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हां, मैं हत्यारा हूं /प्रदीप नील

मैं खड़ा हूं आपकी अदालत में सर झुकाए
हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है ।
और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में
किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।
पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं निर्दोष हूं, बेचारा हूं
सच तो ये है कि मैं हत्यारा हूं,
हां मैं हत्यारा हूं


मैं हत्यारा हूं अपने बेटे के मासूम बचपन का
मैं हत्यारा हूं अपनी बेटी के खिलते हुए यौवन का
मैं हत्यारा हूं मां-बाप की बूढ़ी आस का
मैं हत्यारा हूं अपनी पत्नी के कमज़ोर से विश्वास का
मैं हत्यारा हूं ,
हां मैं हत्यारा हूं


है कोई परमात्मा की बेटी इस पूरे ग्लोब पर ?
जो अपना हाथ उठाए और गर्व से मुझे बताए
कि आज तक एक भी पुरूष ने उसे नहीं छेड़ा या सताया ?
लेकिन मेरी पत्नी ने घर आकर कभी नहीं बताया
कि आज फिर शहर के जंगल में, किसी भेडि़ए ने उसे दबोचा
पूरा ही चबा डाला या बस ज़रा सा नोंचा
वो जानती है मैं कमज़ोर पुरुष भाषण देने लगूंगा
उसे छेड़े जाने का इलज़ाम भी उसी के सर धरूंगा
अरे फैशन करके जाओगी तो ऐसा ही होगा
लोगों से नयन मिलओगी तो ऐसा ही होगा
लेकिन वह जानती है कि भेडि़ए सिर्फ भेडि़ए हैं और नोंचना उनकी फितरत
शिकार चाहे चार साल की बच्ची हो,सत्तर साल की बुढिया या सर पे पांव तक बुर्के में ढंकी औरत
भेडि़ए श्रृंगार नहीं शिकार देखते हैं।
हर तकलीफ वो रहे छुपाती, मुझे एक भी नहीं बताती
क्योंकि नहीं चाहती कि उसके और मेरे बीच कमज़ोर से विश्वास की डोर टूट जाए
लेकिन नर्क में भी ज़गह नहीं उस पति के लिए जिसकी पत्नी का उस से विश्वास उठ जाए।
तो ही तो खड़ा हूं आपके सामने सर झुकाए
हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है.
और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में
किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।


बेटियां चाहे अमीर की हो या गरीब की
अपने पिता की बहुत प्यारी होती हैं,दुलारी होती हैं
वो बेशक ना भी जन्मी हों किसी राज़ा के घर
बेटिया़ तो ज़न्म से ही राजकुमारी होती हैं
उनके सपनों में राजकुमार आते हैं
नीले घोडे पर होकर सवार आते हैं
तब वे अपने बालों में फूल टांकती हैं
और अपने पिता से चांद मांगती हैं
लेकिन मेरी बेटी ने चांद तो क्या, धुंधला सा सितारा भी नहीं मांगा
खुद सपना बुनना तो दूर, सपना उधारा भी नहीं मांगा
वो जानती है , उसका बाप बहुत बौना है
लाख चाहकर भी चांद को नहीं छू पाएगा
नहीं उगाती वो गुलाब की क्यारी, अपनी आंखों में
जानती है उसे लेने कोई राजकुमार नहीं आएगा
उसकीआंखों के दीए मैंने बुझाए, रोज यही एक बात कहकर
तू लाट की बेटी नहीं लड़की है, लडकी की तरह रहा कर
मैंने उसके सपनों को चुन चुनकर मारा,फिर भी उसे मैं प्यारा हूं
तो ही तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं
इसीलिए खडा हूं आपके सामने सर झुकाए
हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है
और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में
किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।


वो बेटा ही क्या जो पडौसी का कांच ना तोड़े
मां का लहू ना पिए, बाप की मूंछ ना मरोड़े
घर से पैसे ना चुराए, और दोस्तों से उधार ना मांगे
गर्लफ्रेंड को घुमाने के लिए बाईक या कार ना मांगे
लेकिन मैंने अपने बेटे को, हाथ के नीचे दबाके रखा
कभी डांट के कभी मार के, राजा बेटा बना के रखा
और मेरा बेटा नालायक नहीं मैं गर्व से सबको बताता रहा
ड्राइंगरूम में बैठे मेहमानों को बेटे के गुण गिनवाता रहा
लेकिन मैं अच्छा पिता नहीं बन पाया ऐसा मुझे आज लगता है
क्योंकि बेटा सिर्फ बाईस का है मगर बासठ का दिखता है
उसने बचपन नहीं देखा,जवानी नहीं देखी
रगों में बहते खून की रवानी नहीं देखी
धरती पर ऐड़ी मारकर पानी नहीं निकाला
शेर के जबड़ों में कभी भी हाथ नहीं डाला .
वो कभी कुछ भी नहीं मांगता मुझसे
उसे पता है कि अभावों मे जीना उसका नसीब है
लेकिन इससे बडा कलंक नहीं होता किसी पिता के लिए
जिसका बेटा बचपन से ही जान जाए कि उसका बाप गरीब है.
बेटा बड़ा होकर नहीं रहता किसी का
और वो आज भी कहता है मैं तुम्हारा हूं
इसीलिए तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं
तो ही तो खड़ा हूं आपके सामने सर झुकाए
हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है
और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में
किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है ।


