For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

हिन्दी और मच्छर (हास्य) // शुभ्रांशु

बदलते मौसम की शाम का आनन्द लेने हमसभी पार्क में बैठे थे. हम सभी का मतलब लालाभाई, मैं और एक नये सदस्य भास्करन. तभी भास्करन का मोबाइल किंकियाया. अब उस तरह की आवाज को और क्या शब्द दिया जा सकता है. मोबाइल पर तमिल में काफ़ी देर तक बात चलती रही. यों पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ रहा था लेकिन हमसभी उनके चेहरे के मात्र हावभाव से ही सही, उनकी बातों को पकड़ने की कोशिश करते रहे. कुछ देर के बाद जब उनकी बात खत्म हो गयी तो मैंने अपनी झल्लाहट को स्वर देते हुये ठोंक दिया,
"यार तमिल सुनने में क्या लगता है, मानों कोई कनस्तर( टिन का डिब्बा) में कंकड़ डाल के जोर-जोर से हिला रहा हो.."
सभी एक साथ ठठा पडे़. मगर यह साफ़ लगा कि भास्करन को यह तनिक नहीं सुहाया था. लेकिन वे ठहरे विशुद्ध स्मार्ट सज्जन,  मेरी तरफ उन्होंने एक तिरछी मुस्कान फ़ेंक दी. मगर समझ में नहीं आया कि ये भाव उनकी खिसियाहट के थे या वो आने वाले युद्ध की चेतावनी दे रहे थे. कुछ देर तक तो अपने विदेशी बेटे की उपलब्धियों को बखानते रहे कि अचानक एकदम से अपनी बातों का हैण्डिल भाषा और इसके अंदाज की ओर मोड दिया,
"हिन्दी भी तो गरेड़ियों की भाषा है..!"
 
उनके इस कथन पर हमसभी एक साथ चौंक पड़े. ये तो एकदम से तथ्यहीन आरोप है. अलबत्ता अंग्रेजी के बारे में ये बातें जरूर कही जाती हैं कि शुरू में ब्रिटेन में राजशाही तथा कुलीन वर्ग की भाषा भी अंग्रेजी नहीं थी, फ्रेंच थी. अंग्रेजी तब निम्न वर्ग या गरेड़ियों और मजदूरों की भाषा हुआ करती थी. लेकिन हिन्दी पर ऐसा कोई आरोप हमसभी की समझ से एकदम परे था. अपने कथ्य को विस्तार देते हुये भास्करन ने अपनी मुस्कान की कुटिलता को कुछ और धारदार किया,
"आप जानवरों या गाय-भैंसों को कैसे भगाते हैं ? ..हः.. हाः.. होः.. हुर्रर्र... ऐसे ही न ? अपनी बातचीत को सुनिये तो लगभग हर पंक्ति का अंत क्या होता है ? .. है, हैं, हो, हूँ, ..  अब ये बताइये कि हिन्दी न जानने वाले लोगों को क्या लगेगा, मानों जानवर भगा रहे हैं ! तो क्या ये नहीं हो गयी गरेड़ियों-चरवाहों की भाषा ?"
सच कहूँ तो हिन्दी भाषाभाषी होने के बावज़ूद मैं हिन्दी भाषा की इस दशा से बिलकुल अनजान था. हिन्दी के प्रति इस कोण से सोचने का अवसर ही नहीं मिला था. अपने कहे का इस तरह बुमरैंग हो कर वापस आना मुझे बिल्कुल नागवार गुजरा था. बात अब नाक की हो गयी थी. हिन्दी की नहीं भाई, अपनी नाक की !  लगा इन भास्करन महोदय से भला कैसे हार जाऊँ ? फिर भी अपने आप को थोडा़ संयत किया और हिन्दी के सबसे भरोसेमन्द रूप को पकडा़,
"देखो भाई, हिन्दी में जो लिखा जाता है वही पढा भी जाता है. यहाँ दूसरी भाषाओं की तरह नहीं है कि शब्दों के उच्चारण में पढ़ने वाले को अपने शब्द-भण्डार और अपनी समझ पर निर्भर रहना पड़ता हो. आप लोगों के यहाँ तो अक्षर ऐसे हैं कि तमिल में ’कथा पे खाना खाने आना है’ लिखा है तो उसे ’गधा बेगाना गाने आना है’ पढा़ जा सकता है. हिन्दी के कवर्ग, चवर्ग या पवर्ग या किसी वर्ग आदि का मतलब ही नहीं है. तमिल भाई लोग अपने नाम के इनिशियल तक अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर से करते हैं, क्योंकि तमिल में वैसे अक्षरों के उच्चारण ही नहीं होते.. "
 
