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ग़ज़ल -- आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया ( बराए इस्लाह )

तरतीब से सजे दर-ओ- दीवार घर नहीं
सुख दुख में जब कि साथ तेरे हमसफ़र नहीं

ऐसा नहीं कि राहे सफ़र में शजर नहीं
आसान फिर भी जिन्दगी की रहगुज़र नहीं

उपदेश दूसरों को सभी लोग दे रहे
खुद उन पे जो अमल करे ऐसा बशर नहीं

रिश्तों की भीड़ में कहीं गुम हो गये सभी
अब रौनकें वो पहले सी, चौपाल पर नहीं

जीवन की भागदौड़, चकाचौंध में बशर
खोया है इस कदर उसे खुद की खबर नहीं

गुटका शराब पीते हैं अब सब के सामने
आया अजीब दौर है बच्चों को ड़र नहीं

जन्नत की हर खुशी पे तेरे दिल का राज हो...??
शुक्र-ए-खुदा मना कि जो तू दरबदर नहीं

साहिल पे बैठ कर जो फ़क़त ख़्वाब देखते
किस्मत में उनकी एक भी लालो गुहर नहीं

छूटे जनम मरण का ये बन्धन, मिले खुदा
दरवेश की दुआ में वो अब तक असर नहीं

आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया
शेर-ओ-सुख़न तो कहने का मुझ में हुनर नहीं

-- दिनेश कुमार २२/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

अरकान -- २२१-२१२१-१२२१-२१२

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Comment by Pari M Shlok on February 24, 2015 at 11:40am
गुटका शराब पीते हैं अब सब के सामने
आया अजीब दौर है बच्चों को ड़र नहीं

रिश्तों की भीड़ में कहीं गुम हो गये सभी
अब रौनकें वो पहले सी, चौपाल पर नहीं
लाजवाब ग़ज़ल ...............................!!
Comment by दिनेश कुमार on February 24, 2015 at 6:57am
मिथिलेश भाई जी, मुझे जमीन पर ही रहने दो.. इतनी वाह वाह दिमाग में चढ़ सकती है। हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया भाई। अब शायद एक महीने का अवकाश लेना पड़ेगा मुझे, सभी टोकने लगे हैं। अप्रैल में पुनः कोशिश करूँगा। रचनाएँ तो पढ़ता रहूँगा। स्नेह बनाए रखिएगा।
Comment by दिनेश कुमार on February 24, 2015 at 6:43am
शुक्रिया आदरणीय भाई Hari Prakash Dubey जी। हौसला अफजाई के लिए आभार
Comment by दिनेश कुमार on February 24, 2015 at 6:41am
हौसला अफजाई का शुक्रिया आदरणीय गिरिराज सर जी। आभार। अरकान लिख दिए हैं सर जी।
Comment by दिनेश कुमार on February 24, 2015 at 6:39am
शुक्रिया आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव। आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 24, 2015 at 12:31am

वाह...वाह...वाह...वाह...वाह...वाह... क्या खूब ग़ज़ल कही है दिनेश भाई जी  . एक एक अशआर कमाल है .... बहुत ही उम्दा और बेहतरीन ग़ज़ल ... दिल से दाद कुबूल फरमाए. आदरणीय समर कबीर जी के सुझाव से मिसरे में गज़ब का निखार आया है. आपकी श्रेष्ट ग़ज़लों में से एक....ग़ज़ल की बहुत बहुत बधाई  

Comment by दिनेश कुमार on February 24, 2015 at 12:07am
सर्वप्रथम नतमस्तक आदरणीय समर कबीर सर जी। आप ने ग़ज़ल पढ़ी, सराहा, मैं धन्य हुआ। आप का सुझाव अति उत्तम है आदरणीय। वैसे मैंने मिले ही लिखा था। आशीर्वाद बनाए रखिएगा सर जी।
Comment by Samar kabeer on February 24, 2015 at 12:00am
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,इन्तिहाई ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,यह मिसरा शायद टाईपिंग की ग़लती का शिकार हो गया है :-

"छूटे जनम मरण का ये बन्धन, मिले खुदा"

इसमें "मिले" की जगह "मिरे" होगा शायद ?
Comment by Hari Prakash Dubey on February 23, 2015 at 11:50pm

आदरणीय दिनेश भाई, सुन्दर रचना 

रिश्तों की भीड़ में कहीं गुम हो गये सभी
अब रौनकें वो पहले सी, चौपाल पर नहीं....हार्दिक बधाई आपको !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 23, 2015 at 3:12pm

आया था जो भी ज़ेहन में काग़ज़ पे लिख दिया
शेर-ओ-सुख़न तो कहने का मुझ में हुनर नहीं  ------ बहुत सुन्दर !! हार्दिक बधाइयाँ , आदरणीय दिनेश भाई ! बहर नहीं जान पाया , लिख दें तो गज़ल समझने में आसानी होगी , और बाक़ियों को भी ॥

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