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ओबीओ लाइव महोत्सव अंक-51 की समस्त रचनाओं का संकलन

आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -17 जनवरी’ 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ लाइव महा-उत्सव अंक 51" की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “अच्छे दिन” था.

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

 

विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा 

सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

******************************************************************************

क्रम संख्या

 

रचनाकार का नाम

प्रस्तुत रचना

 

 

 

1

आ० मिथिलेश वामनकर जी

प्रथम प्रस्तुति :

चमन में फिर जगा बैठे गज़ब आभास अच्छे दिन

बहुत है दूर वो लेकिन,  बताएं पास अच्छे  दिन।

 

किसी जुगनू से ज्यादा है नहीं उजियास अच्छे दिन

गजोधर मान बैठा क्यूँ ,  नया 'परकास' अच्छे दिन।

 

लगे फिर से बंधाने को नई जो आस अच्छे दिन

असल में कर रहे जैसे कोई उपहास अच्छे दिन।

 

गरीबी में दिखाते जो किसी को भूख के जलवे  

अमीरी में वही लगते, हमे उपवास अच्छे दिन।

 

सदाकत का जनाज़ा रोज़ उठते देख ले,  उनके

तसव्वुर में कभी आते नहीं सायास अच्छे दिन।

 

गज़ब ‘मिथिलेश’ तुम भी इस कदर नाराज़ होते हो

न मानो यूं बुरा,  कर ले अगर परिहास अच्छे दिन।

 

द्वितीय प्रस्तुति :

अँधेरे के क्षितिज से पार,

घने कुहरे के साए में,

धरा मरुथल जहाँ की है,

नहीं है नीर के अवशेष,

पवन पाता नहीं जीवन,

न वैसी उष्णता, लेकिन

उसी निर्जन जगह पर उग रहे है आज अच्छे दिन...

यही बतला रहे है वो,

गज़ब जतला रहे है वो,

भरोसे के सिवा कोई,

यहाँ चारा नहीं दिखता,

किसी खग की उड़ानों में,

छुपे कहते है वो, लेकिन

वहां कंकर धरा पर चुग रहे है आज अच्छे दिन....

 

 

 

2

आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति :

[1] बच्चे

बस्ते से कमर कमान हुई। वो सहज हँसी मुस्कान गई॥

खेल - कूद से बचते फिरते। कम्प्यूटर से चिपके रहते॥

बचपन में खो गया बचपना। हर बच्चा हो गया अनमना॥

चिंता मुक्त जब हो जायेंगे। अच्छे दिन तब ही आयेंगे॥ 

[2] युवा

युवा वर्ग के दिन अच्छे पर, गलत मार्ग अपनाये।

मात- पिता की बात न मानें, सत्य कभी न बताये॥

स्वच्छंद हैं लड़के लड़कियाँ, साथ रहते बिन ब्याह।

रखैल सी जब हुई ज़िन्दगी, हृदय से निकली आह॥

[3] बुजुर्ग

अच्छे दिन की आस में, किया पुत्र का ब्याह।

दोनों खुद में खो गए, कौन करे परवाह॥

बेटा गया विदेश तो, टूटी अंतिम आस।

साथ बहू को ले गया, रोती विधवा सास॥

[4] किसान  

जिसे अच्छे दिन की आस में, समर्थन दिये जिताये।

भूमि हड़पने वो कृषकों की, अध्यादेश ले आये॥

नेक नहीं शासन की नीयत, कौन इन्हें समझाये।

अंग्रेजों के डैडी निकले, सिर पर जिन्हें बिठाये॥

[5] अन्य सभी

केन्द्र राज्य में सत्ता पलटी, मन सब के हर्षाये।

गौ गंगा सज्जन संतों के, अच्छे दिन तो आये॥

किंतु मांस निर्यात बढ़ गया, बुरी खबर ये आई।

गायें अब ज़्यादा कटती हैं, बात बड़ी दुखदाई॥

 

