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Sushil Sarna's Blog (851)

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता का जो करें, सच्चे मन से मान। 

उनके जीवन का करें , ईश सदा उत्थान !!1!!

जीवन में मिलती नहीं ,मात-पिता सी छाँव। 

सुधा समझ पी लीजिये , धो कर उनके पाँव!!2!!

मात-पिता का प्यार तो,होता है अनमोल। 

उनकी ममता का कभी, नहीं लगाना मोल !!3!!

बच्चों में बसते  सदा, मात पिता के प्राण। 

बिन उनके आशीष के, कभी न हो कल्याण!!4!!

सुशील…

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Added by Sushil Sarna on November 2, 2017 at 12:30pm — 11 Comments

मुझे संसार में आने दो .....

मुझे संसार में आने दो .....

ठहरो !

पहले मैं अपनी बेनामी को नाम दे दूँ

गर्भ के रिश्ते को

दुनियावी अंजाम दे दूँ

जानती हूँ

जब

तुम मुझे जान जाओगे

बिना समय नष्ट किये

मुझे गर्भ से ही

कहीं दूर ले जाओगे

कूड़ेदान

कंटीली झाड़ियों

या फिर किसी नदी,कुऍं में

या किसी बड़े से पत्थर के नीचे

दूर रेगिस्तान में

फेंक आओगे

जहां से तुम्हें

मेरी चीख भी सुनायी न देगी

इसके बाद

तुम चैन की नींद सो…

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Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 6:49pm — 6 Comments

जुलाहा ....

जुलाहा ....

मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर

मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा  बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 12:30pm — 10 Comments

सुख की एक लाश ...

सुख की एक लाश ...

एक अंतराल के बाद

विस्मृति भंग हुई

तो चेतना

सूनी आँखों से

उबलते लावों में

परिवर्तित हो

बह निकली

व्याकुलता के कुंड में

प्रश्नों की ज्वाला में तप्ती

असंख्य अभिलाषाओं को समेटे

जीवन के अंतिम क्षितिज पर

ज़िंदा थी

एक लाश

सुख की



छिल गए

भरे हुए

घाव सभी

जब स्मृति जल ने

अपने खारेपन से

उनपर नमक छोड़ दिया

जलती रही देर तक

मात हो चुकी बाज़ी की

अवचेतन में सोयी…

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Added by Sushil Sarna on October 23, 2017 at 8:16pm — 10 Comments

अमर ...

अमर ...

प्रश्न 

कभी मृत नहीं होते
उत्तर
सदा अमृत नहीं होते
कामनाएं
दास बना देती हैं
उत्कण्ठाएं
प्यास बढ़ा देती हैं
शशांक
विभावरी का दास है
शलभ
अमर लौ अनुराग है
दृष्टि
दृश्य की प्यासी है
तृषा
मादक मकरंद की दासी है
भाव
निष्पंद श्वास है
अंत
अनंत का विशवास है
स्मृति
कालजयी कल है
अमर
प्रीत का हर पल है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 5, 2017 at 6:07pm — 14 Comments

तुम चली आना ...

तुम चली आना   ... 



जब 

दिन भर का

शेष

थोड़ा सा

उजाला हो

थोड़ी सी

सांझ हो

मेरे प्रतीक्षा द्वार पर

निस्संकोच

तुम चली आना

जब

थके हारे विहग

अंधकार में

विलीन होती

सांझ के डर से

अपने अपने

तृण निर्मित घोंसलों में

अपनी

चहचहाट के साथ

लौट आएं

तब

मेरी आशाओं के घरौंदों में

अपनी प्रीत का

दीप जलाने

निस्संकोच

तुम चली आना

जब…

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Added by Sushil Sarna on September 29, 2017 at 8:30pm — 4 Comments

अवशेष ...

अवशेष ...

गोली
बारूद
धुंआ
चीत्कार
रक्तरंजित
गर्द में
डूबा
अन्धकार
शून्यता
इस पार
शून्यता
उस पार
बिछ गयी लाशें
हदों के
इस पार
हदों के
उस पार
बस
रहे शेष
अनुत्तरित प्रश्नों को
बंद पलकों में समेटे
क्षत-विक्षित
शवों के
ख़ामोश
अवशेष

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 28, 2017 at 5:10pm — 6 Comments

तेरे इंतज़ार में ...

