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Sushil Sarna's Blog (851)

चुप हो जाते हैं ...

चुप हो जाते हैं.....

मन ही मन

हम कितना बतियाते हैं

जब अक्सर

हम चुप हो जाते हैं//

कभी आँखें बोलती हैं

कभी लब थरथराते हैं

रुके हुए पाँव

मील का पत्थर हो जाते है

जब अचानक

हम चुप हो जाते हैं//

तारीकियों के कैनवास पे

रिश्तों की सिसकती रेखाओं से

अपनी तूलिका में

दर्द का रंग भरकर

उसमें सिमट जाते हैं

अक्सर जब

हम चुप हो जाते हैं//

तपती राहों पर

सूखे होते शज़र से लिपट…

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Added by Sushil Sarna on February 22, 2016 at 9:37pm — 2 Comments

प्यार में ....

प्यार में .......

नहीं नहीं

मैं अभी मृत्यु को

अंगीकार नहीं करना सकता//

अभी तो प्रेम सृजन का

शृंगार अधूरा है//

वृक्ष विहीन प्रेम पंथ पर

तलवों की तपिश का

संहार अधूरा है//

पाषाण बने पलों में

किसी लहर के

तट से मिलन का

इंतज़ार अधूरा है//

अभी तो मृत्यु से पूर्व

मुझे उसके लिए जीना है

जिसने आसमान के टूटे तारे से

बंद आँखों से

संग संग जीने की

दुआ माँगी है…

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Added by Sushil Sarna on February 16, 2016 at 9:02pm — 4 Comments

थाप पे तबले की ....



थाप पे तबले की ....

थाप पे  तबले  की  घुंघरू बजने लगे

किसने  पहचानी  इनकी  परेशानियां

दाम लगने लगे ज़िस्म थिरकने लगे

आई नज़र में नज़र तो बस हैवानियाँ

थाप पे तबले की ......

सब  खरीददार  थे  कोई  अपना न था

सूनी  आँखों  में  कोई भी सपना न था

चीर डाला  हर  एक  हाथ ने जिस्म को

बज़्म में चश्म से दर्द छलकना  न  था

शोर साँसों  की सिसकी का हर ओर था

हर  सिम्त  थी  बस नादान नादानियां

पाँव  घुंघरू  बंधे  महफ़िल में बजते रहे

किसने  …

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Added by Sushil Sarna on February 8, 2016 at 9:58pm — 8 Comments

अपना अधिकार रहने दो ....

अपना अधिकार रहने दो ....

व्यथित हृदय

कुछ तो रहने दो मन में

व्यथा को शब्दों के लिबास मत दो

शब्द सज संवर के आएंगे

जाने क्या क्या कह जाएंगे

अपने मौन को

शब्दों के आश्रित मत करो

सफर में शब्द भाव बदल देते हैं

जो अपनी होती है

वही बात

शब्दों के परिधान पहन

पराई हो जाती है

अपनी बात को

लोचन में पिघलने मत दो

अन्यथा व्यथा का रूप बदल जाएगा

बात का अपनापन

परायेपन की आशंका से

व्यर्थ में गीला हो जाएगा

बात…

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Added by Sushil Sarna on February 5, 2016 at 12:50pm — 6 Comments

उस पार ...

उस पार ...

सच मानिए

नदिया के उस पार तो

कुछ भी नहीं है

जो कुछ भी है

सब इस पार यहीं है

आरम्भ भी यहीं है

अंत भी यहीं है

खुद से मिलने का

खुद में समाया

जीव का अलौकिक

पंत भी यहीं है

उस पार तो

कुछ भी नहीं है //

एक घर से

दूसरे घर की दूरी

एक श्वास भर ही तो है //

एक स्वप्न और

यथार्थ की दूरी

एक श्वास भर ही तो है //

एक मिलन और

विछोह की दूरी

एक श्वास भर ही…

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Added by Sushil Sarna on February 3, 2016 at 8:40pm — 12 Comments

उम्र का सफर ....

उम्र का सफर ....