द्वितीय प्रस्तुति:

अच्छे दिन की आस में, सभी विरोधी साथ। 

जीवन भर गाली दिये, मिला लिए अब हाथ॥

जाने कब सत्ता मिले, अच्छे दिन कब आय।

साथ छोड़ सब जा रहे, जनता हँसी उड़ाय॥

मतदाता धोखा दिए, लगी पेट पर लात।

*रो- रो कर बीते दिवस, तड़प-तड़प कर रात॥  

चूर सभी सपने हुए, धन लाखों बर्बाद।

नींद न आती रात भर, सोलह मई के बाद॥

 

* संशोधित 

 

 

 

3

आ० गिरिराज भंडारी जी

प्रथम प्रस्तुति :

डूबता हुआ सूर्य सौंप जाता है

एक रात जैसी रात, निर्दोष रात

रोज़ ही

और उगता हुआ सूर्य ले के आता है

एक दिन ,

बेदाग दिन

जो दिन के जैसे ही होता है

कोरे माथे वाला दिन

उजला उजला  

 

वासनाओं के वशीभूत हम

ले लेते हैं ,

अपना अपना दिन

जीने के लिये/ पा लेने के लिये

वासनाओं को

और लिख देते हैं

अपनी अपनी परिभाषायें

अपना निर्णय ,

हर शाम एक नाम 

अच्छा या बुरा दिन

 

एक कौतुक देखा है मैने 

एक सिक्का जो मुझसे अलग हो के

मुझे रुला न सका  

वही सिक्का किसी के पास जा कर

कैसे किसी के चेहरे की मुस्कान बन गया  

और देखा है उसी मुस्कान को बदलते हुये

अनवरत झरते आशीष , दुआओं में  

और लिखते हुये मेरे हिस्से के उस दिन के कोरे माथे पर 

अच्छा दिन ॥

अच्छा दिन

जो मैने नहीं लिखा था

 

द्वितीय प्रस्तुति :

पहले तो हाथ साफ कर के आइये

हर आदमी की हाथों में देख रहा हूँ मै

कुछ निशान

कई इंसान के दिनों को बुरे दिनों में बदलने के

मेरे हाथों मे भी हैं , किसी के बुरे दिन का निशान , लगा हुआ हूँ  साफ करने में

किसी और के हाथ में होंगे आपके दिनों को बिगाड़ने के निशान

किसका हाथ साफ है ?

 

और फिर कब रहे हैं सभी दिन समान

सभी इंसान समान ?

कौन से युग में

कौन से काल में

अहिल्या , रावण , धोबी भूल गये क्या?

और कंश , दुर्योधन , शकुनी , पुत्र मोही धृतराष्ट्र

सभी जानते हैं , हर कौरव के नाम, क्या गिनाऊँ

ये भी मांगते थे/चाहते थे 

अच्छे दिन

 

पैंसठ बरस में जो भुजाओं के अग्र भागी निशान वाले खुद नही कर पाये

पैंसठ दिनों में मांग रहे हैं

कीचड़ से उपजे हुओं से , नहीं देंगे ये भी , चाहेंगे तो भी नहीं दे सकते

जान जाइये

 

किसे कहते हैं अच्छे दिन ?

सहुलियतें आराम देतीं है बस , दिन अच्छे नही करते

पूछिये उनसे जिनके पास सारी सहुलियतें हैं

दिन भी अच्छे हैं क्या ?

रोते मिलेंगे वे भी , जार जार

 

एक रंग से भी कहीं तस्वीर बनती है ?

द्वंद से पैदा हुये दुनिया में दोनों का एक साथ होना ज़रूरी है

अच्छा और बुरा

अब ,किसके हिस्से मे क्या आये

कुछ क़िस्मत की तो कुछ् हिक़मत की की बात है

 

 

 

4

आ० गणेश बागी जी

अच्छे दिन - चार चित्र


(1)
उदास किसान
सूख रहे धान
आसमान को तकतीं
उम्मीद भरी आँखें
कि अचानक 
बादल छा गये
अच्छे दिन आ गये....