तेरे इंतज़ार में ...

गज़ब करता रहा

तेर हर वादे पे

यकीं करता रहा

हर लम्हा

तेरी मोहब्बत में

कई कई सदियाँ

जीता रहा

और हर बार

सौ सौ बार

मरता रहा

पर अफ़सोस

तू

मुझे न जी सकी

मैं

तुझे न जी सका

पी लिया

सब कुछ मगर

इक अश्क न पी सका

मेरी ख़ामोशी को तूने

मेरी नींद का

बहाना समझा

तू

ग़फ़लत में रही

और

मैं

अजल का हो गया

तिश्नागर आँखों के …

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Added by Sushil Sarna on September 25, 2017 at 2:00pm — 19 Comments

ज़िद कर रही हूँ ...

ज़िद कर रही हूँ ...

जानती हूँ

हर नसीब में

हर शै

नहीं हुआ करती

फिर भी

मैं असंभव को

संभव करने की

ज़िद कर रही हूँ

कुछ और नहीं

बस

उम्र के हर पड़ाव पर

सिर्फ

प्यार करने की

ज़िद कर रही हूँ

मैं नहीं जानती

सात जन्म क्या होते हैं

पर उम्र की उस अवस्था पर

जब सब ख्वाहिशें

दम तोड़ देती हैं

चाहती हूँ

तब भी तुम

किसी मठ के

सन्यासी सी एकाग्रता लिए

मुझ से प्यार करने चले आना…

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Added by Sushil Sarna on September 21, 2017 at 3:10pm — 6 Comments

तुम ही बताओ न ...

तुम ही बताओ न ...

क्या हुआ

हासिल

फासलों से

आ के ज़रा

तुम ही बताओ न

इक लम्हा

इक उम्र को

जीता है

ख़ामोशियों के

सैलाब पीता है

उल्फ़त के दामन पे

हिज़्र की स्याही से

ये कैसी तन्हाई

लिख डाली

आ के

ज़रा

तुम ही बताओ न

ये किन

आरज़ूओं के अब्र हैं

जो रफ्ता रफ़्ता

पिघल रहे हैं

एक लावे की तरह

चश्मे साहिल से

क्यूँ हर शब्

तेरी…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 5, 2017 at 5:30pm — 8 Comments

तुम ही बताओ न ...

तुम ही बताओ न ...

क्या हुआ

हासिल

फासलों से

आ के ज़रा

तुम ही बताओ न

इक लम्हा

इक उम्र को

जीता है

ख़ामोशियों के

सैलाब पीता है

उल्फ़त के दामन पे

हिज़्र की स्याही से

ये कैसी तन्हाई

लिख डाली

आ के

ज़रा

तुम ही बताओ न

ये किन

आरज़ूओं के अब्र हैं

जो रफ्ता रफ़्ता

पिघल रहे हैं

एक लावे की तरह

चश्मे साहिल से

क्यूँ हर शब्

तेरी…

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Added by Sushil Sarna on September 5, 2017 at 5:30pm — No Comments

भोर होने से पहले ...

भोर होने से पहले ...

वाह

कितनी अज़ीब

बात है

सौदा हो गया

महक का

गुल खिलने से

पहले

सज गयी सेजें

सौदागरों की आँखों में

शब् घिरने से

पहले

बट गया

जिस्म

टुकड़ों में

हैवानियत की

चौख़ट पर

भर गए ख़ार

गुलशन के दामन में

बहार आने से

पहले

वाह

इंसानियत के लिबास में

हैवानियत

कहकहे लगाती है

ज़िंदगी

दलालों की मंडी में

रोज मरती है

जीने…

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Added by Sushil Sarna on August 31, 2017 at 4:30pm — 12 Comments

जब से तूने ..

जब से तूने ..



जब से तूने

मुझे

अपनी दुआओं में

शामिल कर लिया

मैं किसी

खुदा के घर नहीं गया



जब् से तूने

अपने लबों पे

मेरा नाम

रख लिया

मैं

तिश्नगी भूल गया



जब से तूने

मेरी आँखों को

अपने अक्स से

सँवारा हे'

मेरे लबों ने

हर लम्हा

तुझे पुकारा है



जब से तूने

निगाह फेरी है

लम्स-ए-मर्ग का

अहसास होता है

वो शख़्स

जो तुझमें कहीं

सोता था

आज

दहलीज़े…

Added by Sushil Sarna on August 30, 2017 at 3:30pm — 8 Comments

सिहरन ..../ज़न्नत ...

