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ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में

और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में

 

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में

प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में

 

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे

वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में

 

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

 

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ

पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में

 

काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ

आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:22pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:21pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:21pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महेंद्र कुमार जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:20pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायन जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2016 at 11:03am

बहुत लाजवाब गज़ल कही , आदरनीय धर्मेन्द्र भाई , दिली दाद स्वीकार करें ।

Comment by vijay nikore on December 6, 2016 at 7:31am

बहुत ही खूबसूरत गज़ल लिखते है आप। बधाई।

Comment by Mahendra Kumar on December 5, 2016 at 7:51pm
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय धर्मेन्द्र जी। मेरी तरफ से दिली बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2016 at 2:22pm

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में

और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में--------क्या खूब कहा आ० धर्मेद्र जी 

 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:11pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेंद्र कुमार वर्मा जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:11pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहब

कृपया ध्यान दे...

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