"अमर! गाडी पंडितजी के घर के आगे लगाकर जरा उन्हे तनिक बाहर बुला लाओ।" सेठ जी ने अपने ड्राईवर को आज्ञा दी।......
कुछ ही क्षण बाद अमर के पीछे पंडितजी बाहर आते नजर आये। "सेठजी राधे राधे। मैं गीता पाठ कर रहा था आप के आने की बात सुन पाठ छोड़ चला आया, कहिये कैसे याद किया आपने?"
"राधे राधे पंडितजी।" सेठजी मुस्कराने लगे। "कुछ खास नही, आप के लिये कुछ वस्त्र लिये थे सोचा गुजरते हुये देता चलूँ।"
पंडितजी से 'आयुष्मान भव:' का आशिर्वाद पा सेठजी की गाडी आगे चल पड़ी। अमर 'बैक मिरर' में सेठजी को देखते हुये हैरान हो पूछने लगा। "सेठजी आप तो पंडितजी को सत्यनारायण की पूजा के लिये कहने वाले थे न!"
हाँ बेटा, लेकिन जिस व्याक्ति की अपनी पूजा में ही सम्पूर्ण श्रद्धा नजर नही आ रही उससे पूजा करवाना......।" कहते कहते सेठजी चुप हो गये।
'विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी ,
प्रणाम .
आप की श्रद्धा लघुकथा पढ़ कर सचमुच ऐसी श्रद्धा से विश्वास उठ गया. शानदार रचना आप की .
बधाई आप को
बहुत ही बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी , आजकल कहाँ मिलती है सच्ची श्रद्धा | बधाई इस लघुकथा के लिए.
सच कहा आपने जिस पर विश्वास नहीं उससे पूजा !!! आजकल पूजा के नाम पर व्यवसाय करते हैं लोग सच्ची आस्था है कहाँ
बहुत बढ़िया कटाक्ष करती लघु कथा आ० विनोद जी आपको बहुत- बहुत बधाई
पंडिताई भी एक बहुत ही फलता फूलता बिज़नेस है आज के समय का I अच्छी कथा है आ०वीरेन्द्र जी
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