(2)
गाँव-गली 
दौड़ती गाड़ियाँ
चुनावी चपातियाँ
मुर्गे-ठर्रे
लफुवे-भइये
झंडा टांगे 
मस्ती में गा रहे
अच्छे दिन आ गये....

(3)
जाने क्या बीमारी
बन गयी महामारी
हजारों मर रहे 
कलयुग के ’भगवान’
मोटी फ़ीस चर रहे
उनके ही जैसों के

अच्छे दिन आ गये....

(4)
कुदरत की मार
सूखा फिर बाढ़
राहत की घोषणा
सरकारी महकमा 
घी के दीये जला रहे
अच्छे दिन आ गये....

 

 

 

5

आ० खुरशीद खैरादी जी

जब हम अच्छे  बन जायेंगे  तब आयेंगे  अच्छे दिन

श्रमजल से हम  भाग्य-भाल पर  चमकायेंगे  अच्छे दिन

 

चुनाव के इस  वसंत में थे  खिले कमल के  फूलों से

किसे ख़बर थी  इतनी जल्दी  मुरझायेंगे  अच्छे दिन

 

मरुथल से हैं  गाँव हमारे  सूख गई है  हरियाली

दिल्ली वाले  घन काले कब  बरसायेंगे  अच्छे दिन

 

शेष रहेगी  केवल खुशबू  यादों के इन  आलों में

लाख सहेजो  कपूर जैसे  उड़ जायेंगे  अच्छे दिन

 

बदहाली में  जी को राहत  मिलती है हम  लोगों को

हमें ख़बर है  ख़ूब सितम हम  पर ढायेंगे  अच्छे दिन

 

राग भैरवी  गम की हमको  गानी होगी  जीवन भर

गीत ग़ज़ल में  हम भी कुछ दिन  तक गायेंगे  अच्छे दिन

 

तेग किरन की  जब लेकर ‘खुरशीद’ भिड़ोगे  तुम तम से

रात कटेगी  प्राची से जब  मुसकायेंगे  अच्छे दिन 

 

 

 

6

आ० डॉ० विजय शंकर जी

प्रथम प्रस्तुति :

अच्छे दिन
अच्छे लोगों से आते हैं.
अच्छे लोग
अच्छे दिन लाते हैं।
अच्छे लोग मिलते हैं
और न जाने कहाँ खो जाते हैं .
उन्हें चाह कर भी हम
याद रख नहीं पाते हैं ,
बुरे लोग मिलते हैं , कहीं भी रहें ,
हम चाह कर भी उन्हें ,
भूल नहीं पाते हैं।
अच्छों का हिसाब हम
चुका नहीं पाते हैं ,
बुरे लोगों के हिसाब-किताब
कभी बंद हो नहीं पाते हैं ।
बुरे जो चाहते हैं ,
सब हक़ जता के ,
छीन के , ले जाते हैं ,
अच्छे हमको हमारा हक़
बिना बताये दे जाते हैं ।
बुरे लोग दुनिया में
कहाँ से आते हैं ?
अच्छे लोग दुनिया से
कहाँ चले जाते हैं ?
अच्छे लोग खुद को
दुनिया का समझते हैं ,
बुरे लोग दुनिया को
अपना समझते हैं ।
अच्छे लोग दुनिया का
बोझ कम करते हैं ,
बुरे लोग दुनिया पे
एक बोझ हुआ करते हैं ,
दुनियाँ अच्छे लोगों की
बदौलत चला करती है ,
बुरे लोग दुनियाँ की
बदौलत चला करते हैं।
दुनियाँ की अपनी सोच ,
अपने दस्तूर हैं , या
कुछ मजबूरियाँ हैं,
जो लोग दुनियाँ को सिर पे उठाये हुए हैं ,
दुनियाँ उन्हें कभी देख नहीं पाती है ,
जो ठोकर पे रखते हैं उसे ,
दुनियाँ उन्हें सिर पे बिठाती है ।
अच्छे लोग जब भी आते हैं,
जहां से भी आते हैं ,
अच्छाइयाँ लाते हैं ,
अच्छे दिन उन्हीं से ,
उन्हीं की बदौलत आते हैं ।
अच्छे दिन उन्हीं की बदौलत आते हैं ॥

