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रुनझुन फिर पायल होने दो.... गीत//डॉ प्राची

बरसो तुम जीभर मरुथल में, अब खुद को बादल होने दो।
अपनी एक छुअन से मेरा पोर-पोर संदल होने दो।

जब खुशियों की सेज बिछी थी
तब आँखों में स्वप्न भिन्न थे,
रूठे-रूठे से हम थे या-
सौभागों के पृष्ठ खिन्न थे,
वक्र चाल हर तिरछे ग्रह की अब बिल्कुल निष्फल होने दो। अपनी एक....

अपनी-अपनी ज़िद को पकड़े
तन्हाई से खूब लड़े हैं,
लहरों की आवाजाही बिन
तट दोनों खामोश पड़े हैं,
पानी में कुछ तो हलचल हो, लहरें अब चंचल होने दो। अपनी एक....

सतरंगी आँचल के धुँधले
रंगों की लौटा दो झिलमिल,
लम्हा-लम्हा धड़कन-धड़कन
हो मुझमें मैं तुममें शामिल,
बिखरें गजरे, बहके काजल, रुनझुन फिर पायल होने दो। अपनी एक....

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 10, 2016 at 2:49pm

आदरणीया प्राची जी, इस गीत को गुनगुनाने में आनंद आ गया. 16-16 मात्रा की आवृत्ति में बहुत प्यारा गीत लिखा है आपने. प्रत्येक अंतरे के स्थाई की टेक लगते ही मन झूम जाता है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on May 7, 2016 at 11:18pm
अति सुंदर।सादर नमन
Comment by रामबली गुप्ता on May 7, 2016 at 7:30pm
इस गीत की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है आदरणीया। आकाश भर बधाई स्वीकार करें।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 7, 2016 at 10:30am

बिखरें गजरे, बहके काजल, रुनझुन फिर पायल होने दो।------------------------अतिसुन्दर भाव . आदरणीया ....

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