सौदेबाजी रह गई, अब रिश्तों के बीच ।
सम्बन्धों को खा गई, स्वार्थ भाव की कीच ।।
रिश्तों के माधुर्य में, आने लगी खटास ।
धीरे-धीरे हो रही, क्षीण मिलन की प्यास ।।
मन में गाँठें बैर की, आभासी मुस्कान ।
नाम मात्र की रह गई, रिश्तों में पहचान ।।
आँगन छोटे कर गई, नफरत की दीवार ।
रिश्तों की गरिमा गई, अर्थ रार से हार ।।
रिश्ते रेशम डोर से, रखना जरा सँभाल ।
स्वार्थ बोझ से टूटती, अक्सर इनकी डाल…
Added by Sushil Sarna on September 11, 2024 at 1:00pm — 2 Comments
दोहा त्रयी. . . . वेदना
धीरे-धीरे ढह गए, रिश्तों के सब दुर्ग ।
बिखरे घर को देखते, घर के बड़े बुजुर्ग ।।
विगत काल की वेदना, देती है संताप ।
तनहा आँखों का भला , सुनता कौन विलाप ।।
बहुत छुपाया हो गई, व्यक्त उमर की पीर ।
झुर्री में रुक रुक चला, व्यथित नयन का नीर ।।
सुशील सरना / 28-8-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 28, 2024 at 2:00pm — 2 Comments
दोहा पंचक. . . . प्रेम
प्रेम चेतना सूक्ष्म की, प्रेम प्रखर आलोक ।
प्रेम पृष्ठ है स्वप्न का, प्रेम न बदले मोक । ।
( मोक = केंचुल )
प्रेम स्वप्न परिधान है, प्रेम श्वांस की शान ।
प्रेम अमर इस भाव के , मिटते नहीं निशान ।।
प्रेम न माने जीत को, प्रेम न माने हार ।
जीवन देता प्रेम को, एक शब्द स्वीकार ।।
प्रेम सदा निष्काम का , मिले सुखद परिणाम ।
दूषित करती वासना, इसके रूप तमाम ।।
अटल सत्य संसार का, अविनाशी है प्रेम ।
भाव…
Added by Sushil Sarna on August 25, 2024 at 3:30pm — No Comments
दोहा पंचक ..... असली -नकली
हंस भेस में आजकल, कौआ बाँटे ज्ञान ।
पीतल सोना एक से, कैसे हो पहचान ।।
अपनेपन की आड़ में, लोग निकालें बैर ।
कौन किसी के वास्ते, आज माँगता खैर ।।
अच्छी लगती झूठ की, वर्तमान में छाँव ।
चैन मगर मिलता वहाँ, जहाँ सत्य की ठाँव ।।
धोखा देती है बहुत, अधरों की मुस्कान ।
मन में क्या है भेद कब, होती यह पहचान ।।
रिश्तों में बुझता नहीं, अब नफरत का दीप ।
दुर्गंधित जल में नहीं, मिलते मुक्ता सीप…
Added by Sushil Sarna on August 23, 2024 at 4:41pm — 2 Comments
दोहा पंचक. . . . . बारिश का कह्र
अविरल होती बारिशें, अब देती हैं घाव ।
बारिश में घर बह गए, शेष नयन में स्राव ।।
निर्मम बारिश ने किया, निर्धन का वो हाल ।
झोपड़ की छत उड़ गई, जीवन बना सवाल ।।
अस्त- व्यस्त जीवन हुआ, बारिश से चहुँ ओर ।
जन जीवन नुकसान से, भीगे मन के छोर ।।
वर्षा का तांडव हुआ, बहे कई प्रासाद ।
शेष बचे अवशेष अब, बने भयंकर याद ।।
कैसे मंजर दे गया, बरसाती तूफान ।
जमींदोज पल में हुए , पक्के बड़े मकान…
Added by Sushil Sarna on August 22, 2024 at 3:00pm — No Comments
दोहा त्रयी. . . रंग
दृष्टिहीन की दृष्टि में, रंगहीन सब रंग ।
सुख-दुख की अनुभूतियाँ, चलती उसके संग । ।
रंगों को मत दीजिए, दृष्टि भरम का दोष ।
