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ये ज़ीस्त रोज़ सूरत-ए-गुलरेज़ हो जनाब(६३)

ये ज़ीस्त रोज़ सूरत-ए-गुलरेज़ हो जनाब

राह-ए-गुनाह से सदा परहेज़ हो जनाब

**

मंज़िल कहाँ से आपके चूमें क़दम कभी

कोशिश ही जब तलक न जुनूँ-ख़ेज़ हो जनाब

**

क्या लुत्फ़ ज़िंदगी का लिया आपने अगर

मक़सद ही ज़िंदगी का न तबरेज़ हो जनाब

**

मुमकिन कहाँ कि ज़िंदगी की पीठ पर कभी

लगती किसी के ग़म की न महमेज़ हो जनाब

**

उस जा पे फ़स्ल बोने की ज़हमत न कीजिये

जिस जा अगर ज़मीं ही न ज़रखेज़ हो जनाब

**

इस बात को न भूलें मुसीबत के दिनों में

पैमाना दिल का सब्र से लबरेज़ हो जनाब

**

रस्ते सदाकतों के चुने जब हैं आपने

कैसे न फिर ज़बीं पे कोई तेज़ हो जनाब

**

खूँरेज़ होना यूँ तो है अच्छा नहीं मगर

हसरत वतन के वास्ते खूँरेज़ हो जनाब

**

फ़ितरत नदी की प्यास बुझाना रहे 'तुरंत '

कुछ दिन भले नदी भी बला-खेज़ हो जनाब

**

गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत 'बीकानेरी

**

शब्दार्थ -सूरत-ए-गुलरेज़=गुलाब के फव्वारे की तरह

जुनूँ-ख़ेज़=जूनून बढ़ानेवाली ,तबरेज़ =चुनौतीपूर्ण ,

महमेज़=ऐड़ /घुड़सवार के जूते में लगी कील , जा =जगह ,

ज़रखेज़=उत्पादक ,लबरेज़=लबालब भरा ,

खूँरेज़=खून बहानेवाला/वाली

बला-खेज़ =अनर्थकारी /नुकसानदेह

(मौलिक एवं प्रकाशित )

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on September 22, 2019 at 12:39am

शुक्रिया ब्रज साहेब हौसला आफजाई के लिए 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 21, 2019 at 12:27pm

वाह आदरणीय क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है..

उस जा पे फ़स्ल बोने की ज़हमत न कीजिये
जिस जा अगर ज़मीं ही न ज़रखेज़ हो जनाब...कमाल है

कृपया ध्यान दे...

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"आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.…"
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"   आदरणीय मिथिलेश जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हृदय से आभार.…"
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"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, प्रस्तुत मुकरियों की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर "
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"    प्रस्तुति की सराहना हेतु हृदय से आभार आदरणीय मिथिलेश जी. सादर "
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