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मैं इठलाती,

मैं बलखाती,

मंद चाल से,

बढ़ती हूँ

शरद ऋतु जब,

वर्ष में आये

अपना जाल,

बिछाती हूँ||

 

कहीं थपेड़े,

पवन दिलाती

कहीं,

बर्फ पिघलाती हूँ

कहीं,

तरसते धूप

को सब जन

कहीं कपकपी,

खूब दिलाती हूँ

वर्षा ऋतू,

के बाद में आयी,

शरद ऋतू,

कहलाती हूँ||

 

कोई निकाले,

कम्बल अपने,

कोई,

रजाई खोज रहा

कोई जला के

अंगीठी अपनी

हाथ,

आग में शेख रहा

नए बिरंगे,

फूल खिलाती

ऋतुओं,

में भेद कराती हूँ

वर्षा ऋतू के,

बाद में आयी

शरद ऋतू,

कहलाती हूँ|| ||

 

वृद्धजनों,

की सामत लाती

बच्चों संग,

खेल दिखाती हूँ

युवाओं की,

बन सखी

परिवर्तन का,

नियम,

समझाती हूँ

वर्षा ऋतू,

के बाद में आयी,

शरद ऋतू,

कहलाती हूँ|| 

“मौलिक और अप्रकाशित”

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Comment

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Comment by PHOOL SINGH on December 24, 2018 at 12:20pm

आदरणीय छोटेलाल जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by PHOOL SINGH on December 24, 2018 at 12:19pm

आदरणीय बृज जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by PHOOL SINGH on December 24, 2018 at 12:17pm

 आदरणीय समर जी, हौसलाफजाई के लिए धन्यवाद

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 22, 2018 at 12:08pm

हाँ आदरणीय..आज तक यही सुना है...शायद टाइपिंग मिस्टेक होगी!!

Comment by Samar kabeer on December 22, 2018 at 12:06pm

" आग में शेख रहा"

ये शायद 'आग में सेक रहा' होगा ?

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 22, 2018 at 11:51am

बढ़िया आदरणीय..लेकिन आग में शेख रहा में मुझे लगता है शेख शब्द सहीह नहीं है..

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on December 19, 2018 at 8:50am

आदरणीय फूल सिंह मौसम के अनुकूल अच्छी रचना के लिए बधाई

Comment by Samar kabeer on December 18, 2018 at 2:39pm

जनाब फूल सिंह जी आदाब,सर्दी के मौसम पर अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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