मौलवी साहिब के घर गहरी उदासी छाई हुई थी. उनके तीनो बच्चों को डॉकटरी जांच के दौरान पोलियों रोग से ग्रस्त पाया गया था. उम्र अधिक होने के कारण अब उन बच्चों का इलाज भी सम्भव नहीं था. अत: ज़िंदगी भर के लिए बच्चों के अपाहिज होने की कल्पना मात्र से ही हर कोई दुखी था. मोहल्ले के गरीब और निरक्षर परिवारों के दौड़ते भागते तंदरुस्त बच्चों को देखकर पढ़े लिखे मौलवी साहिब बार बार यही सोच रहे थे कि काश उन्होंने भी धार्मिक फतवों से ज्यादा अपने बच्चों की परवाह की होती।
मौलिक / अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
०१-०३-२०१४
Comment
आदरणीय गुरुदेव श्री सौरभ सर जी,
सादर
मार्ग दर्शन हमेशा दीजिए
स्नेही वन्दना जी
खुश रहिये
आदरणीय श्री जीतेन्द्र जी
सादर आभार
आदरणीय श्री केवल प्रसाद जी
सादर आभार
आदरणीय श्री भंडारी जी
सादर आभार
आदरणीय श्री बैद्यनाथ सारथि जी
सादर आभार
आदरणीय शुभ्रांशु जी
सादर आभार
आदरणीय मयंक जी
सादर आभार
आपकी इस लघुकथा को मैं एक सचबयानी की तौर पर लूँगा. ऐसी खरी-खरी के लिए आपके आगे नत-मस्तक हूँ, आदरणीय प्रदीपजी.
सादर
आदरणीय कुशवाहा सर:
सही विषय चुना है आपने।
कई बार यही होता है और फिर पछताने से भी कुछ होने वाला नहीं रहता.
सादर बधाई आपको इस सम्प्रेष्ण के लिए आदरणीय।
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