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तुम, मेरी पहचान !

                              तुम, मेरी पहचान !

            

                 

             तुम अति-सुगम सरल स्नेह से मेरी

                                            प्रथम पहचान

             मेरे   कालान्तरित   काव्य   की

             अंतिम कड़ी,

             गीतों की गमक में

             छंद  और  लय   बने ....

             पूर्णिमा की रात मेरे  लिए  तुम

             चमकते  तारों  का  कारण हो  ।

             सुनती हूँ, तुम देस-परदेस

             रात के उलझे पहरों में

             मुझको,

             मेरी परिकीर्ण पीड़ा की

             परिकल्पना  को जी रहे हो ।

             तुम्हारे अपने दर्द कुछ कम हैं क्या ?

             .......कि मेरी पीड़ा से आकृष्ट,

             तुम  चिंतित  क्षण-क्षण,

             निष्कपट मित्र-भाव से मेरे

             घिरे हुए असीम को जी रहे हो ?

             मैं यहाँ अपनी पीड़ा के

             अंतवर्ती विस्तार में अटकी,

             तुम

             मेरी पीड़ा की पराकाष्ठा से अनभिज्ञ,

             इस   बहती   पीड़ा   की   प्रसमता   में,

             उसकी गति में,  

             तुम रूकावट न बनो ।

            

             नये   प्रतीकों  और  बिम्बों  से  बहलाते,

             मुझको जीवितता का आभास न दो,

             कि मैं इस पथ पर पहले से पराभूत,

             निज   मान्यताओं   को   कुचल-कुचल,

             सर्व-सामान्य   का   अभिनय करती

             जीने के कितने स्वांग रचा चुकी हूँ,

             और सच, अब यह क्रिया

             अभिनय नहीं,

             मेरे जीने की कटु वास्तविकता है ।

        

             मान्यताओं का चुनाव, और

             सर्व-सामान्य जीवन का

                     जन्म-सिद्ध अधिकार

             अब मेरे परास में नहीं है ।

             तुम  अपनी  नींदों  को   यूँ

             रात की स्याही में डुबो कर

             मेरी पीड़ा से सम्बद्ध, इस तरह

             रह-रह  कर  और  मत   गलो ।

                          ------                             

                                                      - विजय निकोर

                                                         

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Comment

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Comment by vijay nikore on May 9, 2013 at 8:48am

 

// मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति //

प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीया प्राची जी।


सादर,

विजय

Comment by vijay nikore on May 9, 2013 at 8:24am

आदरणीय केवल प्रसाद जी:

 

//अतिगंभीर भाव और अतिसुन्दर रचना ।//

कविता की सराहना के लिए आपका शत-शत आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by vijay nikore on May 8, 2013 at 8:18am

 

आदरणीया मित्र कुंती जी:

 

//यह पीड़ा भी भाग्यशाली लोगों को ही मिलती है ....जो हमें ईश्वर तक जाने का मार्ग प्रशस्त

करती है...।  प्रिय मित्र विजय जी , आपने अत्यंत श्रेष्ठ एवम सात्विक रचना हमें दी है....धन्यवाद जैसा शब्द इस की गरिमा को लघुता प्रदर्शित करेगा ... मैं नहीं चाहती //

 

आपने मेरी रचना के मर्म को छू कर अपनी प्रतिक्रिया के कोमल भावों से मुझको जो प्रोत्साहन दिया है, उसके लिए शत-शत आभार। आशा है, ऐसे ही मनोबल बनाए रखेंगे। आपकी सराहना मेरे लिए आशीर्वाद है।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

 

Comment by vijay nikore on May 6, 2013 at 8:32am

आदरणीय प्रदीप जी:

 

//sundar bhaav yukt rachna hetu badhai.//

 

रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on May 5, 2013 at 10:21pm

आदरणीय लक्ष्मण जी:

 

//प्रेम की अनुभूति, प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाती सुन्दर भावों की रचना//

 

आपकी प्रतिक्रया उत्साहवर्धक और प्रेरक है मेरे लिए -
हार्दिक
धन्यवाद

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on May 5, 2013 at 3:46am

 

 आपने कहा .. //इस कथन को क्या ही सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है आपके शब्दों में//

आपके सदभावी आशीर्वचनों के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सौरभ जी

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 3, 2013 at 5:54pm

तुम  अपनी  नींदों  को   यूँ

             रात की स्याही में डुबो कर

             मेरी पीड़ा से सम्बद्ध, इस तरह

             रह-रह  कर  और  मत   गलो ।- वाह ! अपनी पीड़ा से अपने ही गलते है, पर दिल को कष्ट होता है | प्रेम की अनुभूति, प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाती सुन्दर भावो की रचना | हार्दिक बधाई भाई श्री विजय निकोरे जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2013 at 10:48am

आदरणीय विजय जी,

कोई चाह कर किसी प्रति अन्यमनस्क नहीं होता  इस कथन को क्या ही सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है आपके शब्दों में !

बहुत बहुत बधाई स्वीकारें, आदरणीय.

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 3, 2013 at 8:40am

आदरणीय विजय निकोर साहब सादर, आपकी कम ही रचनाएं पढ़ी हैं किन्तु सभी में भावों का जो सम्प्रेषण है वह देखते ही बनता है. बहुत ही सुन्दर रचना.सादर  हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by Vindu Babu on May 2, 2013 at 8:57am
आदरणीय सरजी सादर प्रणाम। महोदय आपकी रचनाएं इतनी गहन होती हैं कि कई बार पढने से समझ में आती है,और जब समझ में आ जाती हैं तब तो फिर फिर पढ़ने का मन करता है।
''सुनती हूं तुम देस-परदेस
रात के उलझे पहरों में
मुझको
मेरी परिकार्ण पीड़ा की
परिकल्पना को जी रहे हो
तुम्हरे अपने दर्द कुछ कम हैं क्या?
...
मुझको जीवितता का आभास न दो
...
मेरी पीड़ा से सम्बद्ध,इस तरह
रह-रह कर और मत गलो।''
शब्द शब्द हृदयातल को स्पर्श करने वाला आदरणीय।
सादर

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