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जल उठा मन का दिया 

प्रियतम! मिले हो जब से !

भोर हुयी है जीवन में

तमस रात थी कब से ! 

सांसो में तेरी ही खुशबु 

तुझको पाया जब से !

फूल खिले मन-उपवन में 

बीता पतझड़ जब से !

रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम 

छुआ है तुमने जब से !

                     जितेन्द्र 'गीत

मौलिक/अप्रकाशित  

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Comment by बृजेश नीरज on July 30, 2013 at 6:54pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई बहुत ही भावनात्मक रचना! बहुत सुन्दर! आपके पहले प्रयास ने मन को छू लिया! ढेरों बधाई आपको!

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on July 30, 2013 at 1:20pm

 अनुपम भावोद्गारों को आपने शिल्प के अनुकूलतम संयोग के साथ व्यक्त किया। बधाई स्वीकारे आदरणीय

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 30, 2013 at 1:12pm

बहुत बहुत आभार आपका , आदरणीय अरुण अनंत जी, आपने रचना को सराहा व् कंटक त्रुटी के बारे में समझाया

युहीं स्नेह व् मार्ग दर्शन बनाये रखियेगा

सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 30, 2013 at 11:29am

आदरणीय जीतेंद्र भाई जी आपका प्रयास बहुत ही सुन्दर है, ओ बी ओ का असर है भाई जी लगे रहें और अधिक सुन्दर लिखने लगेंगे, साथ ही साथ कंटक त्रुटियों पर ध्यान दें. बहरहाल इस प्रयास पर हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by MAHIMA SHREE on July 28, 2013 at 10:57pm

क्या बात है !!! आदरणीय जितेन्द्र जी .. बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति हुयी है इस प्रस्तुति में ..दिनोदिन  आप चकित कर रहे हैं ..आपकी लेखनी की धार तेज होती जा रही रही है .. बहुत -२ बधाई और शुभकामनाये .. आप ओबिओ पे एक ऐसे मिशाल के तौर पे याद याद किये जायेगे की .. कैसे एक प्रबुद्ध पाठक का रूपांतरण रचनाकार के रूप में हो जाता है .. बधाई  

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