हम उम्र के साथी

शायद मेरी तरह

बूढ़े होने लगे हैं

केशों में चमकती चांदी

चेहरे की झुर्रियां

जीवन का सफर का

बेबाक आईना हैं

हाँ, सच

ये तो मेरी ही तरह बूढ़े हो चुके हैं

इनके हाथ काम्पने लगे हैं

मुंह की लार बस में नहीं है

ज़िंदगी को

बिना किसी सहारे के जीने वाले

बूढ़ी थकी लाठी पर

अपनी देह का बोझ लादे

डगमगाते पाँव लिए

जीवन का शेष सफर

तय करते नज़र आते हैं

क्या ! जीवन के सूरज का…

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Added by Sushil Sarna on January 29, 2016 at 8:53pm — 8 Comments

किस लिए वो हसीं बेवफा हो गयी (एक ग़ज़ल एक प्रयास ).....

किस लिए वो हसीं बेवफा हो गयी (एक ग़ज़ल एक प्रयास )

२१२ x ४

रदीफ़=हो गयी

काफ़िया=आ

किस लिए वो हसीं बेवफा हो गयी

जान हम से हमारी जुदा हो गयी !!१!!

अब गिला आसमां से नहीं है हमें

बे-असर अब हमारी दुआ हो गयी !!२!!

हाल अपना सुनायें किसे हम भला

लो मुहब्बत हमारी खता हो गयी !!३!!

रात भर करवटों में वो लिपटी रही

याद उनकी हमारी क़ज़ा हो गयी !!४!!



दिल भला या बुरा समझता है कहाँ

ये मुहब्बत सुल्ह की रज़ा हो गयी…

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Added by Sushil Sarna on January 21, 2016 at 8:57pm — 6 Comments

बोलते पलों का घर .....

बोलते पलों का घर .....

हमारे और तुम्हारे बीच

कितनी मौनता है

एक लम्बे अंतराल के बाद हम

एक दूसरे के सम्मुख

किसी अपराध बोध से ग्रसित

नज़रें नीची किये ऐसे खड़े हैं

जैसे किसी ताल के

दो किनारों पर

अपनी अपनी खामोशी से बंधी

दो कश्तियाँ//

कितने बेबस हैं हम

अपने अहंकार के पिघलते लावे को

रोक भी नहीं सकते//

चलो छोडो

तुम अपने तुम को बह जाने दो

मुझे भी कुछ कहने को

बह जाने दो

शायद ये खारा…

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Added by Sushil Sarna on January 18, 2016 at 7:50pm — 6 Comments

दिल के अहसासों को ...

दिल के अहसासों को ...

मैं नहीं जानता

वो किसकी दुआ थी

मैं नहीं जानता

वो किसकी सदा थी

मैं तो ये भी नहीं जानता

कब उसके लम्स

मेरे ज़िस्म पर

अपनी पहचान छोड़ गए

शायद वो रेशमी इज़हार

खामोशी की कबा में ग़ुम थे

कब साँझ ने

तारीक का लिबास पहन लिया

बस ! न जाने कब

चुपके से इक ख्याल

हकीकत बन गया

न पलक कुछ बोली

न लबों पे कोई जुंबिश हुई

दिल के अहसासों को

इक दूजे की हथेलियों ने

इक दूजे…

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Added by Sushil Sarna on January 7, 2016 at 7:30pm — 6 Comments

शिकन भरा लिबास....

शिकन भरा लिबास......

ये सुर्ख सी आँखें

बिखरी हुई जुल्फें

शिकन भरा लिबास देख

आज अपने ही दर्पण में

मैं लुटी नज़र आती हूँ //

हर शब की तरह

जो आज भी

इस जिस्म को रूहानी ज़ख़्म दे गया

फिर उसी के साथ बेवजह

जीने की ज़िद कर जाती हूँ //

जानती हूँ

वो फिर कुछ पल के लिए आएगा

अपने दिए ज़ख्मों पे

झूठे वादों का मरहम लगाएगा

मैं उसकी बातों में आजाऊंगी

भूल जाऊँगी दर्द ज़ख्मों का

और अपना अस्तित्व भी भूल जाऊँगी //

झूठा ही…

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Added by Sushil Sarna on January 6, 2016 at 4:29pm — 6 Comments

कितना अच्छा हो .....

