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ई-पत्रिका ओबीओ के दो वर्ष पूर्ण होने पर गोष्ठी-सह-कवि सम्मेलन

हर किसी संस्थान का अपना उद्येश्य हुआ करता है. आज मात्र दो वर्षों में साहित्यिक ई-पत्रिका ओपन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) एक संस्थान बन चुकी है. साहित्यांगन में नामधन्य मठों की कभी नहीं रही. लेकिन लगनशील नवोदितों के साथ ऐसा अपनापन या उदारता शायद ही किसी मंच ने इस तरीके बरता होगा.  सतत प्रयासरत संभावितों के प्रति सम्मान का भाव जिस तरह से ओबीओ के पटल पर निभाया जाता है उस तरह से बहुत कम मंच निभा पाते हैं.  या तो दोयम दर्ज़े की रचनाओं पर बेतुकी ’वाह-वाही’ को ही साहित्य का उपादान समझ लिया जाता है, या फिर, नवोदितों को उचित स्थान ही नहीं मिलता. 

 

रचना-कर्म और रचनाधर्मिता को ध्यान में रख कर नवोदितों के प्रयास को संयमित अनुमोदन जिस तरह से ओबीओ पर मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

वह भी किसी विधा-विशेष में नहीं, बल्कि  साहित्य की सभी विधाओं पर समवेत प्रयास और अभ्यास करते रचनाकर्मी अग्रजों और स्थापितों के साथ सहचर बने जहाँ मिलें उसे अवश्य ही ओबीओ का मंच कहते हैं.

 

इस ऑनलाइन साहित्यिक मंच ओपेन बुक्स ऑनलाइन के स्थापना दिवस के दो वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में मंच के तत्त्वाधान मे दिनांक १ अप्रैल २०१२, दिन रविवार को इलाहाबाद के महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में साहित्यिक गोष्ठी सह कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया. आयोजन का शुभारम्भ शुभ्रांशु पाण्डेय द्वारा माँ शारदे की वन्दना तथा सभा के अध्यक्ष एहतराम इस्लाम, मुख्य अतिथि श्रीमती लक्ष्मी अवस्थी व डा. ज़मीर अहसन व ओबीओ की प्रबन्धन समिति के सदस्य सौरभ पाण्डेय द्वारा सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप-प्रज्ज्वलन के साथ हुआ.  श्रीमती लक्ष्मी अवस्थी ने इस अवसर पर उपस्थित सभी सद्स्यों और श्रोताओं को बधाई दी.

 

प्रबन्धन समिति के सदस्य सौरभ पाण्डेय ने ओबीओ की विशेषता तथा निरंतर विकास के बारे में बताते हुए कहा कि यह एक अभिनव मंच है. यहाँ ’सीखने-सिखाने’ का ऐसा अद्भुत माहौल है जहाँ प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ नव-हस्ताक्षर अपनी प्रतिभा को सँवारते हैं. रचनाकार क्या, क्यों और कैसे की कसौटी पर अपनी रचना नहीं कसते तबतक साहित्य छोड़िये उनका खुद का भला नहीं होने वाला.  हर व्यक्ति भावुक होता है किन्तु मात्र भावुकता रचना-कर्म का कारण नहीं होनी चाहिये बल्कि उससे आगे यह साहित्यधर्म होना चाहिये. प्रबन्धन समिति की ओर से दो सम्मानों की घोषणा करते हुए श्री सौरभ ने कहा कि वर्तमान पुरस्कारों के अलावे ग़ज़ल विधा और छंद विधा में रचनाकारों को उनके एक वर्ष में किये गये योगदान के लिये क्रमशः दुष्यंत सम्मान तथा छंद शिरोमणि सम्मान दिया जायेगा जिसके तहत चयनित रचनाकार को  क्रमशः रू. ५१०० तथा प्रशस्ति पत्र दिया जायेगा.

