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था कभी जो गाँव अपना शहर पुराना लगता है ( गीत )

बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है
था कभी जो गाँव अपना शहर पुराना लगता है

मेड पर गिरते पड़ते छुप जाते थे खेतों में
नदी किनारे बनाते घरोंदे मिटाते थे रेतों में
बरसते पानी में छप छपाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

कूकती कोयल अमरिया आसमा की अरुणाई
तप्त दुपहरिया पेड़ तले सालन रोटी खाई
माँ के हाथों घूंघट ओट मुस्कराना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

वो रहट की आवाजें वो गन्ने के खेत
दूर कहीं छुप जाते होती किसी से न भेंट
मिल जुल के सपने सुनाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

बाग़ में झूलते सावन के मौसम में
भीगते छुप जाते माँ के आँचल में
बीन बीन के आम खाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

दूर तलक छायी हरियाली पक्षियों की उड़ान
बस्ता बांधे स्कूल जाते लेने बढ़िया ज्ञान
घर आते बिस्तर में घुस जाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

कठपुतली का नाच और गाँव के मेले
नाचते फिरते घर घर थे न कोई झमेले
सखियों के संग बैठ गाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

भेज दिया बाबुल ने पीहर से मोरे पिया के संग
जब लौट के आई वापस देख के रह गयी दंग
बदला मंजर देख कर अब रोना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

दूर तलक छाई हरियाली अब नहीं दिखती
प्यार था हर दिल में अब सब चीज यहाँ बिकती
था कभी मौसम हंसी अब हर शक्श बेगाना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

सांझ ढले लौटते पग घुंघरू छन छन की आवाज
सन्नाटे को चीरते दूर तलक झींगुर के वो साज
बदल गया सब कुछ इतना सब अनजाना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

बरसात की शीतल बयरिया बाग़ में नाचे मयुरिया
मुरली की धुन पे नाचे गोरी छम छम बाजे पायलिया
अब कहाँ वो सब अब तो डी जे गाना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 3:07pm

प्रिय कुमार जी, सस्नेह 

धन्यवाद 

Comment by Albela Khatri on June 14, 2012 at 1:18pm

सम्मान्य प्रदीप जी........वाह !
इतना  कोमलकांत चित्रण किया है आपने समूचे परिवेश का कि मन बरबस ही कह उठता है वाह !


बाग़ में झूलते सावन के मौसम में
भीगते छुप जाते माँ के आँचल में
बीन बीन के आम खाना अच्छा लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

हाय हाय हाय .......क्या कारीगरी की है हुज़ूर....मुबारक हो !

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 13, 2012 at 8:32pm

कूकती कोयल अमरिया आसमा की अरुणाई

तप्त दुपहरिया पेड़ तले सालन रोटी खाई

पुरानी यादों में ले गए ये गीत. एक एक घटना क्रम याद  आगये

बहेतरीन गीत भाई साहब बधाई

Comment by अरुण कान्त शुक्ला on June 13, 2012 at 7:13pm

बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है
था कभी जो गाँव अपना शहर पुराना लगता है... पहली दो पंक्तियाँ ही बाँध के पूरी कविता पढ़ने मजबूर करती हैं ..

Comment by SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" on June 13, 2012 at 3:45pm

aadarniye pradeep ji bahut hi sundar geet likhahe aapne mubarak ho

Comment by Bishwajit yadav on June 13, 2012 at 2:30pm
प्रणाम प्रदीप जी
मजा आ गया पढ के जय हो
सच मे गाँव याद आ गया
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 13, 2012 at 1:49pm

प्रदीप जी सादर नमस्कार ! आपने बड़ी ही सहजता से गाँव और बचपन का चित्रण इस सुंदर सी कविता के माध्यम से कर दिया। बहुत ही सुंदर रचना। बचपन के दिन याद आ गए। बहुत बहुत बधाई !!

Comment by Yogi Saraswat on June 13, 2012 at 11:46am

बरसात की शीतल बयरिया बाग़ में नाचे मयुरिया
मुरली की धुन पे नाचे गोरी छम छम बाजे पायलिया
अब कहाँ वो सब अब तो डी जे गाना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है

बहुत मधुर गीत ,आदरणीय श्री प्रदीप कुशवाहा  जी ! बहुत सुन्दर !

Comment by yogesh shivhare on June 12, 2012 at 11:42pm

बरसात की शीतल बयरिया बाग़ में नाचे मयुरिया
मुरली की धुन पे नाचे गोरी छम छम बाजे पायलिया
अब कहाँ वो सब अब तो डी जे गाना लगता है
बीती बातें याद कर मुस्कराना अच्छा लगता है......

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति प्रदीप जी सुन्दर और सार्थक पंक्तियाँ  बधाई

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 12, 2012 at 11:00pm
कुशवाहा सर, बड़ी भावुकता से लिखी गई रचना। बहुत अच्छी है।

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