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लघुकथा: अधार्मिक

देश के प्रतिष्ठित सरकारी हस्पतालों में से एक में गर्मियों की दोपहर को डॉक्टरों के विश्राम कक्ष में बैठकर लस्सी पीते हुए, वे चारों डॉक्टर आपस में देश-दुनिया की 'गंभीर' चर्चा में लगे हुए थे। अचानक उनमे से एक की नज़र अपनी कलाई घड़ी पर घूम गई, जिसकी सुइयां उनके लिए निर्धारित विश्राम के समय से कुछ ज्यादा ही आगे घूम गईं थीं। उसने हड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी और बाकी के साथियों को घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला-
- जरा टाइम देखो डियर, तुम लोगों का भी राउंड का वक़्त हो गया है।
- अबे बैठ जा आराम से यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, हमें तीन साल हो गए यहाँ, यहाँ के सिस्टम की नस-नस मालूम है।
पर उस नए डॉक्टर को जल्दी हार नहीं माननी थी
- पर यार कुछ तो ईमानदारी रखो, क्यों भूल जाते हो कि चिकित्सा हमारा पेशा ही नहीं धर्म भी है।
- ओ हरिश्चंदर की औलाद, बैठ जा चुप्पी साध के धर्म होगा तेरा... हम तो नास्तिक लोग हैं।
और कमरे में तीन दिशाओं से निकले ठहाकों के स्वर गूँज पड़े।

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Comment by rajesh kumari on December 26, 2012 at 10:53am

एक ऐसा पेशा जिसपर लोगों की भगवान् की तरह आस्था थी ,जिसको अपनाते वक़्त ये प्रतिज्ञा लेते हैं उस पेशे में भी ऐसी असंवेदन शीलता यदा कदा देखने को मिल जाती है हर पेशे को स्वार्थपरता अपने फर्ज के प्रति उदासीनता ने घेर लिया है यही मर्म इस कहानी का जो समझाने में सफल रही ,बहुत बधाई आपको इस लघु कथा के लिए 

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