकता है ...
मायूसी लज्जा गुस्सा हैरानगी लाचारी उद्वेग ... ये सब वो भाव हैं जो कथा के इस मोड पर नए साहब के संवाद में एक साथ होना चाहिए था ....

Comment by Dipak Mashal on September 1, 2013 at 10:18pm

गणेश भाई माफी चाहता हूँ, काफी खोजने पर भी वह लघुकथा नहीं मिली। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि असलियत में मेरे खुद के द्वारा इस तरह की घटनाओं के बारे में सुने जाने की वजह से मेरी याददाश्त धोखा दे गई हो और मैं उस सुनी-सुनाई घटना को ही लघुकथा समझ रहा होऊं. 

बहरहाल एक अच्छी लघुकथा रचना के लिए बधाई। लघुकथा इस बात की भी पुष्टि करती है कि भ्रष्ट तंत्र की तरह इस तरह की महिलायें भी हर क्षेत्र में फ़ैली हुई हैं.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 1, 2013 at 10:06pm

आदरणीय संजय भाई जी, आँखें तरस रही है कहाँ गुम हुए है भाई, उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु आभारी हूँ । 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 1, 2013 at 10:05pm

आ0 गनेश सर जी,  बहुत ही सुन्दर कथ्य।  लेकिन ऐसा न हो तो न जाने कितने लोगों को रोजी के साथ ही जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।   सादर, 

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