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KALPANA BHATT ('रौनक़')'s Blog – November 2016 Archive (8)

चमक धमक (कविता)

चमक धमक

चमक धमक को समझ बैठे
तरक्की की सीढियाँ
चलते रहे चका चौंध के पीछे
इंसानियत को भी गवां बैठे ।


तेज़ रौशनी में छुपे अँधेरे को
समझ न सके पैर डगमगा गए
लोटने का रास्ता भी न मिला
खुद ही खुद को गवां बैठे ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 26, 2016 at 8:40pm — 2 Comments

बचपन (कविता)

बचपन



आज के जीवन शैली में

बचपन कहीं नहीं हैं

अल्हड़पन नहीं है

मासूमियत कहीं खो गयी है ।

मोबाइलों ने छीन ली है

खुले मैदानों की चिल्लाहट

टीवी कॉम्प्यूटर चल पड़े हैं

गुल्ली डंडे की जगह पर

खेल हुए है क़ैद स्कूलों में

उनके लिए ही ट्रॉफी जितने

कॉलेज में राजनीती की निति

बच्चों के मन के गलियारों में ।

बचपन बैठा है पिंजरों में

अपने ख्वाबों की उड़ान भरने को ।

खुले आकाश से बातें करता

अपने वजूद को तलाशता ।

बचपन शायद फिर…

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 22, 2016 at 11:21am — 9 Comments

सफ़र (कविता)

सफ़र

सोचा जब भी
सफ़र कर लूँ
शुद्ध हवा खा लूँ
पहाड़ो के बीच
किसी झरने के करीब
एक डेरा डाल लूँ
ख्वाबों में बादल
आने लगे ।
उमड़ते घुमड़ते एहसास
छू रहे थे बादल
पहाड़ों के शिखर को
हलके से झांक रहा था रवि
नर्म मुलायम मखमली चादर
डेरे के पास शर्मा रही थी
जो रवि को देख पुल्लकित
हो खिल गयी
और मैं इस सफ़र
का आनंद ले रही थी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 15, 2016 at 5:50pm — 4 Comments

माला

माला

छल, कपट ,धोखे के मोतियों
की माला ही पहना दो ।
इसे पहनकर एहसास ही
कर लूँगी ।
अपने दिल के करीब भी
रख लूँगी ।
सज जाऊँगी पूर्णतः ।
दर्द शायद कम हो जाये तुम्हारा
जीत का जश्न
फिर तुम मना लेना ।
आऊँगी संग तुम्हारे
उसी माला को पहन
रहूँगी साथ तब भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 9:52am — 2 Comments

सर्द हवा (कविता)

सर्द हवा

इन सर्द हवाओं में
घुली हुई हैं यादें
वो वादियाँ पहाड़ों की
बर्फीली चादर ओढ़े
चले थे कभी
कदम दो कदम
साथ हुई थीं
बर्फीली नदी के धार
ठंडे पानी में
नहाने की ज़िद्द
छोटे छोटे कंकड़ पत्थर
रंग बी रंगी किनारे पर
चमकते थे
श्वेत पानी के बीच ।
उस पर से प्यार का एहसास
तुम्हारे करीब होने का आभास
याद आते है
सर्द हवा के झोंके
आज भी ।
लगता है करीब हो
तुम आज भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 12, 2016 at 3:00pm — 6 Comments

ज़िन्दगी (कविता)

ज़िन्दगी

सोचा थोडा खेल लें
ज़िन्दगी मिली है
सो थोडा खेल लें
समय चलेगा अपनी चाल
समय के मोहरे बन
थोडा खेल लें ।
कभी पहाड़ों पर
चढ़ जाएँ
कभी बादलों पर घूम आयें
कभी मिटटी के बुत बन जाएँ
कभी माली बन
बगवान सवाँर ले।
कभी महके गुलाब की तरह
कभी काँटा बन चुभ जाएँ ।
ज़िन्दगी है
तो खेल है
खेलते रहे खिलाड़ी बन
ज़िन्दगी शायद ज़ी जाएँ ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 11, 2016 at 9:30pm — 2 Comments

कितना सरल होता है कुछ कहना

कितना सरल होता है कुछ कहना



कहना है कुछ ?

हाँ , तो कह दो न

कहना ही तो है ।



जुबाँ से ही तो कहना होता है न

बिना सोचे समझें भी कह सकते है

पूछे कोई तो कहना

जुबाँ फ़िसल गयी भाई ।



कहना किसीसे कभी कभी

चुभ जाता है

कभी किसीसे कुछ कहने पर

वो खुश हो जाता है ।



कहा -सुनी हो जाये

तो बढ़ जातीं हैं दूरियाँ कभी ।

कभी सुनने के लिए

कान तरस जाते हैं ।



कहो जो कहना चाहते हो

पर सुनो भी तो

तो दूजा कहना… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 7, 2016 at 5:00pm — 3 Comments

अजनबी गलियाँ

अजनबी गलियाँ

चलते चलते
महसूस हुआ
गलियाँ बेगानी लगीं
देखते रहे
इधर उधर
नज़रे बैमानी लगीं
थे बहुत अपने यहाँ
पर सभी बेगाने लगे
खोजा बहुत उन सबको
शायद कोई अपना लगे ।
तंग गलियों में
चिपके हुए घरों के बीच
बस देखती रही यूँही ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 5, 2016 at 6:30pm — 6 Comments

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