फ़रिश्ता हूँ न कोई देवता हूँ
खिलौना हूँ मैं मिट्टी से बना हूँ
दग़ा खाने में तू रहता है आगे
दिले-नादान मैं तुझसे ख़फ़ा हूँ
सिला मुझको भलाई का भला दे
ज़ियादा कुछ नहीं मैं माँगता हूँ
मैं जबसे लौटा हूँ दैरो-हरम से
पता सबसे ख़ुदा का पूछता हूँ
मेरा चेहरा किताबे-ज़िन्दगी है
ज़ुबां से मैं कहाँ कुछ बोलता हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Sushil Thakur on May 28, 2014 at 8:00pm — 8 Comments
दोस्तों चुनाव के दौरान की ग़ज़ल है, विलम्ब से पोस्ट कर रहा हूँ
ज़हनो-दिल ख़ामोश है औ’ हर नज़र दीवार पर
क्या इलेक्शन चीज़ है उतरा नगर दीवार पर
या कोई हो आला लीडर या गली का शेर खां
हर किसी दिख रही अपनी लहर दीवार पर
इस इलेक्शन में खड़ा है ऐसा भी उम्मीदवार
जिसने लटकाया कई सर काटकर दीवार पर
भोंकने लगता है 'शेरू' क्या पता किस बात पर
देखते ही मोहतरम का पोस्टर दीवार पर
बस चुनावी रंग में रंगे हैं ये…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 24, 2014 at 10:00pm — 6 Comments
गालों पर बोसा दे देकर मुझको रोज़ जगाती है
छप्पर के टूटे कोने से याद की रौशनी आती है
दालानों पर आकर, मेरे दिन निकले तक सोने पर
कोयल, मैना, मुर्ग़ी, बिल्ली मिलकर शोर मचाती है
सबका अपना काम बंटा है आँगन से दालानों तक
गेंहूँ पर बैठी चिड़ियों को दादी मार बगाती है
यूं तो है नादान अभी, पर है पहचान महब्बत की
जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है
लाख छिड़कता हूँ दाने और उनपर जाल बिछाता हूँ
लेकिन घर कोई…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 21, 2014 at 6:00pm — 9 Comments
ज़रूरी क्या कि ये राहे-सफ़र हमवार हो जाये
न हों दुश्वारियाँ तो ज़िन्दगी बेकार हो जाये
आना का सर कुचलने में कभी तू देर मत करना
कहीं ऐसा न हो, दुश्मन ये भी होशियार हो जाये
फरेबो-मक्र, ख़ुदग़रज़ी न ज़ाहिर हो किसी रुख़ से
वगरना आदमी भी शहर का अख़बार हो जाये
कभी भी एक पल मैं ख़्वाब को सोने नहीं देता
न जाने किस घड़ी महबूब का दीदार हो जाये
मैं दावा-ए-महब्बत को भी अपने तर्क कर दूँगा
जो ख़्वाबों में नहीं आने को वो…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 19, 2014 at 7:00pm — 9 Comments
किसी की अधखिली अल्हड़ जवानी याद आती है
मुझे उस दौर की इक-इक कहानी याद आती है
जिसे मैं टुकड़ा-टुकड़ा करके दरिया में बहा आया
लहू से लिक्खी वो चिठ्ठी पुरानी याद आती है
मैं जिससे हार जाता था लगाकर रोज़ ही बाज़ी
वही कमअक्ल, पगली, इक दीवानी याद आती है
जो गुल बूटे बने रूमाल पे उस दस्ते नाज़ुक से
कशीदाकारी की वो इक निशानी याद आती है
जो गेसू से फ़िसलकर मेरे पहलू में चली आई
वो ख़ुशबू से मोअत्तर रातरानी याद…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 19, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
किसी मासूम की बेचारगी आवाज़ देती है
मुझे मजबूर होटों की हँसी आवाज़ देती है
कोई हंगामा कर डाले न मेरी लफ्ज़े-ख़ामोशी
मेरी बहनों की मुझको बेबसी आवाज़ देती है
तुम्हारे वास्ते वो रेत का ज़रिया सही, लेकिन
कभी जाकर सुनो, कैसी नदी आवाज़ देती है
मेरे हमराह चलकर ग़म के सहरा में तू क्यों तड़पे
तुझे ऐ ज़िन्दगी, तेरी ख़ुशी आवाज़ देती है
मैंने क़िस्मत बना डाली है अपनी बदनसीबी को
मगर, तुमको तुम्हारी ज़िन्दगी आवाज़ देती…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 18, 2014 at 11:00am — 16 Comments
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