इस बहसबाजी में मैं कुछ ज्यादा ही पर्सनल होता जा रहा था. लालाभाई ने माहौल को समझा जो अभी तक एक श्रोता की तरह आनन्द ले रहे थे. इस बोझिल हो रहे माहौल को हल्का करने के लिये हँसते हुये कहा,
"भाई, अंग्रेजी में वर्ण ज्यादा हो कर ही क्या हुआ, जब उन्हें लिखने के बाद भी नहीं पढा जाता ! कम से कम हिन्दी में तो लोप या साइलेंट का बखेडा़ नहीं है. अंग्रेजी के इस लोपकरण ने परीक्षाओं में कई-कई विद्यार्थीयों के नम्बर ही लोप करा दिये हैं. बोलने के मामले में तो अंग्रेजी और भी अज़ीब है. एक ही अक्षर के अलग-अलग उच्चारण होते हैं. अब देखिये, डोर और पुअर का भयंकर अंतर ! डू और गो का चुटकुला तो अब नये बच्चों के लिये भी पुराना हो चुका है.’ अब लालाभाई के इस कहे पर सभी लगे हें हें हें करने.
 
तभी तिवारी जी अपनी साँसों और दुहरे हुए बदन को संभालते हुए आते दिखायी दिये. वे शाम की एक्सरसाइज का कोटा पूरा कर के आ रहे थे. पसीना पोंछते हुए सीधे धम्म से आ कर बीच में बैठ गये और सामने के जूस-कार्नर से सभी के लिये अनारशेक लाने का आर्डर दे दिया. भाई, वो तिवारीजी ठहरे. हमसभी ने कुछ शिष्टाचारवश और ज्यादा शेक के लिये मुख पर चौडी़ मुस्कान चिपका ली. शेक पीने के बाद महौल थोड़ा ठंढा हुआ दिखा. लेकिन भास्करन तो जैसे अपनी सारी खुन्नस आज ही निकालने के मूड में तने बैठे थे. यहाँ तक कि अनारशेक का ठंढा ग्लास भी उन्हें सु्कून नहीं दे सका था. बात को आगे बढाने लगे. लग गया कि अगले बमगोले के साथ तैयार हैं. उन्होंने कहा,
"हिन्दी में जो लिखा जाता है, वो ही पढा जाता है.  लेकिन वैसा ही किया भी किया जाता है क्या ?"
 
तिवारीजी तुरत ही प्रवचन के मूड में आ गये. आजकल जब से एक से एक घोटालों का पर्दाफ़ाश होने लगा है, वो टीवी पर से नये-नये लोप हुए एक बाबाजी का समागम ज्यादा करते फिर रहे हैं.  तुरत ही उन्होंने भास्करन की बातों का जैसे समर्थन किया,
"एकदम ठीक कहा आपने अन्ना भाई,  कोई अपने खुद का कहा नहीं करता. अब तो बेईमानी, मिथ्यावचन.. भ्रष्ट-आचरण जैसे अपने समाज का स्वभाव होता जा रहा है.  नैतिकता का तो पूरी तरह जैसे नाश ही हो चुका है.."
तिवारीजी ने मानों कोई रटा-रटाया जुमला टेप की तरह बजा दिया गया था.
 
भास्करन ने तिवारीजी को टोकते हुये कहा,
"मैंने इतनी हाई-फाई बात नहीं की है भाई... मेरे कहने का बस इतना-सा मतलब है कि क्या हिन्दी के लिखे वाक्यों की क्रिया को आप सही में पूरा करते हैं ?"
सभी ने एक दूसरे की आँखो में देखा और हमने अपने-अपने सिर स्वीकारोक्ति में एकसाथ हिला दिये. भास्करन ने छूटते ही कहा,
".. तो फिर बैठे हुए चलके दिखाइये... "
इस पर तो सभी फिरसे एक दूसरे का चेहरा देखने लगे. लेकिन इस बार सभी के भाव अलग-अलग थे. लालाभाई ने सीधा मतलब ही पूछ लिया,
"अमा, ये क्या जुगाली कर रहे हो भाई?"
भास्करन ने खुलासा किया,
"आप लोग हिन्दी में किसी से कहते हैं न... ’बैठ जाओ’, ’सो जाओ’, और तो और ’आ जाओ’.. अब ये बताइये कि अगर कोइ बैठ गया तो मतलब ये हुआ कि उसकी क्रिया की गति समाप्त हो गयी है. फ़िर भी अगर उसे चलना कहा जाय तो वो क्या चलेगा ! बल्कि इस तरह की किसी क्रिया को फुदकना ही कहेंगे. .. अब देखिये, आप किसी बच्चे से कहते हैं ’आजा’. अब बताइये कि वो आपके किस आदेश का पालन करे ? वो आयेगा या जायेगा ? अगर उस बेचारे ने ऐसा कुछ करना चाहा भी तो एक ही जगह पर ही आगे-पीछे डोलता रहेगा. आ.. जा.. आ.. जा..  या, ’सो जा’ कहने पर एक सामान्य व्यक्ति के लिये ऐसा करना संभव ही नहीं है. अगर कोई ऐसा कुछ करता भी है तो वो ये एक बीमारी है. इस विषय पर फिल्में भी बन चुकी हैं. .."  
 