 

द्वितीय प्रस्तुति :

बहुत दिन यूँ ही इंतजार में बीत जाते हैं ,
तब कहीं जाकर दो चार अच्छे दिन आते हैं ||


तपती दोपहरी सी जिंदगी में छोटी सी छाँव से
अच्छे दिन क्या ले कर आते हैं , क्या देकर जाते हैं ||


अच्छे दिन कहाँ से आते हैं , अच्छे दिन कैसे आते हैं
बिजली घंटे भर रोज रह जाए , अच्छे दिन आ जाते हैं ||


चढ़ें न भाव प्याज टमाटर के , तो अच्छे दिन कहलाते हैं ,
लुटने से जब बचे रहें हम , वही दिन , अच्छे कहलाते हैं ||


सौ में से आठ अपराध कम हुए , अच्छे दिन आ गए ,
बान्नबे की क्या गलती थी , बिचारे सब कुछ गँवा गए ||


अच्छा काम कोई करना हो , हर दिन अच्छा होता है ,
बुरे काम के लिए तो भइया हर वक़्त बुरा होता है ||


काश कभी एक दिन ऐसा भी अच्छा आ जाये
न कोई भूखा सोये , न कोई सताया जाये ||

बुरे काम , बुरे खयाल , दूर छोड़ आते हैं ,
आओ चलो मिलकर अच्छे दिन ले आते हैं ||

 

 

 

7

आ० सत्यनारायण सिंह जी

*छन्न पकैया छन्न पकैया,  क्या बूढ़े क्या बच्चे |
बाट जोहते आतुरता से, कब आयें दिन अच्छे |१|

छन्न पकैया छन्न पकैया, नहीं समझ कुछ आता |
अच्छे दिन लाते नारे तो, देश गरीब कहाता ? |२|

छन्न पकैया छन्न पकैया, पके पुलाव खयाली |
अच्छे दिन के पकवानों से, सजी कल्पना थाली |३|

छन्न पकैया छन्न पकैया, दिन अच्छे मन भायें |
लगे कहावत सच्ची अब सुख, स्वर्ग मरे बिन पायें |४|

छन्न पकैया छन्न पकैया, जादू टोना मंतर |
सारे लोक लुभावन नारे, राजनीति के जंतर |५|

*संशोधित 

 

 

 

8

आ० सूबे सिंह सुजान जी

कुण्डली-

अच्छे दिन की आस में,मचा रहे उत्पात

सारी जनता देखती,कैसा हुआ प्रभात ।

कैसा हुआ प्रभात,भानु है अति चमकीला।

चहुंदिश घनी उजास,रंग है पीला-पीला ।

पूछते हैं “सुजान” ,कहाँ से आये कच्छे ।

लौटा दो भगवान,मांगते हैं दिन अच्छे।।

 

 

 

