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बहुत मुमकिन है दिल की उलझनों का रुख बदल जाए... ग़ज़ल//डॉ. प्राची

1222,1222,1222,1222

अभी है वक्त हाथों में, कहीं ना ये निकल जाए
जरा लहज़ा बदल लें तो, जो बिगड़ा है सम्हल जाए

नज़र भर कर हमें देखो, फिर अपने दिल से सच पूछो
बहुत मुमकिन है दिल की उलझनों का रुख बदल जाए

हमें भी दिल की सब बातें तुम्हें खुल कर बतानी हैं
अभी ठहरो उजाला है ज़रा सी साँझ ढल जाए

लहर से तट का हर पत्थर किया करता है अठखेली
यहाँ डग सोच कर भरना, कहीं ना पग फिसल जाए

तुम्हें अपना समझ बैठेगा इसमें अक्स मत देखो
बहुत मासूम सा है दिल न ये तुम पर मचल जाए

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 4:00pm

आदरणीया प्राचीजी, आपकी कोशिश बदस्तूर बनी रहे. वैसे ग़ज़ल की विधा कविताई से तनिक अलग-अलग चलती है. जबकि दोनों विधाओं की दरकार मुलामियत ही है. 

शुभेच्छाएँ. 

Comment by जयनित कुमार मेहता on May 2, 2016 at 7:33am
आ. प्राची जी, सुन्दर भावों से सजी इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आपको।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:54am

बहुत ही खूबसूरत 

Comment by नादिर ख़ान on April 28, 2016 at 1:21pm

लहर से तट का हर पत्थर किया करता है अठखेली
यहाँ डग सोच कर भरना, कहीं ना पग फिसल जाए.. अच्छी नसीहत है 

तुम्हें अपना समझ बैठेगा इसमें अक्स मत देखो
बहुत मासूम सा है दिल न ये तुम पर मचल जाए... खूबसूरत शेर है 


बहुत बधाई आदरणीया प्राची जी उम्दा ग़ज़ल हुयी है

Comment by Sushil Sarna on April 27, 2016 at 5:03pm

नज़र भर कर हमें देखो, फिर अपने दिल से सच पूछो
बहुत मुमकिन है दिल की उलझनों का रुख बदल जाए

हमें भी दिल की सब बातें तुम्हें खुल कर बतानी हैं
अभी ठहरो उजाला है ज़रा सी साँझ ढल जाए

...... गज़ब आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी ... बहुत ही दिलकश अशआर लिखे हैं आपने .... इस खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ ग़ज़ल की प्रस्तुत्ति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by Shyam Narain Verma on April 27, 2016 at 4:08pm

बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को | सादर 

Comment by narendrasinh chauhan on April 27, 2016 at 3:03pm

तुम्हें अपना समझ बैठेगा इसमें अक्स मत देखो
बहुत मासूम सा है दिल न ये तुम पर मचल जाए

सुन्दर रचना 

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