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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog – January 2013 Archive (1)

ग़ज़ल : नाव ही नाख़ुदा हो गई

राहबर जब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई

प्रेम का रोग मुझको लगा
और दारू दवा हो गई

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई

लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई

जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई

माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2013 at 4:30pm — 20 Comments

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