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बे-ख़्वाब आँखों में दबे लम्हात से अलग
गुज़री है ज़िन्दगानी अलामात से अलग
दस्तार रह गई है रवाजों के दरमियाँ
पर इश्क़ खो गया है रिवायात से अलग
जीने की चाह में हुआ बंजारा आदमी
बस घूमता दिखे है मक़ामात से अलग
किस रिश्ते की दुहाई दूँ अहल ए जहाँ को मैं
है क्या यहाँ पे कहिये फ़सादात से अलग
वो वक़्त और ही था कि मौसम बदलते थे
मौसम रहा न अब कोई बरसात से अलग
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on November 12, 2018 at 1:26pm — 13 Comments
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