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हम के अस्तित्व से ....

हम के अस्तित्व से ....

बड़ा लम्बा सफर
तय करना पड़ता है
अंतस की व्यथा को
अधरों तक आने में
स्मृतिकोष के
पृष्ठों से किसी की
याद को मिटाने में

अनकहा
कुछ नहीं रहता
अवसाद के पलों में
अभिव्यक्ति
पलकों के पालने से
कपोलों पर
हौले हौले सरकती
किसी स्पर्श के इंतज़ार में
ठहर जाती है

शायद कोई
अपनत्व का परिधान ओढ़ कर
इक बूंद में समाये
विछोह के लावे को
अपनी उंगली के पोरों से उठा ले
और चुपके से मेरे कानों में
अपनी सांसों से कह दे
मैं
तुम्हें
हम के अस्तित्व से
अलग न होने दूंगा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 22, 2016 at 1:21pm

अादरणीय डॉ विजय शंकर जी प्रस्तुति के भावों को मान देने का दिल से अाभार।

Comment by Sushil Sarna on June 22, 2016 at 1:21pm

अादरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी अपकी मधुर प्रशंसा का दिल से अाभार।

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 21, 2016 at 7:01pm
अपनत्व का एहसास भी बहुत कुछ होता है , इसे बताती इस रचना पर बधाई , आदरणीय सुशील सरना जी , सादर।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on June 21, 2016 at 5:29pm
वाह वाह वाह आदरणीय श्री सुशील सरना जी बहुत ही सुन्दर रचना है । बधाई हो ।

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