जब घिर जाता है तिमिर में,
शून्य सलीब पर
टंग जाता है तन
और मुक्ति चाहता है मन
माँगती हूँ परिदों से
पंख उधार
और कल्पना की पराकाष्ठा
छूने निकल जाती हूँ
मलय के संग
उडती हुई पतझड़ के
पत्ते की तरह
जुड़ जाती हूँ
बकुल श्रंखला में
चुपके से,
मेघों के साथ लुकाछिपी
का खेल खलते हुए
जब थक जाती हूँ
फिर बूंदों के संग
लुढ़कती हुई
चली आती हूँ धरा पर
वापस
अपने आवरण में||
Comment
आदरणीय मंजरी पांडेय जी रचना पर आपकी सराहना हेतु हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश कुमारी जी बधाई। " आवरण " में आपने दिल का अनावरण किया है।
आदरणीय पवन अम्बा जी आपको रचना पसंद आई हार्दिक आभार आपका
प्रिय सीमा जी रचना पर आपकी उपस्थिति और सराहना पाकर मन गद-गद हो गया दिल से शुक्रिया आपका|
जब थक जाती हूँ
फिर बूंदों के संग
लुढ़कती हुई
चली आती हूँ धरा पर
वापस
अपने आवरण में||..bahut hi khub rachnaa...Rajesh Kumari ji...
जब थक जाती हूँ
फिर बूंदों के संग
लुढ़कती हुई
चली आती हूँ धरा पर
वापस
अपने आवरण में||...आहा हा राजेश जी इन पंक्तियों ने तो मन मगन कर दिया ...इतना खूबसूरत और दार्शनिक समापन हुआ रचना का कि पठन सार्थक हो गया ...ढेरों बधाई
राजेश कुमार झा जी इस उत्साह वर्धनीय सराहना हेतु हार्दिक आभार
एक सार्वभौम संवेदना को आपने जिस सुंदरता से शब्द दिए हैं वह निश्चित रूप से अनुकरणीय है, बहुत बधाई इस रचना पर
विंध्येश्वरि प्रसाद जी आपको रचना पसंद आई मेरी कल्पना की उड़ान को दिल से महसूस किया हार्दिक आभार आपका सच में परिंदों को देख् कर बहुत बार कल्पना करती हूँ की काश हमे भी पंख मिलते और हम भी उच्च गगन में उड़ आते
राम शिरोमणि पाठक जी आपको रचना पसंद आई हार्दिक आभार आपका
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