कितना अच्छा हो  ....

अभी-अभी

हवाओं के थपेड़ों से बजते

वातायन के पटों ने

तिमिर में सुप्त चुप्पी से

चुपके से कुछ कहा //

अभी-अभी

रिमझिम फुहारों ने

चंचल स्मृति की

असीम गहराईयों संग

अंगड़ाई ली //

अभी-अभी

एक रूठा पल

घोर निस्तब्धता को

अपनी निःशब्द श्वासों से

जीवित कर गया //



अभी-अभी

एक तारा टूट कर

किसी की झोली

सपनों से भर गया //

अभी-अभी से लिपट

कभी पलक…

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Added by Sushil Sarna on January 4, 2016 at 7:48pm — 12 Comments

चुटकियाँ- ….. …



चुटकियाँ- ….. …



नेता   क्या   और भाषण क्या

भाषण   पे   अनुशासन  क्या

मूक    बधिर   इस जनता को

व्यर्थ   में     आश्वासन    क्या !!1!!



देश   क्या     विकास      क्या

बिन    कुर्सी  मधुमास    क्या

छल करते जो नित् निर्बल  से

उस आवरण का विश्वास   क्या !!2!!



नीति   क्या    अनीति      क्या

भ्रष्ट की  सोच   से  प्रीति   क्या

जनता के जो खून  से   जिन्दा

उस   नेता   की  परिणति क्या !!3!!



फ़र्ज़    क्या  …

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Added by Sushil Sarna on December 24, 2015 at 1:27pm — 6 Comments

ये सिलसिला .......

ये सिलसिला .......

सच ! कितना स्वार्थी है इंसान

हर जीत पे मुस्कुराता है

हर हार से जी चुराता है

अपने स्वार्थ की पगडंडी पर अक्सर

वो हर रास्ते से नाता जोड़ लेता है

हर मोड़ पे इक दर्द को छोड़ देता है

हर कसम तोड़ देता है

मुहब्बत की पाक इबारत पे

वासना की कालिख पोत देता है

जिस्म के रोएँ रोएँ में

नफ़रत की फसल छोड़ देता

किसी ज़िंदगी को नरक कर

उसके अरमानों को रौंद देता है

किसी की पाकीज़गी को

चीत्कारों से ढक देता है

उफ़ !…

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Added by Sushil Sarna on December 21, 2015 at 8:08pm — 4 Comments

नई पसंद का जमाना ... (110 वीं रचना )

नई पसंद का जमाना ... (110 वीं रचना )

राम राम भाई

आज दुकान खोलने में बड़ी देर लगाई

हमने भी पड़ोसी को राम राम कहा

और अपनी नासाज़ तबियत का हवाला देते हुए

अपनी दुकान का शटर उठाया

धूप अगरबत्ति जलाकर

उसके धुऐं को दुकान और गल्ले में घुमाया

प्रभु को शीश नवाकर

अच्छी बोहनी के लिए प्रार्थना करके

धूपदानी प्रभु के आगे रखी ही थी कि

एक ग्राहक ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई

हमने चौंक कर

अपनी सुराहीदार गर्दन को

भगवान बने ग्राहक की तरफ घुमाया…

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Added by Sushil Sarna on December 15, 2015 at 12:45pm — 4 Comments

हकीकत.....

हकीकत.....

उस दिन

जब तुमने मेरे काँधे पे

अपना हाथ रखा था

कितने ख़ुशनुमा अहसास

मेरे ज़हन में

उत्तर आये थे

लगा भटकी कश्ती को

जैसे साहिलों ने

अपनी आगोश में ले लिया हो

मगर मैं उन सुकून देते लम्हों को

कहाँ पहचान पायी थी

क्या खबर थी कि तुम

इज़हारे मुहब्बत के बहाने

मेरे कमजोर कांधों की

ताकत नाप रहे थे

मैंने तुम्हें अपना सागर मान

अपने वज़ूद को

तुम्हें सौंप दिया

आज तक

तुम्हारी उँगलियों की वो छुअन…

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Added by Sushil Sarna on December 14, 2015 at 1:00pm — 4 Comments

मर्यादा ....