 

इस अवसर पर ई-पत्रिका ओबीओ के प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकरजी के संदेश को शुभ्रांशु पाण्डेय ने पढ़ कर सुनाया. श्री प्रभाकर के अनुसार यह देश का इकलौता मंच है जहाँ किसी रचनाकार विशेषकर नवोदितों को उपेक्षा की अपेक्षा नहीं होती. सभी साहित्य की अनेकानेक विधाओं पर चाहे गद्य हो या पद्य खुल कर बहस करते हैं तथा साहित्य सेवा करते हैं. प्रधान सम्पादक ने अपने संदेश में ओबीओ के उद्येश्य को कुछ इसतरह से व्यक्त किया -  ई-पत्रिका के माध्यम से अंतर्जाल पर रचनाकर्मियों और पाठकों को ऐसा मंच उपलब्ध कराना जहाँ वरिष्ठों की पंगत में नव-हस्ताक्षर परस्पर ’सीखने-सिखाने’ की भारतीय परंपरा का निर्वहन करते हुए साहित्य-सेवा कर सकें. 

संदेश में उन्होंने आगे ओबीओ के इतिहास तथा इसकी साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि १ अप्रैल २०१० को ओबीओ के संस्थापक श्री गणेश जी बाग़ी द्वारा अपने दो मित्रों श्री प्रीतम तथा रवि कुमार गिरि के साथ लगाया गया यह बिरवा आज भरा-पूरा पेड़ बनने की प्रक्रिया में है. इसके १४०० से अधिक सदस्य हैं.

 

गोष्ठी के अध्यक्ष एहतराम इस्लाम ने गोष्ठी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ’आज की ग़ज़ल’ की बारिकियों पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि ओबीओ के मंच से घोषित ग़ज़ल के क्षेत्र में ओबीओ मंच पर योगदान हेतु दुष्यंत सम्मान से ’दुष्यंत कुमार’ का नाम जोड़ कर ओबीओ ने ’आज की ग़ज़ल’ को परिभाषित होने का मौका दिया है.  लिखने के लिये हर रचनाकार लिखता है लेकिन जिस रचनाकार ने कार्मिक उद्येश्य के तहत रचनाधर्मिता को स्वीकार किया है और विधाओं के सापेक्ष और समानान्तर समाज को कुछ यथोचित लौटाने की बात की है वही रचनाकार सफल रचनाकार हो जाता है.

 

गोष्ठी के उपरांत आयोजित कवि-सम्मेलन में इलाहाबाद तथा ओबीओ पत्रिका के सदस्य कवियों ने शिरकत की. कवि-सम्मेलन का संचालन इम्तियाज़ गाज़ी ने किया. 

इलाहाबाद के साहित्याकाश में अपने विशेष लहजे की ग़ज़लों से खूब नाम कर रहे ग़ज़लकासुनील दानिश ने अपनी ग़ज़ल सुनायी -
उन्हों ने
क़रार छीन के मेरा वो बेक़रार रहा
तमाम उम्र मुहब्बत का कर्ज़दार रहा
सुना कर खूब वाहवाहियाँ बटोरीं.

 

अश्विनी कुमार आज के युवावर्ग का प्रतिनिधित्त्व करते हैं. उनकी रचना की बानगी प्रस्तुत है -
                     प्रश्न यह
                     तुम मत करो मैं कौन हूँ
                     आदमी का रूप धर
                     क्यों मौन हूँ.

 

गंभीर और मायनेदार ग़ज़लों के लिये जाने जाते अमिताभ त्रिपाठी जी ने एक नवगीत और एक ग़ज़ल से श्रोताओं का ध्यान खींचा. आपके बिम्बों में नयापन तो है ही, कालजयी मिसरों का अभिनव प्रवाह देखने में आता है.
बहुत सहज हो जाने के भी अपने ख़तरे हैं
लोग समझने लगते हैं हम गूँगे-बहरे हैं.
कहना न होगा इस शे’र पर देर तक तालियाँ बजती रहीं.
 