अन्तस के हर रंग का, मन करता उद्घोष ।।
खुली पलक में झूठ के, दिखते अनगिन रंग ।
एक रंग रहता सदा, सच्चाई के संग ।।
सुशील सरना / 20-8-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 20, 2024 at 4:33pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . . विविध
जीवन के अनुकूल कब, होते हैं हालात ।
अनचाहे मिलते सदा, जीवन में आघात ।।
अपना जिसको मानते, वो देता आघात ।
पल- पल बदले केंचुली ,यह आदम की जात ।।
कहने को हमदर्द सब, पूछें अपना हाल ।
वक्त पड़े तो छोड़ते, हाथों को तत्काल ।।
इच्छा के अनुरूप कब, जीवन चलता चाल ।
सौम्य वेश में पूछता, उत्तर रोज सवाल ।।
मीलों चलते साथ में, दे हाथों में हाथ ।
अनबन थोड़ी क्या हुई, तोड़ा जीवन साथ ।।
सुशील…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 16, 2024 at 8:37pm — 4 Comments
दोहा पंचक. . . . . परिवार
साँझे चूल्हों के नहीं , दिखते अब परिवार ।
रिश्तों में अब स्वार्थ की, खड़ी हुई दीवार ।।
पृथक- पृथक चूल्हे हुए, पृथक हुए परिवार ।
आँगन से ओझल हुए, खुशियों के त्यौहार ।
टुकड़े -टुकड़े हो गए, अब साँझे परिवार ।
इंतजार में बुझ गए, चूल्हों के अंगार ।।
दीवारों में खो गए, परिवारों के प्यार ।
कहाँ गए वो कहकहे, कहाँ गए विस्तार ।।
सूना- सूना घर लगे, आँगन लगे उदास ।
मन को कुछ भाता नहीं, रहे न अपने पास …
Added by Sushil Sarna on August 9, 2024 at 9:59pm — 4 Comments
दोहा पंचक. . . . . ख्वाब(नुक्ते रहित सृजन )
कातिल उसकी हर अदा, कमसिन उसके ख्वाब ।
आतिश बन कर आ गया, भीगा हुआ शबाब ।।
रुक -रुक कर रुख पर गिरी, सावन की बरसात ।
छुप-छुप कर करती रही, नजर जिस्म से बात ।।
बार - बार गिरती रही, उड़ती हुई नकाब ।
प्यासी नजरों देखतीं, जैसे हसीन ख्वाब ।।
खड़ा रहा बरसात में , भीगा एक शबाब ।
रह - रह के होती रही, आशिक नज़र खराब ।।
भीगी बाला से हुआ, नजरों का संवाद ।
ख्वाबों से वो कर गई, इस दिल को आबाद…
Added by Sushil Sarna on August 4, 2024 at 3:46pm — No Comments
दोहा सप्तक. . . . . मोबाइल
मोबाइल ने कर दिया, सचमुच बेड़ा गर्क ।
निजता पर देने लगे, युवा अनेकों तर्क । ।
मोबाइल के जाल में, उलझ गया संसार ।
सच्चा रिश्ता अब यही , बाकी सब बेकार ।।
संवादों का बन गया, मोबाइल संसार ।
सांकेतिक रिश्ते हुए, बौना सच्चा प्यार ।।
प्यार जताने के सभी, बदल गए हालात ।
मोबाइल पर साजना , दर्शन दे साक्षात ।
मोबाइल पर कीजिए, चाहे घंटों बात ।
पत्नी की मत भूलना,पर लाना सौगात ।।
मोबाइल के भूत ने, रिश्ते किये…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 3, 2024 at 8:29pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . . तूफान
चार कदम पर जिंदगी, बैठी थी चुपचाप ।
बारिश के संहार पर,करती बहुत विलाप ।।
रौद्र रूप बरसात का, लील गया सुख - चैन ।
रोते- रोते दिन कटा, रोते -रोते रैन ।।
