आओ मिल के वृक्ष लगाये
घर से निकले धरा बचाये ।
बंजर धरती फिर हरियाये ।
आओ मिल के वृक्ष लगाये॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
वन उपवन धरती का गहना ।
अनुपम अदभुत इसने पहना ।
आओ मिल के धरा सजाये ॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
जंगल हमको भोजन देते।
हम से ये कुछ भी न लेते ।
आओ मिल के इन्हें खिलाये ॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
वृक्ष है अपने जीवन दाता ।
सांसो से है इनका नाता ।
आओ मिल के इन्हे बचाये ॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
शाम भये पन्क्षी का रेला ।
आ के इन पर डाले डॆरा ।
आओ मिलके उन्हे बसाये॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
जंगल अमृत जल बरसाते ।
भूमि को जलने से बचाते
आओ मिल के जल बरसाये॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
एक काटे तो दो लगाये ।
हमने सीखा सबको बताये ।
आओ मिलके ये समझाये॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
मातपिता ये तुल्य हमारे
ये पूज्यनीय सदा हमारे ।
आओ मिलके शीश नवाये ॥ आओ मिल के वृक्ष लगाये॥
"मौलिक व अप्रकाशित"
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bahut sundar baal kavita badhai aapko
Aapka sandesh achcha ha, vichar achche hain prayas mein shram apechit ha.
भाई वसंतनेमाजी, आपकी भावना और आपका उद्येश्य सकारात्मक हैं. रचनाकर्म को और पगाने की आवश्यकता है. व्याकरण के अनुसार बहुवचन की संज्ञा के लिए क्रिया का रूप भी बहुवचन का ही होगा. इसके प्रत् संवेदनशील होने की आवश्यकता है. आपकी रचना आगे जा कर पंक्तियों में कविताई के लिहाज से असहज होती चली जाती है. ऐसा भान होता है मानो रचनाकार लिखते-लिखते थक गया हो.
एक बात अवश्य खुल कर साझा करना चाहूँगा कि असमर्थ या असक्षम रचनाकर्म बालरचनाओं की ज़मीन उपलब्ध नहीं कराता. ऐसा एकदम नहीं सोचना चाहिये. बालरचनाओं की अपनी अलग सत्ता होती है.
कुल मिलाकर इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक धन्यवाद.
शुभेच्छाएँ
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