For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - इस्लाह के लिए

2122 2122 2122 212

या तो चाहत इश्क़ में थी या खुदा पाने में थी
एक समंदर की सी तमन्ना आँख के दाने में थी

बेगुनाही एक जिद इक़बाल जब तेरी ख़ुशी
और मेरी हर सजा तेरे बिछड़ जाने में थी

होश के इस फैसले से क्या मुझे हासिल हुआ
ज़िन्दगी की हर ख़ुशी छोटे से पैमाने में थी

सांस लेता है ये जाने कौन किसका जिस्म है
ज़िन्दगी तो अपनी तेरे गम के वीराने में थी

ये नहीं हासिल हुआ या वो नहीं मुमकिन हुआ
कशमकश ये हर घडी इस दिल को थर्राने में थी

सुर में रोने का हुनर हमको सीखा देता कोई
दर्द सी ही बेकरारी दर्द को गाने में थी

हौसला गिरने लगा है अब तेरे 'अहसास' का
किस कदर की बेबसी खुद का पता पाने में थी

मौलिक और अप्रकाशित

Views: 867

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Samar kabeer on July 25, 2015 at 11:46pm
इस भाव को पूरी तरह स्पष्ट करना वाक़ई मुश्किल है क्यूँकि इस शैर मैं तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष भी है लेकिन ख़याल और मौज़ू के लिहाज़ से इस दोष को गवारा किया जा सकता है,इस शैर को इस तरह कर लें :-

"बेगुनाही,जुर्म का इक़बाल,जब तेरी ख़ुशी
और मेरी हर सज़ा तुझ से बिछड़ जाने में थी"
Comment by मनोज अहसास on July 22, 2015 at 3:53am
आदरणीय कबीर सर
नमस्कार
बहुत आभार

बेगुनाही एक ज़िद इक़बाल जब तेरी ख़ुशी
और मेरी हर सजा तेरे बिछड़ जाने में थी

इसमें भाव ये है कि यदि आपकी ख़ुशी मुझे जुर्म का इकबाल करते हुए देखने में है तो फिर मेरा खुद को बेगुनाह बताना एक ज़िद है भले ही मै बेगुनाह हु और मै दुनिया की सारी सज़ाएं तुझसे बिछड़ जाने में ही महसूस करता हु अब और कोई सजा मेरे लिए इससे बड़ी नहीं है

ये कहने का भाव रहा है
पूरी तरह स्पष्ठ कर पाना मुश्किल है


पुनः इस्लाह का आग्रह है
सादर
Comment by Samar kabeer on July 22, 2015 at 12:09am
जनाब मनोज कुमार अहसास जी,आदाब,हैरतज़दा हूँ मैं आपकी ग़ज़ल सुनकर ,कमाल कर दिया मनोज भाई आपने ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

बात चूँकि इस्लाह की है इसलिये अर्ज़ करता हूँ कि एक मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-

(1)"बेगुनाही एक जिद इक़बाल जब तेरी ख़ुशी"

:- ये मिसरा अपने सानी मिसरे से चिपक नहीं रहा है,दूसरी बात ये कि इसमें बयान बहुत कमज़ोर है ,बात मेरी तो समझ में नहीं आई कि आप इस मिसरे में क्या कहना चाहते हैं ,इसमें "इक़बाल" शब्द वो meaning नहीं दे रहा जो उसे देना चाहिये ।
Comment by मनोज अहसास on July 21, 2015 at 6:46pm
नमस्कार सर
बहुत बहुत आभार
मेहरबानी
शुक्रिया
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2015 at 4:37pm

अद्भुत ग़ज़ल से दो-चार हो रहा हूँ मनोज अहसास भाई ! आपकी सोच, सोच को लफ़्ज़ों में उकेरना, अश’आर को बाँधना ! वाह !
मतले के सानी को इक समंदर की तमन्ना आँख के दाने में थी करना था. लगता है, पोस्ट करने के क्रम में ध्यान नहीं गया.
वैसे तो हर शेर मोती की तरह दमक रहा है. लेकिन निम्नलिखित पर मन भावुक हुआ जा रहा है -
सुर में रोने का हुनर हमको सिखा देता कोई
दर्द सी ही बेकरारी दर्द को गाने में थी.
ओह्होह !

टंकण त्रुटियों के प्रति सज़ीदा हो जाइये, भाई.
बहरहाल, आपकी ग़ज़ल पढ़कर मुग्ध हो गया हूँ. हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by मनोज अहसास on July 14, 2015 at 6:47pm
बहुत आभार
आदरणीय विनय जी
सादर
Comment by विनय कुमार on July 14, 2015 at 6:07pm

// होश के इस फैसले से क्या मुझे हासिल हुआ
ज़िन्दगी की हर ख़ुशी छोटे से पैमाने में थी // , वाह , बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है , बधाई आदरणीय मनोज एहसास जी..

Comment by मनोज अहसास on July 14, 2015 at 4:30pm
आप सभी का बहुत आभार
आप से ही सीख रहा हु
इनायत की इल्तज़ा है
सादर
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 14, 2015 at 2:21pm

क्या बात है क्या बात है........ बहुत खूब अश्यार हुए है,बधाई व् शुभकामनाएं!

Comment by वीनस केसरी on July 14, 2015 at 3:55am

आपकी अब तक की सबसे शानदार ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ
ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service