मर्यादा ....

चक्षु को चक्षु से देखा

करते हमने द्वंद

उलझे करों को

देख इक दूजे में

हम तो रह गये दंग

आँख बचा कर

कब बाला ने

बदला कपोल का रंग

वर्तमान में बेहयाई का

हुआ ये आम प्रसंग

संस्कारों को त्याग जोड़े ने

अधर मिलाये संग

समझ न आये

क्यूँ इस युग में

कपडे हो गये तंग

मृग नयनी का

नशा देख के

फीकी पड़ गयी भंग

बैठ बाईक पर

दौड़ चले फिर

इक दूजे के संग

शर्मो-हया की चिंता किसे अब

सतरंगी है मन…

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Added by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 7:15pm — 2 Comments

अधूरे हर्फ़ :..........

अधूरे हर्फ़ :..........

हंसी आती है

अपने ख्यालों पर

मेरे तसव्वुर में

तुम जब भी आती हो

इक अधूरी ग़ज़ल की तरह आती हो

नज़र से नज़र मिलती ही

एक अजीब सी सिहरन होती है

तुम किताब के रूठे हर्फों की तरह

किसी कोने में सिमटी रहती हो

मैं अपने अधूरे हर्फों को

इक मुकम्मल शक्ल देने की कोशिश में

तमाम शब चरागों में झिलमिलाते

तुम्हारे अक्स के साथ

गुज़ार देता हूँ

सहर होने के साथ

हम अधूरे लफ़्ज़ों के तरह

मुकम्मल होने के लिए…

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Added by Sushil Sarna on December 7, 2015 at 8:04pm — 2 Comments

साये....

साये....

रहने दो

तुम सायों की खामोशी क्या जानो

तुम सिर्फ खोखले अहसासों के

सूखे शज़र हो

साये का दर्द तो सिर्फ

ज़मीन सहती है

हर जिस्मानी खरोंच को

खामोशी से पी जाती है

उफ़ नहीं करती

रेज़ा रेज़ा बिखरती

तारीक में सिमट जाती है

जब कोई तन्हा शब

किसी परिंदे की तरह

पेड़ पर फड़फड़ाती है

बेतरतीब से सलवटों में

तब वफा भी कराहती है

गुजरे लम्हों के साये

तमाम उम्र

जीने की सजा दे जाते हैं

ज़िस्म की कश्कोल में…

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Added by Sushil Sarna on December 2, 2015 at 8:02pm — 12 Comments

टीस......

टीस.....

चलो न

कुछ और बात करते हैं

अपनी अपनी टीस से

मुलाक़ात करते हैं

नेह से देह की थकान

तो अधरों से तृप्ति हारी है

सच कहूँ तो

बीती हुई रात की

चुपके से हुई बात

कुछ तेरी पलक पर

तो कुछ मेरी पलक पर

अभी तक भारी है

जूही के फूलों में लिपटे

वो स्वप्निल लम्हे

अस्त व्यस्त से सलवटों में

अपनी गंध से

अलौकिक अनुभूति की

व्याख्या करते प्रतीत होते हैं

निर्वसन शरीर के उजास की चांदनी

एकान्तता से लिपट…

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Added by Sushil Sarna on December 1, 2015 at 7:45pm — 10 Comments

न जग तेरा है .....

न  जग  तेरा  है .....

न  जग  तेरा  है  न  मेरा है

बस  दो  साँसों  का  डेरा  है 

है पल भर की बस भोर यहां 

पल  अगला  घोर  अँधेरा है 

न जग तेरा है ....

मैं पथ  का  कोई  शूल कहूँ 

या  जीवन  कोई  भूल कहूँ  

इक पल यहाँ पर है उत्सव  

पल  दूजा  दुख का  डेरा  है 

न जग तेरा है ....

स्वर  प्रेम नीड को ढूंढ रहे 

दृग पीर  नीर  में  मूँद रहे 

है नीरवता  हर  ओर यहां 

विष सेज पे सुप्त उजेरा है 

न जग तेरा है ....

अभिलाष हृदय की…

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Added by Sushil Sarna on November 24, 2015 at 9:35pm — 4 Comments

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