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तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले (ग़ज़ल)

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

 

सभी पैरहन हम भुला कर चले

तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

 

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले

जो मज़लूम का हक पचा कर चले

गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ

वहीं से मुहब्बत कमा कर चले

 

अकेले कभी अब से होंगे न हम

वो हमको हमीं से मिला कर चले

 

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा

अगर चींटियों को बचा कर चले

 

तरस जाएगा एक बोसे को भी

वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर चले

 

लगे अब्र भी देशद्रोही उन्हें

जो उनके वतन को हरा कर चले

----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:38pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:37pm

बहुत शुक्रिया आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:32pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:32pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:31pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:10am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई . इस ग़ज़ल पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by annapurna bajpai on February 25, 2016 at 12:56pm

क्या बात ! क्या बात बहुत सुंदर गजल 

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 25, 2016 at 8:06am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी, बहुत ही सुन्दर अश्आर हुए हैं..हार्दिक बधाई आपको।।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2016 at 4:46pm

आदरणीय धर्मेद्र भाई , बेहरतीन गज़ल के लिये आपकोअ दिले से बधाइयाँ ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 24, 2016 at 11:32am

आ० भाई धर्मेन्द्र जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई l

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