पुरानी पीढ़ी के गीतकार और मात्रिक कविताओं के सशक्त हस्ताक्षर दयाशंकर पाण्डेय जी ने अपनी कविताओं और गीत से सभी को झूमने के लिये विवश कर दिया. पौराणिक कथाओं से बिम्ब लेकर आधुनिक ज़िन्दग़ी को गुनगुनाना न केवल उत्कृष्ट अध्ययन की मांग करता है बल्कि अध्ययन में संवेदनशीलता की चाहना रखता है.
जीवन के लिये श्वाँसों का इतिहास रहे पढ़ते
अनुभव की किताबों का अनुवाद रहे पढ़ते

 

वीनस केसरी का नाम आज इलाहाबाद शहर ही नहीं शहर से इतर और अंतरजाल पर ग़ज़ल विधा में एक प्रतिनिधि नाम बन कर उभर रहा है. बिम्ब और बह्र का मणिकाञ्चन संयोग हैं इनके प्रयास -
              इतनी शिकायत बाप रे
              जीने की आफ़त बाप रे
              हम भी मरें तुम भी मरो
              ऐसी मुहब्बत बाप रे .. .

  

इम्तियाज़ गाज़ी ने अपनी विशिष्ट शैली में आह्वान करते दिखे -

           खुद को खुद ही निकाल कर देखो
           गम का दरिया खंगाल कर देखो
           दोस्ती दुश्मनी से भारी है
           मन से काँटा निकाल कर देखो

 
शहर के मंचों पर आजकल छाये हुए और पत्रिकाओं तथा अंतर्जाल पर समान रूप से प्रसिद्ध जयकृष्ण राय तुषार ने अपने सद्यःप्रसूत नवगीत से सभी को मुग्ध कर दिया. अपनी विशिष्ट शैली के कारण सुचर्चित तुषार जी को उपस्थित जन ने कुछ यों कहते सुना -

पौरुष है लड़ने का पर 
हथियार नहीं है ,
सिर पर पगड़ीवाला अब सरदार नहीं है ,
मुल्क हमारा रब ही सिर्फ़ चलाता है ..
राजा करता वही 
उसे जो भाता है.

 

इस ख़ाकसार (सौरभ) ने अपने नवगीतों के तरन्नुम से गोष्ठी को मौजूं बनाने की कोशिश की. जिस पर श्रोताओं से मिली तालियाँ अनुमोदन का परावर्तन महसूस हुईं.

       सींच गया कोई
       एक बूँद नेह से
       फगुनाये मन-मन, चैताये देह से. ..

       बचे खुचे टेसू हाव-भाव गिन-गिन
       बने धार देह की  --धूल-धूल किन-किन --
       टीस पर उग आये लगे अवलेह से .. 

 

आजकी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि व्यंग्य और हास्य मसखरी का पर्याय बनते जा रहे हैं. जबकि इनकी तासीर कई-कई अनकहों के अन्योक्तियों व व्यंग्योक्तियों में सटीक रूप से व्यक्त हो जाने का कारण बन जाती हैं. शरद जोशी और केपी सक्सेना की परिपाटी को आगे लेजाने को प्रयासरत तथा हास्य-व्यंग्य के गद्य-पाठ की दिशा में प्रमुख रूप से उभर रहे कृष्णमोहन मिश्र ने श्रोताओं को अपनी चुटीली पंक्तियों से खूब मनोरंजन किया.

 

बुज़ुर्ग़वार डा. ज़मीर अहसन का नाम आज साहित्य-क्षेत्र में अदब और इज़्ज़त के साथ लिया जाता है. आपने सालोंसाल बाद तरन्नुम में ग़ज़ल कह कर गोष्ठी को इज़्ज़त बख़्शी.  लेकिन प्रभावकारी रहे उनके दोहे, जिन्हें सुन कर एकबारग़ी श्रद्धा से सिर झुक जाता है. एक बानग़ी -

काटूँगा उस डाल को, जिसपर मेरा वास
कहलाऊँगा एक दिन, मैं भी कालिदास .. .
 

 

गोष्ठी के अध्यक्ष एहतरम इस्लाम की गुरुता से सभी मुग्ध थे. आपने इशारों-इशारों में बहुत कुछ कहा. कहना न होगा, ग़ज़ल उनके साथ अपने शबाब पर होती है -

 
झूठ को सच की बुलंदी पर बिठाता किस तरह
काठ की हांडी को  मैं चुल्हे चढ़ाता किस तरह ..
 