मेरे मां बाप ने कभी उलाहना नहीं दिया
कि मैं जवान हुआ हूं उनका लहू पीकर
वो ये भी नहीं चाहते कि मै उन्हे तीर्थ कराऊं
श्रवण कुमार की तरह कांधों पे बिठाकर
वो सिर्फ इतने चाहते हैं कि तेईस घंटे छप्पन मिनट कहीं भी रहूं
दिन में सिर्फ चार मिनट उनके पास बैठूं
खाने को छप्पन पकवान बेशक ना परोसूं
कुत्तों की तरह उनके आगे दो वक्त के टुकडे़ भी ना फेंकूं
जो हाथ सहारा देते रहे मुझे बचपन में
वो बूढे हाथ मेरे कांधों का सहारा मांगते हैं
जो दीपक जलाया था उन्होने सारी उम्र मेरे लिए
अब उस दीपक का ज़रा सा उजियारा मांगते हैं
लेकिन मैं इतना भी नहीं कर पाता
उलझा रहता हूं खुद के जीवन के जाल में
कभी बीवी, कभी बच्चों की जि़म्मेवारियां
और कभी दो वक़्त की रोटी के सवाल में
गंगा जमुना बहती रहती, आज उन बूढी आंखों में
और फिर भी वो बूढी आंखें कहतीं , मैं तो उनका का तारा हूं
तो ही तो मैं कहता हूं कि मैं हत्यारा हूं
तो ही तो खडा हूं आपके सामने सर झुकाए
हांलाकि मेरे सर एक भी इलज़ाम नहीं है
और ये भी सच है कि दुनिया भर के पुलिस थानों में
किसी भी एफ आई आर में मेरा नाम नहीं है
पर ये सच नहीं कि मैं निर्दोष हूं,बेचारा हूं
सच तो ये है कि मैं हत्यारा हूं,
हत्यारा हूं ।
हत्यारा हूं , मैं
हां, मैं हत्यारा हूं

.
( मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 6, 2015 at 8:43am
आदरणीय प्रभाकर जी , आपने मेरी रचना की मुक्त- कण्ठ से प्रशंसा की , हार्दिक आभार । मंच की बात आपने सही कही । माँ सरस्वती से डर कर कहता हूँ मैंने इस कविता के श्रोताओं को बहुधा अपनी भीगी पलकें पोंछते देखा है । इन पलकों को देख मैंने कई बार सोचा है कि किसी को रुला देने वाली कविता फाड़ कर फैंक दूँ । फिर सोचता हूँ शायद दुःख का उदात्तीकरण होने से किसी का मन हल्का होता है तो कोई बुरी बात नही ।
बहरहाल शुक्रिया प्रभाकर जी ।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 4, 2015 at 5:52pm

बढ़िया कविता है आ० प्रदीप नील जी I ह्रदय के उद्गाए उभर कर सामने आये हैं I ऐसी रचनाएँ मंचों पर बेहद सराही जाती हैं, इस अनुपम कृति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें I

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 4, 2015 at 3:45pm
आदरणीय मिथिलेश जी , जान कर प्रसन्न हूँ कि आपको मेरी यह प्रस्तुति भी प्रभावी लगी ।
वर्तनी कहीं ठीक नही होती तो यह मेरे लिए ग्लानि की बात होती है । मैं तो खुद भाषा के अशुद्ध प्रयोग पर टोक देता हूँ । ऐसे में आपकी टिप्पणी के लिए आभारी हूँ । हाँ कुछ पंक्तियों की पुनरावर्ती सायास है सर । असल में यह मंचों से पढ़ी जाती है और वहां इनका प्रभाव और होता है । आपने समय दिया बहुत बहुत शुक्रिया

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2015 at 10:47pm

आदरणीय प्रदीप नील जी, आपकी दूसरी रचना से गुजर रहा हूँ. यह भी एक प्रभावकारी रचना हुई है. इस प्रस्तुति हेतु आपको हार्दिक बधाई स्वीकारें. कुछ पंक्तियों की पुनरावृत्ति और कुछ शब्दों की वर्तनी, रचना के सौन्दर्य में बाधक लग रही है. सादर  

Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 3, 2015 at 4:51pm
अज़ीज़ कबीर शुक्र गुजार हूँ कि आपने इधर आकर रचना पढ़ी और हौसला अफजाई की । मेहरबानी आपकी
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 3, 2015 at 4:46pm
आपने मेरी रचना की कुछ ज्यादा ही तारीफ कर दी सुनील भाई । मैं बहुत ही प्रफुल्लित महसूस कर रहा हूँ । बस आप यूँ ही परमात्मा से मेरे लिए प्रार्थना करते रहिएगा। करेंगे न ?
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 3, 2015 at 4:33pm
अज़ीज़ शेख साहब , बहुत शुक्रिया । रचना पढ़ने और टिप्पणी देने में आपको जितना समय लगा वह मुझ पर क़र्ज़ रहा । आते रहिएगा मेरे ब्लॉग पर
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 3, 2015 at 4:28pm
प्रिय सतविंदर भाई आपको मेरी यह रचना भी पसन्द आई , मुझे यह जान कर बेहद प्रसन्नता हुई । मैं आप जैसे गुण ग्राही भाई बहनों के लिए ही लिखता हूँ । शुभ कामनाएं देते रहिएगा
Comment by प्रदीप नील वसिष्ठ on December 3, 2015 at 4:25pm
आदरणीय तेज वीर जी , मेरी कविता पर आपकी टिप्पणी ने मुझे जो सम्बल दिया उसके लिए आपका ऋणी हूँ । आप जैसे अग्रज का आशीर्वाद ही ऐसी रचनाएँ करवा देता है ।
मैंने जिस गहन अनुभूति में डूब कर यह रचना लिखी उससे भी कहीं बहुत ज्यादा अनुभूति आपकी टिप्पणी में है । धन्यवाद सर ।
Comment by Samar kabeer on December 2, 2015 at 10:57pm
जनाब प्रदीद नील जी,आदाब,अच्छा लिखते हैं आप,आपकी कविता पसंद आई,बधाई स्वीकार करें ।

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