धर्म अधर्म
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धर्म अधर्म
देशकाल की धुरी पर
नर्तन करता हुआ
ज्ञानियों / अज्ञानियों
की गोद में
पल पल मचलता
रंग बदलता
कुछ न कुछ कहता है
युग हो कोई
नयी बात नहीं
परोक्ष / अपरोक्ष
दिल के किसी कोने में
रावण रहता है
विष वमन
घायल तन मन
चिंतन मनन
जन जन छलता है
न कर मन मलिन
न हो तू उदास
रख द्रढ़ विश्वास
अत्याचारों की
जब जब अति होती है
हरी भरी वसुंधरा
पापों से रोती है
होता कोई अवतार
अधर्म पर धर्म की
विजय होती है
मौलिक//अप्रकाशित//
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
8-1-2013
Comment
रचना ..धर्म अधर्म.. पर आपका स्नेह पा कर अभिभूत हूँ. स्वास्थ्य कारणों से प्रत्येक का अलग अलग आभार व्यक्त न कर कुछ समय तक सामूहिक आभार स्वीकार करें. में आपकी रचनाओं का आनंद तो ले रहा हूँ, पर कुछ कह नही पा रहा हूँ. क्षमा करेंगे.
आदरणीय प्रदीप कुशवाहा जी ,
बहुत सुन्दर सुगठित संयत प्रस्तुति..वाह !
हार्दिक बधाई
बहुत सुंदर विचार है खुशवाहा जी.
इस सकारात्मक और सहज कविता के लिए हृदय से बधाई आदरणीय प्रदीपजी.
भावों का बहुत ही संयत और सुन्दर विन्यास हुआ है.
वाह वाह !
सादर
आदरणीय प्रदीप कुमार जी, इस सशक्त रचना के लिये दिल से बधाई. कथ्य, शिल्प, भाव सभी कुछ संतुलित, वाह !!!!!!
आदरणीय कुशवाहा सर जी, वाह खूब सूरत। धर्म की धुरी जिसके चारो ओर अधर्म फिरता है। सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
//धर्म अधर्म
देशकाल की धुरी पर
नर्तन करता हुआ
ज्ञानियों / अज्ञानियों
की गोद में
पल पल मचलता
रंग बदलता
कुछ न कुछ कहता है// वाह बहुत बढ़िया, आदरणीय कुशवाहा सर भावों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्वीकार करें
उत्तम रचना ... कई रंगों को उकेरती, एक पठनीय रचना ! मुबारक !...:)
आदरणीय कुशवाहा सर जी वाह मन प्रसन्न हो उठा बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति आदरणीय हृदयतल से ढेरों बधाई स्वीकारें.
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