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1
न्याय पर जनतंत्र जन कल्याण पर,
अर्थ अवसरवाद का चेहरा लगा है/
रोशनी सर्वत्र जाने में विवश है,
बादलोँ का सूर्य पर पहरा लगा है/
2
तुम अँधेरे पंथ पर क्यों चल रहे,
रोशनी के जाल हमने तिर दिये हैं/
रह गई जो कालिमा दीपक तले,
उन अँधेरोँ से तो दीपक पल रहे हैं/
3
नीँद उड़ती जा रही है,रात रिसती रह गई/
धार में नौका ना जाने किस दिशा को गह गई/
उड़ गये बादल छलक पाताल का पानी गया,
फिर बिगड़ते सन्तुलन की बात धरती कह गई/
4
कहीं रूपसि की रुपहली अवनिकायें तिर रहीं हैं/
चादरें पर्यावरण की गंदगी से घिर रही हैं/
तप भगीरथ फिर तेरी भागीरथी में,
नालियाँ गंदे शहर की गिर रही हैं

(मौलिक और अप्रकशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 3, 2014 at 8:51pm

बादलों पर सूर्य का पहरा लगा है ! बहुत खूब !

अच्छे अर्थवान और प्रभावी मुक्तकों के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय. 

धार में नौका ना जाने किस दिशा को गह गई..  ना की जगह न को किया जाय तो इस पद को सधा हुआ देखा जा सकता है. 

शिल्प के लिहाज से अंतिम मुक्तक को एक बार फिर देखना हो सकता है.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 29, 2014 at 11:41am

बहुत सुन्दर मुक्तक

अफ़सोस, भागीरथ फिर एक नयी गंगा अवश्य ला  सकते है  पर इस गंगा के प्रदूषण मुक्त करने में वे विरथ है i

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 29, 2014 at 11:04am

नीँद उड़ती जा रही है,रात रिसती रह गई/
धार में नौका ना जाने किस दिशा को गह गई/
उड़ गये बादल छलक पाताल का पानी गया,
फिर बिगड़ते सन्तुलन की बात धरती कह गई/----वाह ! सुन्दर मुक्तक रचना हुई है | ऐसा जीवन में होता रहता है और इसी से जीवन में भटकाव के कारण लक्ष तक पहुचने में देरी होने का कारण होता है | अनुपम भाव मुक्तक के लिए बधाई श्री प्रेम नारायण दीक्षित जी 

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 28, 2014 at 10:56pm
आदरणीय पं प्रेम नरायन दीक्षित जी , बहुत सुन्दर रचना, इतनी सुन्दर कि मन बहुत कुछ बोल जाता है, जैसे :
न्याय स्वयं होता नहीं
एक न्यायकर्ता चाहिए
दिशाशून्य जनतंत्र को
मुक्त जीवन चाहिए
*****************
हम अँधेरे में चल रहे हैं
इस विशवास के साथ
कि अंधेंरे को अँधेरे से
मिट जाना चाहिए
***************
नसों में रक्त बहता रहे ,
रुके नहीं , जीवन चलता है .
शहर की नालियों में पानी ,
बहता रहे , रुके नही.
शहर चलता रहता है .
शहर की आब-ओ- हवा अच्छी
रहे , शह्‌र खुश रहता है.
पर ये हमको कहाँ
समझ में आता है
हमें तो इसके लिए भी
एक भगीरथ चाहिए.
इस सारगर्भित रचना के लिए सादर बधाई .

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