कच्चे पक्के झोंपड़े , बारिश गई समेट ।
जन - जीवन तूफान के, चढ़ा वेग की भेंट ।।
मंजर वो तूफान का, कैसे करूँ बयान ।
खौफ मौत का कर गया, आँखों को वीरान ।।
उड़ जाऐंगे होश जब, देखोगे तस्वीर ।
देख बाढ़ का दृश्य वो , गया कलेजा चीर ।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 2, 2024 at 9:19pm — 4 Comments
दोहा सप्तक . . . . सावन
सावन में अच्छी नहीं, आपस की तकरार ।
प्यार जताने के लिए, मौसम हैं दो चार ।।
बरसे मेघा झूम कर, खूब हुई बरसात ।
बाहुबंध में बीत गई, भीगी-भीगी रात ।।
गगरी छलकी नैन की, जब बरसी बरसात।
कैसे बीती क्या कहूँ, बिन साजन के रात।।
थोड़े से जागे हुए, थोड़े सोये नैन ।
हर करवट पर धड़कनें, रहती हैं बैचैन ।।
बिन साजन सूनी लगे, सावन वाली रात ।
सुधि सागर ऐसे बहे, जैसे बहे प्रपात ।।
जितनी बरसें…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 1, 2024 at 3:34pm — No Comments
दोहा सप्तक. . . . नेता
संसद में लो शोर का, शुरू हुआ नव सत्र ।
आरोपों की फैलती, बौछारें सर्वत्र ।।
अपशब्दों से गूँजता, अब संसद का सत्र ।
परिणामों से पूर्व ही, फाड़े जाते पत्र ।।
पावन मन्दिर देश का, संसद होता मित्र ।
नेता लड़ कर देश का, धूमिल करते चित्र ।।
कितने ही वादे करें, नेता चाहे आज ।
नग्न नयन के स्वप्न तो, टूटें बिन आवाज । ।
संसद में नेता करें, बात -बात पर तर्क ।
जनता की हर आस का, होता बेड़ा गर्क ।।
नेताओं के पास कब ,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 31, 2024 at 2:19pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . वक्त
हर करवट में वक्त की,छिपी हुई है सीख ।
आ जाए जो वक्त तो, राजा मांगे भीख ।।
डर के रहना वक्त से, ये शूलों का ताज ।
इसकी लाठी तो सदा, होती बे-आवाज ।।
पल भर की देता नहीं, वक्त किसी को भीख ।
अन्तिम पल की वक्त में , गुम हो जाती चीख ।।
बिना वक्त मिलता नहीं, किस्मत का भी साथ ।
कभी पहुँच कर लक्ष्य पर , लौटें खाली हाथ ।।
सुख - दुख सब संसार में, रहें वक्त आधीन ।
काल पाश में आदमी, लगता कितना दीन…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2024 at 1:30pm — 6 Comments
दोहा अष्टम ......प्रश्न
उत्तर सारे मौन हैं, प्रश्न सभी वाचाल ।
किसने जानी आज तक,भला काल की चाल ।।
यह जीवन तो शून्य का, आभासी है रूप ।
पग - पग पर संघर्ष की, फैली तीखी धूप ।।
तोड़ सको तो तोड़ दो, प्रश्नों का हर जाल ।
यह जीवन तो पूछता, हरदम नया सवाल ।।
हर मोड़ पर जिंदगी, पूछे एक सवाल ।
क्या पाने की होड़ में, जीवन दिया निकाल ।।
फिसला जाता रेत सा, जीवन जरा संभाल ।
क्या जानें किस मोड़ पर, मिले अचानक काल ।।
बहुतेरे…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 25, 2024 at 3:31pm — No Comments
दोहा पंचक. . . . . मेघ
हाथ जोड़ विनती करे, हलधर बारम्बार।
धरती की जलधर सुनो, अब तो करुण पुकार।।
