"अमां जफर बेटा, अपने अब्बू से न दुआ न सलाम! ये अल सुबह कहाँ भागे जा रहे हो?" खालिदा बेगम ने घर से बाहर जाते बेटे को बरामदे से ही आवाज लगायी।
"अरे अम्मीजान, मैं पहले ही 'जिम' के लिये लेट हो गया हूँ और आप......., खैर! आदाब अब्बा हुजूर।" बरामदे में ही बैठे अनवर मियां को दूर से ही हाथ हिलाकर जफर ने आदाब किया और देखते ही देखते ही नजरो से गायब हो गया।
उसकी हरकत पर खालिदा बेगम को तो हॅसी आ गयी अलबत्ता अनवर मियां पान की ग्लोरी मुँह में रखते रखते भुनभुना गये:
"लाहोल विला कुव्वत! ये आजकल के बच्चे। अरे पड़ोस के कामिल मियां के साहबजादे को देखो, कितना जहीन है, जब भी आता है घर भर में सबको तहजीब से सलाम करके जाता है। और एक हमारा........।"
"बस रहने दीजिये मियां।" अनायास ही खालिदा बेगम संजींदा हो गयी और बात को बीच में ही काट दिया। "ना चाहिये हमें अपने जफर में उसके जैसी तहजीब। कभी बहू बेटियो से तहजीबी सलाम करते बक्त उसकी आँखो में चमकती बेशर्मी पर भी गौर फरमाया है आपने।"
अचानक ही अनवर मियां को मुँह में रखी पान की ग्लोरी कसैली लगने लगी थी।
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'विरेन्दर वीर मेहता'
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ० वीरेन्द्र वीर मेहता जी
मुखौटों में छुपी बदनीयती...को बाखूबी प्रस्तुत किया है. शालीनता व सभ्य आचरण नज़रों से झलकता है..बहुत सुन्दर लघुकथा प्रस्तुत हुई है.
हार्दिक बधाई
अच्छी प्रस्तुति !
एक अच्छी और हृदयस्पर्शी लघुकथा पर ,आपको बधाई आ VIRENDER VEER MEHTA जी |दिखाऊ तहजीब पर अदृस्य तहजीब भारी है|
आदरणीय वीरेंदर मेहता जी,
बढ़िया लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई.
आज आप डबल ट्रिपल आभार व्यक्त कर रहे है सोचा मैं भी गंगा नहा लूं. आपने आ. ओमप्रकाश जी का 4 बार, आ. रवि शुक्ल जी का 2 बार , आ. धमेंद्र जी का 2 बार और आदरणीय विनय जी का 2 बार आभार व्यक्त किया है. थोड़ा श्रम बचाइये आपको अन्य रचनाकारों के ब्लोग्स पर भी कमेंट्स करने है, जो बहुत दिनों से आप व्यस्तता के कारण नहीं कर पाए है. सादर
ऐसी ही दिखावे के आचरण को देसी ढंग में ’दिखाऊ साव का ढोल’ कहते हैं. किसी के प्रति आदर श्रद्धा स्नेह आँखों में ही होती है.
एक अच्छी लघुकथा केलिए हार्दिक बधाइयाँ.
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