हम सभी के सभी उनकी बातों पर निरूत्तर हुए जा रहे थे. 
इधर भास्करन तो जैसे हमारी बेदम हुई बल्लेबाजी को देख कर आज यार्कर पर यार्कर मारे जा रहे थे. इसी में आगे उन्होंने अगला जुमला दे मारा,
"भाई, हिन्दी में तो निर्जीव वस्तुओं का भी लिंग-निर्धारण कर दिया जाता है. .. एक कटोरी तो दूसरा कटोरा ! या वो भी नियत नहीं..  एक कटोरी कब किसी के लिये कटोरा हो जाये कुछ नहीं कहा जा सकता. एक बच्चे के लिये जो कटोरा होगा वो ही किसी भद्र जन के लिये कटोरी होगी...!"
 
लालाभाई ने तो इस पर बेजोड़ मजा लिया, "... बलियाटी लोग तो हाथी का भी पुल्लिंग किये बैठे हैं....हाथा... हा हा हा...."
 
भास्करन की बात भले बेढब सी लग रही थी, लेकिन हम सभी के सभी निरुत्तर हो चुके थे. आँखो ही आँखो में हार मान चुके थे. हमारी सोच और हमारे विचार-मंथन के साथ शाम भी लगातार गहरी होती जा रही थी. मैंने अपने सिर के ऊपर एक-दो बार हाथ झटक कर कहा,
"चलिये भाई घर चलते हैं बहुत मच्छर काट रहे हैं. .."
लेकिन सच्चाई तो यही थी कि भास्करन के कटाक्ष मच्छरों से भी ज्यादा जोर से डंक मार रहे थे. सही भी है, हर भाषा की अपनी विशेष सुन्दरता और अलग गरिमा होती है. जिसकी अपनी परिपाटी हुआ करती है. कोई हो, इस मामले में अपनी नाक ज्यादा ऊँची क्या रखनी.. .
 
--शुभ्रांशु
 

Views: 1187

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 14, 2012 at 11:32am

शुभ्रांशु भाई, बहुत ही मजेदार बतकूचन का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया है, मैं तो आपका फैन हूँ | ज्योहीं आपकी प्रस्तुति होती हैं , गिरते पड़ते दौड़ जाता हूँ और लालाभाई पर मेरा ध्यान कुछ ज्यादा ही रहता है | आदरणीया राजेश कुमारी जी का छौका "गिरिये प्लीज" देर तक हँसाया |

वीनस भाई बाग़ बाग़ हो गए पर मैं तो यह लाइन ///बलियाटी लोग तो हाथी का भी पुल्लिंग किये बैठे हैं/// पढ़ने के बाद "बागी बागी" हो गया  :-)

बहुत बहुत बधाई शुभ्रांशु भाई आनंद आ गया, एक सुझाव है ...जरा और काम्पैक्ट किया कीजिये |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 14, 2012 at 10:05am

हाहाहा बहुत बढ़िया सार्थक हास्य आलेख सच में ऐसी ही मजेदार बातों से रूबरू हुई हूँ अधिकता साउथ में आना जाना रहा है एक बार मछली पतनम (आंध्र प्रदेश में )बस में सफ़र कर रही थी एक परिवार को बीच में उतरना था अतः मुझे साइड करने के लिए हिंदी में बोली प्लीज साइड आमको गिरने का है (उसने कभी ड्रॉप की हिंदी मीनिंग  डिक्शनरी में पढ़ी होगी ) हंसी को जबरदस्ती रोकना पड़ा मेरे साथ जो हिंदी वाले दोस्त थे उन्होंने बड़े प्यार से कहा गिरिये प्लीज |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 14, 2012 at 9:48am

अपनी अपनी नाक ऊँची रखने में असमर्थता का अहसास होते ही मच्छर काटने का बहाना कर उठने की बात से हिंदी भाषा के विवाद को समाप्त करने का तरीका बेहद अच्छा और व्यंगात्मक लगा, बधाई श्री शुभ्रांशु भाई जी  हास्य का वातावरण बनाने के लिए |

Comment by वीनस केसरी on October 13, 2012 at 10:53pm

हिन्दी का मच्छर से क्या खूब कनेक्शन निकाला
हा हा हा
कहाँ से सोच लेते हैं इतना सब कुछ
यहाँ तो पढ़ कर ही बाग बाग हो गये

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बहुत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है आ. मिथिलेश भाई जी कल्पनाओं की तसल्लियों को नकारते हुए यथार्थ को…"
Friday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय मिथिलेश भाई, निवेदन का प्रस्तुत स्वर यथार्थ की चौखट पर नत है। परन्तु, अपनी अस्मिता को नकारता…"
Thursday
Sushil Sarna posted blog posts
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।विलम्ब के लिए क्षमा सर ।"
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी । सहमत एवं संशोधित ।…"
Wednesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
Jun 3
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
Jun 3

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
Jun 3
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Jun 2
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
Jun 2

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service