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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s Blog (482)

कोसते रावण को हर दिन - ग़ज़ल

2122    2122    2122    2122

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चल  पड़ी नूतन  हवा  जब से शहर की ओर यारो

गाँव के  आँगन उदासी,  भर  रही  हर  भोर यारो

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अब  बुढ़ापा द्वार  पर  हर  घर  के बैठा है अकेला

खो  गया  है  आँगनों से   बचपनों  का  शोर यारो

**

ढूँढते तो हैं  शिरा  हम, गाँव  जाती  राह का नित

पर  यहाँ  जंजाल  ऐसा  मिल  न पाता छोर यारो

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हो गये कमजोर रिश्ते, अब दिलों के धन की खातिर

मंद   झोंके   भी   चलें  तो   टूटती   हर   डोर …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 15, 2014 at 11:08am — 11 Comments

किस्मतें कब हैं जगी -गजल

** 2122 2122 2122 212

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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी

सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी

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हम  तुम्हें  कैसे कहें  अब  दूरियों  को  पाट लो

कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी

**

कल हवा को भी  इजाजत  दी न थी यूँ आपने

आज  क्यों  भाने  लगी   है  गैर की मौजूदगी

**

रात-दिन  करने  पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें

कहने भर से दोस्तों  ये किस्मतें कब हैं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2014 at 11:30am — 22 Comments

आज रिश्ते क्यों सभी को - ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

**********************

सावनों   में   फिर   हमारे   घाव   ताजा   हो  गये

रंक  सुख  से  हम  जनम के, दुख के राजा हो गये

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साथ  माँ  थी  तो   दुखों में भी सुखों की थी झलक

माँ  गयी  है   छोड़   जब  से  सुख जनाजा हो गये

**

कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी

आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये                  ( ख्वाजा - स्वामी )

**

कोइ   चाहे    देह     हरना   और   कोई   दौलतें

आज …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2014 at 11:00am — 8 Comments

मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने - ग़ज़ल

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1222 1222 1222 1222

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जनम से आदमी हो, आदमी क्यों हो नहीं पाया

कि नफरत से भरे दिल में मुहब्बत बो नहीं पाया

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सितारे तोड़ डाले सब, करम उसका यही है बस

खता मेरी रही इतनी कि जुगनू हो नहीं पाया

***

मिला जो, कब खुशी उससे समेटी यार लोगों ने

उसी का गम जिगर को है जमाने जो नहीं पाया

***

तुझे क्यों खांसना उसका दिनों में भी अखरता है

पिता जो तेरे बचपन में… Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2014 at 4:34pm — 11 Comments

शरारत गर न करते तो - ग़ज़ल

1222    1222    1222    1222

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भला हो या बुरा हो बस, शिकायत  फितरतों में है

वो ऐसा शक्स है  जिसकी बगावत  फितरतों में है

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रहेगा साथ  जब तक वो  चलेगा  चाल उलटी ही

भले  ही  दोस्तों  में  वो, अदावत  फितरतों में है

**

उसे लेना  नहीं  कुछ  भी  बड़े   छोटे  के होने से

खड़ा हो  सामने जो भी, नसीहत  फितरतों में है

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हुनर  सबको  नहीं  आता  हमेशा  याद  रखने का

भुलाए वो किसी को  क्या, मुहब्बत फितरतों में है…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 26, 2014 at 11:00am — 25 Comments

जोड़ना आता नहीं पर बाँटनें की फितरतें -ग़ज़ल

2122    2122    2122    212

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पाँव  छूना  रीत  रश्में  मानता  अब  कौन  है

सर पे आशीषों  की छतरी तानता  अब कौन है

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जोड़ना  आता  नहीं पर ,  बाँटनें   की  फितरतें

धर्म हो  या  हो सियासत  जानता अब  कौन है

***

रो रहे क्यों वाक्य को तुम  मानने की जिद लिए

शब्द  भर  बातें  सयानों  मानता  अब  कौन है

***

सिर्फ दौलत  को यहाँ  पर रोज  भगदड़ है मची

प्यार की  खातिर  मनों को  छानता अब कौन है

***

सबको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:30am — 31 Comments

फुसफुसाहट नफरतों की तेज फिर होने लगी - ग़ज़ल

2122  2122  2122  212

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एक भी उम्मीद उन  से  तुम न पालो दोस्तो

रास्ता  इन  बीहड़ों  में  खुद  बना  लो दोस्तो

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बंद दरवाजे जो  दस्तक से  नहीं खुलते कभी

इंतजारी  से  तो  अच्छा  तोड़  डालो  दोस्तो

***

फुसफुसाहट नफरतों की तेज फिर होने लगी

प्यार का परचम  दुबारा तुम उठा लो दोस्तो

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होश में तो  कह  रहे  थे ‘साथ  हम तेरे खड़े’

गिर रहा मदहोशियों  में अब सॅभालो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 21, 2014 at 9:30am — 18 Comments

