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तरही ग़ज़ल (मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था)

अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था 

आग फैली थी हर इक सिम्त मगर जाना था 

 

कितनी रानाइयाँ सज धज थी तेरी महफ़िल में 

बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था

 

है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ 

नातवां हो के तेरे दर से गुज़र जाना था 

 

राज़ क्या क्या थे निहाँ वक़्त के साये में मगर

छेड़ कर तान वही फिर से बिखर जाना था 

 

बैठ कर शीश महल से जो न देखा तुमने

आग का गोला था जिस को के शरर जाना था 

 

हाल अपना कहीं ग़ैरों से सुना करते हैं 

नाम मेरा जो लिया उसने, ख़बर जाना था 

 

हो चुकी बात सभी फिर भी न बदला कुछ भी 

हैं मेरे शेर नए कुछ तो असर जाना था  

 

घूमता फिरता रहा भीड़ का हिस्सा बनकर  

मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था

 (मौलिक अप्रकाशित )

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Comment by Tanweer on March 5, 2019 at 4:56pm

शुक्रिया ब्रजेश जी

Comment by Tanweer on March 5, 2019 at 4:53pm

जनाब समर कबीर साहब. बहुत शुक्रिया

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 4, 2019 at 11:50am

बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है ज़नाब तनवीर जी..

Comment by Samar kabeer on March 1, 2019 at 6:12pm

आपके बताए भाव आपके अशआर में बयान नहीं हो पा रहे हैं,बहतर ये है कि इन दो अशआर को ग़ज़ल से ख़ारिज कर दें ।

Comment by Tanweer on March 1, 2019 at 6:04pm
ग़ैर को मेरी ख़बर लेने की क्या ज़रूरत पड़ी? कुछ तो बात होगी।वैसे तो वो मेरे गमख़्वाह नही!
मेरे अशआर शायद नए किस्म के हों।और इन का कुछ न कुछ कहीं न कहीं असर हो। वैसे तो बेहिसी का ज़माना है। एन्ड ऑफ हिस्ट्री और न जाने क्या क्या। हिमाक़त समझिये इसे शायद।
Comment by Samar kabeer on March 1, 2019 at 5:31pm

6ठे और 7वें शैर में आप क्या कहना चाहते हैं,इनका भाव(मफ़हूम)बताएं ।

Comment by Tanweer on March 1, 2019 at 5:04pm

बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब,
छठवें और सातवें शेर की इस्लाह के सिलसिले में थोड़ी वज़ाहत और करें तो शायद बात समझने में सहूलत हो।

Comment by Samar kabeer on March 1, 2019 at 4:18pm

जनाब तनवीर जी आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था'

इस मिसरे में 'छाँव' शब्द स्त्रीलिंग है,इसलिए 'अपने' की जगह "अपनी" कर लें । 

'बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था'

इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है "शह्र"और इसका वज़्न 21 होता है,देखियेगा ।

'है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ '

इस मिसरे में 'यूँ' की जगह "ये" शब्द उचित होगा ।

'हाल अपना कहीं ग़ैरों से सुना करते हैं 

नाम मेरा जो लिया उसने, ख़बर जाना था'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है ।

'हो चुकी बात सभी फिर भी न बदला कुछ भी 

हैं मेरे शेर नए कुछ तो असर जाना था'

इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ।

गिरह ठीक है ।

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