221 2121 1221 212
लिखता हूँ हर्फ़-हर्फ़ मैं जो तेरे नाम से
जज़्बात, दर्द, अश्क़ के हर एहतमाम से
क्या हो गया जो कोई उन्हें जानता नहीं
मक़बूलियत अदीब की है उनके काम से
मिल ही गया मुकाम उसे आखिरश कहीं
बेजा भटक रहा था मुसाफिर जो शाम से
शाइस्तगी न बज़्म में थी कोई मस्लहत
टकरा रहे थे लोग जहाँ जाम, जाम से
गुरबत बिकी थी लाख टके में मगर “शकूर”
गुरबत फ़रोश जी न सका एहतराम…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 30, 2014 at 9:57am — 9 Comments
मजदूरों की बस्ती में दो कँपकँपाती हुई आवाज़ें
“सुना है घर वापसी के 5 लाख दे रहे हैं”
“हाँ भाई मैं भी सुना”
“हम तो घर में ही रहते हैं, कुछ हमें भी दे देते”
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:56pm — 24 Comments
2122 1212 22/112
तू मुहब्बत न आजमा मेरी
है तेरे वास्ते वफ़ा मेरी
यूँ कहे पर न जा ज़माने के
गाह चौखट तलक तो आ मेरी
अश्क़ चाहें निकलना आँखों से
रोकती है उन्हें अना मेरी
कौन रखता हिसाब ज़ख़्मों का
खुद मैं कातिब हयात का मेरी
रेत में दफ़्न हो गया कतरा
जो ज़बीं से अभी गिरा मेरी
ज़ख़्म देते हैं वो मुझे पहले
फिर वही करते हैं दवा मेरी
हर सफर में उदास राहों…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 9:00am — 20 Comments
“अब्बास ये आतंकवादी दीन और ईमान की बात करते हैं, आतंकवादियों का कोई दीन कोई मजहब होता है क्या? बंदूक के ज़ोर पर आतंक फैलाकर कौन सा दीन कायम करना चाहते हैं ?“
अब्बास टी वी की तरफ इशारा करते हुये- “ये बंदूकवाले आतंकवादी खुद मारते और मरते हैं पर कुछ आतंकवादी सिर्फ ज़ुबान चला कर आतंक फैलाते हैं, खुद नहीं मरते मारते ये काम दूसरों से करवाते हैं, दीनो ईमान इनका भी नहीं होता।”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2014 at 9:00am — 20 Comments
2122 2122
ये भी जीने की अदा है
ग़म खुशी में मुब्तला है
रात भी है चाँद भी और
चाँदनी की ये रिदा है
नेस्त हो जाएगा इक दिन
रेत पर जो घर बना है
हादसों के दरमियाँ इक
ज़िन्दगी का सिलसिला है
मखमली सा लम्स तेरा
सर्द जैसे ये सबा है
तुझमें है यूँ अक्स मेरा
तू कि जैसे आइना है
मैं नहीं तन्हा सफ़र में
साथ अपनो की दुआ है
छोर पर नाकामियों…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 11, 2014 at 10:15pm — 23 Comments
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