सिहरन ....

ये किसके आरिज़ों ने चिलमन में आग लगाई है।

ये किसकी पलकों ने फिर ली आज अंगड़ाई है।

होने लगी सिहरन सी अचानक से इस ज़िस्म में -

ये किसकी हया को छूकर नसीमे सहर आई है।

............................................................

ज़न्नत ...

वो उनके शहर की हवाओं के मौसम l

कर देते हैं यादों से आँखों को पुरनम l

तमाम शब रहती है ख़्वाबों में ज़न्नत -

पर्दों से हया के छलकती .है शबनम l



सुशील सरना

मौलिक एवं…

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Added by Sushil Sarna on August 30, 2017 at 2:52pm — 6 Comments

लौट आओ ....

लौट आओ .... 

बहुत सोता था

थक कर

तेरे कांधों पर

मगर

जब से

तू सोयी है

मैं

आज तक

बंद आँखों में भी

चैन से

सो नहीं पाया

माँ

जब भी लगी

धूप

तुम

छाया बन कर

आ गए

जब से

तुम गए हो

मुझे

धूप

चिढ़ाती है

छाया में भी

बहुत सताती है

पापा

डांटते थे

जब पापा

माँ

तुम मुझे

अपनी ममता में

छुपाती थी

डांटती थी

जब माँ…

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Added by Sushil Sarna on August 22, 2017 at 5:52pm — 17 Comments

एक मुट्ठी राख़ ..../अंगड़ाइयों से...

एक मुट्ठी राख़ ....

न ये सुबह तेरी है न रात तेरी है l
आबगीनों सी बंदे हयात तेरी  है l
इतराता है क्यूँ तू मैं की क़बा में -
एक मुट्ठी राख़ औकात  तेरी  है l

........................................

अंगड़ाइयों से...

उम्र जब अपने शबाब पर होती है l
तो मोहब्बत भी बेहिसाब  होती है l
जवां अंगड़ाइयों से मय बरसती है -
हर मुलाक़ात हसीन ख़्वाब होती है l

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित  

Added by Sushil Sarna on August 17, 2017 at 4:38pm — 2 Comments

नज़र की हदों से .....

नज़र की हदों से .....

अग़र

तेरे बिम्ब ने

मेरे स्मृति पृष्ठ पर

दस्तक

न दी होती

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

रह गया था

कोई क्षण

अधूरी तृषा लिए

तृप्ति के

द्वार पर

अगर

तेरी तृषा के

स्पंदन ने

मेरी श्वासों को

न छुआ होता

सच

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

लिपटा था

कोई मूक निवेदन

अपनी…

Continue

Added by Sushil Sarna on August 13, 2017 at 9:17pm — 12 Comments

नज़र की हदों से .....

नज़र की हदों से .....

अग़र

तेरे बिम्ब ने

मेरे स्मृति पृष्ठ पर

दस्तक

न दी होती

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

रह गया था

कोई क्षण

अधूरी तृषा लिए

तृप्ति के

द्वार पर

अगर

तेरी तृषा के

स्पंदन ने

मेरी श्वासों को

न छुआ होता

सच

मैं कब का

तेरी नज़र की

हदों से

दूर हो गया होता

शायद

लिपटा था

कोई…

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Added by Sushil Sarna on August 13, 2017 at 9:00pm — 2 Comments

ज़िंदगी...

ज़िंदगी...

ज़िंदगी का 

हासिल
है
मौत
क्या
मौत का
हासिल
है
ज़िंदगी ?

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on August 11, 2017 at 8:39pm — 6 Comments

क्षणिक सुख ...

क्षणिक सुख ...

कितने

दुखों से

भर दिया

बज़ुर्गों का दामन

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

सैंकड़ों झुर्रियों में

छुपा दिया

बज़ुर्गों के सुख को

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

मानवीय संवेदनाओं के

हर बंध अनुबंध

बिसरा डाले

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

ममता की अनुभूति

जो भूले न

आज तक

उन्हें

कन्धों तक का

मोहताज़ बना दिया

वर्तमान के…

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Added by Sushil Sarna on August 8, 2017 at 6:37pm — 6 Comments

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