 

इसके अलावे भी कई कवियों ने अपनी बखूब उपस्थिति दर्ज़ करायी, जिसमें अजीत ’आकाश’जी, नित्यानन्द राय, केके मिश्रा, शक्तीश सिंह के नाम विशेष रूप से उभर कर आये.

 

 

 

सभी उपस्थित सदस्यों तथा श्रोताओं का आभार ज्ञापन वीनस केसरी जी ने किया.

 

 

**************

--सौरभ

**************

 

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शुक्रिया योगराज जी

आदरनीय सौरभ जी सादर परणाम
आपने  ओ बी ओ की वर्षगांठ  पर चित्रों  सहित  विस्तारपूर्वक  रिपोर्ट तैयार कर सभी सदस्यों को अवगत कराया इसके लिए आपको बधाई | रिपोटिंग में भी आपकी  अच्छी पकड़ है | पढ़कर बहुत अच्छा लगा |

भाई गणेश लोहानी जी, मुझे तो इंतज़ार है उस घड़ी का कि हम सभी साहित्यप्रेमी पुनः नई दिल्ली के सेण्ट्रल पार्क (राजीव चौक) की नरम-नरम घास पर किसी रोज़ बैठें और आत्मीयता और रचना-पाठ का वही माहौल तारी हो जाय जो पिछले नवम्बर माह में हुआ था. देखिये हम सभी प्रेमी कब मिलते हैं.

रिपोर्ट पर टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद.

WHAT A GREAT LIVE COMMENTRY. AADARNIYA SAURABH SIR JI,

लगता  है  मैं  भी  हूँ  कहीं  आसपास  भीड़   मैं   आस  लिए 

मुट्ठी  भर  पा  जाऊं   ज्ञान  का   सम्पूर्ण विश्वास  लिए   

दी  जानकारी  जो  आपने  मन  बैरागी से  हो  गया  अनुरागी 

प्रीतम  रवि  का  रोपा  ये  पौधा  स्थापना  हेतु  बधाई हो  बागी 

BADHAI.

आदरणीय प्रदीपजी, सादर नमस्कार.

आपकी इस पटल पर सार्थक उपस्थिति बनी रहे, देखिये क्या से क्या हो जाता है. आपकी उपरोक्त पंक्तियाँ बानगी हैं. 

आपकी जिज्ञासा आशान्वित करती है. सच मानिये, वह दिन दूर नहीं जब आपकी पंक्तियाँ गेय छंदों का वाहक होंगीं. आप एकसुर और सतत प्रयास करते रहें.  अग्रसरण हेतु उचित दिशा का इशारा हम सभी एक दूसरे को देते रहते हैं और परस्पर लभान्वित भी होते रहते हैं.

सादर

Thanks a lot Dr. Prachi. The inner force, required to realize the commitment, gets accelerated due to those like you who are not only well-wishers but are inseparable part of our furtherance.

Thanks again for giving me hands for the report and presentation.

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, किसी ने सच ही कहा है कि जहाँ चाह वहां राह, सिर्फ ५ दिन पहले ही इस कार्यक्रम को निरुपित किया गया और एक बहुत ही सफल कार्यक्रम आप लोगो ने संपादित कर लिया, आपके द्वारा प्रस्तुत विस्तृत प्रतिवेदन और समाचार पत्रों में छपे समाचार इस बात को पुष्ट करते है, मैं आप और वीनस सहित ओ बी ओ कार्यक्रम में शिरकत करने वाले सभी साहित्यकार और साहित्य प्रेमियों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ |

जय ओ बी ओ !

हार्दिक धन्यवाद, भाई गणेश बाग़ी जी.. . कभी हाँ कभी ना ..इन संदर्भों में इसे आपसे बेहतर कौन समझ सकता है ? लेकिन एक बार हाँ हुआ तो भाई वीनस भी पिल पड़े. इस क्रम में जिन-जिन सदस्यों और शुभेच्छुओं ने सहयोग दिया है उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ.

लेकिन एक बार हाँ हुआ तो भाई वीनस भी पिल पड़े.

हा हा हा

हा हा हा....   लेकिन सही कहिये,  यदि इस तरह का जोश नहीं होता तो क्या सम्मिलन संभव था ?!!

शुक्रिया गणेश जी

आमीन !!!!!!

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