महज पाना किसी को भी मुहब्बत तो नहीं होती - ग़ज़ल

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1222 1222 1222 1222

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हुआ    जाता    नहीं   बच्चा   कभी   यारो   मचलने   से

नहीं    सूरत    बदलती   है   कभी   दरपन   बदलने   से

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जला  ले  खुद  को  दीपक  सा  उजाला   हो   ही  जायेगा

मना   करने   लगे   तुझको  अगर  सूरज  निकलने  से

***

हमारी   सादगी   है   ये   भरोसा   फिर   जो   करते   हैं

कभी  तो  बाज  आजा  तू  सियासत  हमको  छलने  से

***

बता  बदनाम  करता  क्यों  पतित  है  बोल अब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2014 at 9:26am — 14 Comments

मोह माया मत समझ संसार को - ग़ज़ल

2122    2122   212

*********************

तन  से  जादा  मन  जरूरी  प्यार को

मन  बिना  आये हो क्या व्यापार को

***

मुक्ति  का  पहला  कदम  है  यार ये

मोह  माया  मत  समझ  संसार को

***

इसमें   शामिल  और  जिम्मेदारियाँ

मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को

***

डूब कर  तम में  गहनतम भोर तक

तेज   करता   रौशनी  की   धार  को

***

तब कहीं  जाकर  उजाला  साँझ तक

बाँटता   है   सूर्य   इस   संसार …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 9:42am — 21 Comments

गिड़गिड़ाने से बची कब लाज तेरी द्रोपदी-ग़ज़ल

2122    2122    2122    212

***

शब्द   अबला  तीर  में  अब  नार  ढलना  चाहिए

हर दुशासन का कफन  खुद तू ने  सिलना चाहिए

***

लूटता  हो  जब  तुम्हारी  लाज  कोई  उस समय

अश्क  आँखों   से  नहीं  शोला  निकलना  चाहिए

***

गिड़गिड़ाने   से   बची   कब   लाज  तेरी  द्रोपदी

वक्त पर उसको सबक कुछ ठोस मिलना चाहिए

**

हर समय तो आ नहीं सकता कन्हैया तुझ तलक

काली बन खुद  रक्त  बीजों  को  कुचलना चाहिए

**

फूल बनकर  दे महक  उपवन को  यूँ तो  रोज तू…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 6, 2014 at 12:47pm — 31 Comments

बेमजा यार सफर रोज नई राहों का

2122     112 2     1122    22

**

खार  हूँ  एक  ये  सोचा   है  सभी  ने मुझको

फूल के साथ  जो  देखा  है  सभी  ने  मुझको

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बंद सदियों  से  पड़ा  था  मैं  किसी  कोने में

खत तेरा जान के  खोला  है सभी ने मुझको

**

भोर सा रास  तुझे  आज   मगर  आया क्यूँ

तम भरी  रात जो बोला  है  सभी ने मुझको

**

दाद  वैसे  तो   मिली  बात  बुरी भी  कह दी

बस तेरी  बात  पे  कोसा  है सभी ने मुझको

**

रूह  की  बात  किसे   यार  लगी  सौदों …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2014 at 10:30am — 25 Comments

सूरतों के साथ सीरत भी बदलनी चाहिए - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

बाद  इसके  भी  बहस  कुछ  और  चलनी चाहिए

सूरतों   के  साथ  सीरत  भी   बदलनी    चाहिए

**

चल  पड़े  माना  सफर  में  बात  इससे कब बनी

लौटने  को   घर   हमेशा   साँझ   ढलनी  चाहिए

**

आ  ही  जायेगा  भगीरथ  फिर  यहाँ  बदलाव को

आस की  गंगा  तुम्हीं  से फिर निकलनी चाहिए

**

है   जरूरी   देश   को   विश्वास   की   संजीवनी

मन हिमालय  में सभी के वो भी फलनी चाहिए

**

ब्याह की बातें  कहो या  फिर कहो तुम देश की

हाथ से  जादा …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 22, 2014 at 10:30am — 19 Comments

दर्द भूख का यारो - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

मौत   बेटियों   को  बस,  दाइयाँ  समझती  हैं

पीर  के  सबब  को  सब  माइयाँ  समझती  हैं

**

सोच  आज  तक  भी जब,  है  गुलाम जैसी ही

मुल्क  की  अजादी  क्या, बेडि़याँ  समझती हैं

**

दो  बयाँ  भले  ही  तुम  देश  की  तरक्की के

हर खबर है सच कितनी सुर्खियाँ समझती हैं

**

आप   के  बयानों  में    खूब   है  सफाई  पर

बेवफा  कहाँ  तक  हो,   पत्नियाँ  समझती हैं

**

दोष  तुम  निगाहों   को  बेरूखी  की  देते  हो

कान …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 16, 2014 at 12:30pm — 11 Comments