अवनी से क्यों रुष्ट हो, जलधर बोलो आज ।
हलधर बैठा सोच में, कैसे उगे अनाज ।।
अम्बर के हर मेघ में, हलधर की है आस ।
बिन जलधर कैसे मिटे, तृषित धरा की प्यास ।।
सावन में अठखेलियाँ, नभ में करे पयोद ।
धरा तरसती वृष्टि को, मेघा करते मोद ।।
श्वेत हंस की टोलियाँ, नभ में उड़े स्वछंद ।
धूप - छाँव का हो रहा, ज्योँ आपस में द्वन्द्व…
Added by Sushil Sarna on July 22, 2024 at 12:50pm — 2 Comments
दोहा पंचक. . . . . गिरगिट
बात- बात पर आदमी ,बदले रंग हजार ।
गिरगिट सोचे क्या करूँ, अब इसका उपचार ।।
गिरगिट माँगे ईश से, रंगों का अधिकार ।
लूट लिए इंसान ने, उसके रंग अपार ।।
गिरगिट तो संसार में, व्यर्थ हुई बदनाम ।
रंग बदलना आजकल, इंसानों का काम ।।
गिरगिट बदले रंग जब , भय का हो आभास।
मानव बदले रंग जब, छलना हो विश्वास ।।
शायद अब यह हो गया, गिरगिट को आभास ।
नहीं सुरक्षित आजकल, इंसानों में वास ।।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 16, 2024 at 8:30pm — 3 Comments
दोहा सप्तक : इच्छा ,कामना, चाह आदि
मानव मन संसार में, इच्छाओं का दास ।
और -और की चाह में, निस-दिन बढ़ती प्यास ।1।
इच्छा हो जो बलवती, सध जाता हर काम ।
चर्चा उसके नाम की, गूँजे आठों याम ।2।
व्यवधानों की लक्ष्य में, जो करते परवाह ।
क्षीण लगे उद्देश्य में, उनके मन की चाह ।3।
अन्तर्मन की कामना, छूने की आकाश ।
सम्भव है यह भी अगर, होवें नहीं हताश ।4।
परिलक्षित संसार में, होता वो परिणाम ।
इच्छा के अनुरूप…
Added by Sushil Sarna on July 5, 2024 at 8:30pm — 8 Comments
दोहा एकादश. . . . जरा काल
दृग जल हाथों पर गिरा, टूटा हर अहसास ।
काया ढलते ही लगा, सब कुछ था आभास ।।1
जीवन पीछे रह गया, छूट गए मधुमास ।
जर्जर काया क्या हुई, टूट गई हर आस ।।2
लार गिरी परिधान पर, शोर हुआ घनघोर ।
काया पर चलता नहीं, जरा काल में जोर ।।3
लघु शंका बस में नहीं, थर- थर काँपे हाथ ।
जरा काल में खून ही , छोड़ चला फिर साथ ।।4
अपने स्वर्णिम काल को ,मुड़-मुड़ देखें नैन ।
जीवन फिसला रेत सा, काटे कटे न रैन ।।5
सूखा रहता…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 3, 2024 at 2:00pm — No Comments
दोहे आज के .....
बिगड़े हुए समाज का, बोलो दोषी कौन ।
संस्कारों के ह्रास पर, आखिर हम क्यों मौन ।।
संस्कारों को आजकल, भला पूछता कौन ।
नंगेपन के प्रश्न पर, आखिर हम क्यों मौन ।।
नर -नारी के मध्य अब, नहीं शरम की रेख ।
खुलेआम अभिसार का, देख तमाशा देख ।।
सरेआम अब हो रहा, काम दृष्टि का खेल ।
युवा वर्ग में आम अब, हुआ अधर का मेल ।।
सभी तमाशा देखते, कौन करे प्रतिरोध ।
कल के बिगड़े रंग का, नहीं किसी को बोध ।।
कर में कर को थाम कर, चले…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 27, 2024 at 9:27pm — No Comments
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