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ज़िन्दगी

सोचा थोडा खेल लें
ज़िन्दगी मिली है
सो थोडा खेल लें
समय चलेगा अपनी चाल
समय के मोहरे बन
थोडा खेल लें ।
कभी पहाड़ों पर
चढ़ जाएँ
कभी बादलों पर घूम आयें
कभी मिटटी के बुत बन जाएँ
कभी माली बन
बगवान सवाँर ले।
कभी महके गुलाब की तरह
कभी काँटा बन चुभ जाएँ ।
ज़िन्दगी है
तो खेल है
खेलते रहे खिलाड़ी बन
ज़िन्दगी शायद ज़ी जाएँ ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 2:45pm
आदाब जनाब समर साहब । तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
Comment by Samar kabeer on November 12, 2016 at 5:24pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,अच्छे ख़यालात से सजी इस कविता के लिये बधाई स्वीकार करें ।
दसवीं पंक्ति में 'बूत'को "बुत" कर लें ।

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