माँ के सिवा - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

** मेरे लिए आज मातृ दिवस और माँ की पुण्य तिथि का अद्भुत संयोग है l यह रचना माँ को समर्पित है l

जिंदगीभर  कौन देता  है खुशी माँ के सिवा

ले अॅधेरा  कौन  देता  रौशनी  माँ के सिवा

**

वह लहू  को कर  सुधा हमको हमेशा पोषती

कौन खुद को यूँ गला दे जिंदगी माँ के सिवा

**

बस रहे खुशहाल जग ये सोचकर भगवान भी

क्या बनाता और अच्छा इक नबी माँ के सिवा

**

दे के रिमझिम जिंदगी भर वो तपन हरती रहे

कौन अपनाता बता दे  तिश्नगी  माँ के…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 11, 2014 at 10:00am — 16 Comments

बात करते गाँव की - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

रोज    की   है   बादलों   से   छेड़खानी   आपने

और  गढ़  ली  प्यास  की  कोई  कहानी  आपने

***

चाह  रखते  हो  भगीरथ  सब  कहें  इतिहास में

पर न  खुद से  एक  दरिया  भी  बहानी  आपने

***

बात  करते  गाँव  की  पर कब  उसे  तरजीह दी

गाँव  को  तम  दे   सजाई   राजधानी    आपने

***

आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर

खोद  कूआँ  कब   निकाला  यार  पानी  आपने

***

लाख  दुख  मैं  मानता  हूँ  आपने  झेले  मगर

झोपड़ी  का  दुख  न   झेला  …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2014 at 12:00pm — 14 Comments

आचरण सबको यहाँ अब है नकाबों की तरह - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

***

हर खुशी  हमको  हुई  है अब सवालों  की तरह

और दुख आकर मिले हैं नित जवाबों की तरह

***

चाँद  निकला  तो  नदी में  देख छाया  खुश रहे

रोटियाँ  अब हम गरीबों को  खुआबों  की तरह

***

यूं कभी  जिसमें कहाये  यार हम  महताब थे

उस गली में आज क्यों खाना खराबों की तरह

***

एक भी आदत नहीं ऐसी कि तुझको  गुल कहूँ

पास काँटें क्यों रखो फिर तुम गुलाबों की तरह

***

है हमें तो जिन्दगी में साँस-धड़कन यार ज्यों

आप…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2014 at 9:30am — 13 Comments

मत कहो तुम है खिलाफत - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

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दर्द  दिल  का  जो  बढ़ा  दे, बोलिए  मरहम  कहाँ है

रौशनी  के दौर में  अब तम  के  जैसा  तम  कहाँ है

**

कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई

नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है

**

जै जवानों, जै किसानों,  की सदा  में थी कशिश जो

अब  सियासत  की  कहन  में यार वैसा दम कहाँ है

**

मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना

चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2014 at 1:00pm — 24 Comments

अगर हो जिंदगी देनी - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर'

1222    1222    1222    1222

**  **

हॅसी  में  राज पाया  है, कि कैसे  उन  को मुस्काना

उदासी  से  तेरी   सीखे, कसम  से  फूल  मुरझाना

**

भले ही  खूब  महफिल  में, हया का  रंग  दिखला तू

गुजारिश तुझ से पर दिल की, अकेले में न शरमाना

**

करो नफरत से  नफरत तुम, इसी से  दूरियाँ बढ़ती

मुहब्बत  पास  लाती है, भला  क्या  इससे घबराना

**

हमें   है   बंदिशों   जैसे,  कसम  से  रतजगे  उसके

इसी से हो  गया मुश्किल, सपन में  यार अब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2014 at 10:30am — 8 Comments

माँ के हाथों सूखी रोटी का मजा - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122        2122         212

आँसुओं को यूँ  मिलाकर  नीर में

ज्यों  दवा  हो  पी  रहा हूँ  पीर में

**

हाथ की रेखा  मिटाकर चल दिया

क्या लिखा है क्या कहूँ तकदीर में

**

कौन  डरता   जाँ  गवाने  के  लिए

रख जहर जितना हो रखना तीर में

**

हर तरफ उसके  दुशासन डर गया

मैं न था कान्हा  जो बधता चीर में

**

माँ के  हाथों  सूखी  रोटी का मजा

आ  न  पाया  यार  तेरी  खीर में

**

शायरी  कहता  रहा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 17, 2014 at 10:30am — 15 Comments

राजरानी के नवासे आप हैं - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122        2122     2122      212



जानता  हूँ  देह   के  बेलौस  प्यासे  आप  हैं

किन्तु जनता की नजर में संत खासे आप हैं

*

खुशमिजाजी आप की सन्देश देती और कुछ

लोग कहते  यूँ बहुत पीडि़त  जरा से  आप है

*…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 11, 2014 at 11:00am — 14 Comments

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"जी, कुछ और प्रयास करने का अवसर मिलेगा। सादर.."
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"क्या उचित न होगा, कि, अगले आयोजन में हम सभी पुनः इसी छंद पर कार्य करें..  आप सभी की अनुमति…"
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"जी जी .. हा हा हा ..  सादर"
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"अवश्य आदरणीय.. "
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"हर्दिक धन्यवाद, आदरणीय.. "
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