9

आ० अरुण कुमार निगम जी

कब लौटेंगे  यारों अपने  , बचपन वाले अच्छे दिन

छईं-छपाक, कागज़ की कश्ती, सावन वाले अच्छे दिन 

गिल्ली-डंडा, लट्टू चकरी , छुवा-छुवौवल, लुकाछिपी

तुलसी-चौरा, गोबर लीपे आँगन वाले अच्छे दिन

हाफ-पैंट, कपड़े का बस्ता, स्याही की दावात, कलम

शाला की छुट्टी की घंटी, टन-टन वाले अच्छे दिन

मोटी रोटी, दाल-भात में देशी घी अपने घर का

नन्हा-पाटा, फुलकाँसे के बरतन वाले अच्छे दिन  

बचपन बीता, सजग हुये कुछ और सँवरना सीख गये

मन को भाते, बहुत सुहाते, दरपन वाले अच्छे दिन

छुपा छुपाकर नाम हथेली पर लिख-लिख कर मिटा दिया

याद करें तो कसक जगाते, यौवन वाले अच्छे दिन

निपट निगोड़े सपने सारे , नौकरिया ने निगल लिये

वेतन वाले से अच्छे थे, ठन–ठन वाले अच्छे दिन

फिर फेरों के फेरे में पड़ , फिरकी जैसे घूम रहे

मजबूरी में कहते फिरते, बन्धन वाले अच्छे दिन

दावा वादा व्यर्थ तुम्हारा , बहल नहीं हम पायेंगे

क्या दे पाओगे तुम हमको, बचपन वाले अच्छे दिन

 

 

 

10

आ० वंदना जी

नवकोंपलों के स्वागत में

देह भर उत्साह से उमगते

कण-कण को वासन्तिक बनाने में

हर पल विषपान कर

प्राणवायु उलीचते

कर्तव्य हवन में

स्वयं समिधा बन

जो पाया उसे लौटाते

पात-पात तिनका-तिनका

इदं न मम कहकर आहुति देते  

देव ,ऋषि और पितृ ऋण से

मुक्त होना सिखलाते

ये वृक्ष पूछा करते हैं

कि ऋणानुबंधों की सुनहरी लिखावट की  

स्याही में डूबे

क्या कभी आया करते हैं

अच्छे दिन

11

 

 

 

आ० नीरज कुमार ‘नीर’ जी

जो कहा है वही होगा क्या

जो होगा  वो  सही होगा क्या?

था कहा आएंगे दिन अच्छे 

अच्छे दिन में यही होगा क्या ? 

कुर्सी पर आके  भूले वादे

भूख का हल अभी  होगा क्या?

कोयले की दलाली कर के 

हाथ काला नहीं होगा क्या?

मर्जी मन की  चलेगी या फिर

कोई खाता बही होगा क्या?

क्या हुआ आसमानी वादों का

प्रश्न का हल  कभी होगा क्या?

देश आएगा क्या धन काला 

घर में दूधौ दही होगा क्या?

 

 

 

12

आ० महेश्वरी कनेरी जी

धनुष सी झुकी काया,

वक्त की लाठी थामे हुए है

धुमिल पड़ी इन आँखों में

अब भी आकाश छुपा है

जऱ जऱ सी धरती पर

 अब कैसे फूल खिलाएंगे

पर मन कहता है..

अच्छे दिन फिर आएंगे

सूखे पत्तों सी चरमराती

बूढ़ी हड़्डि़याँ

खुद को थामे हुए हैं

टूटती सांसे

उम्मीदों पर अटकी हुई है

बिन तेल की बाती

अब कैसे जला पाएंगे

पर मन कहता है..

अच्छे दिन फिर आएंगे

भूख की थाली में

जिन्दगी सिमटी हुई है

स्वार्थी हवाओ का

सब तरफ जोर शोर है

अच्छे बुरे में फर्क

अब कैसे कर पाएंगे

पर मन कहता है..

अच्छे दिन फिर आएंगे

 

 

 

13

आ० सुरिंदर रत्ती जी

अच्छे दिनों के सपने सब देखते हैं

अभी कल ही नेताजी ने कुछ सपने दिखाये

विकास दर गगन को छुआ दी

उन्नती की गाड़ी खड़ी है कहीं गैराज में

उसके टायरों में से

आशा की हवा भी निकल दी 

बुरे दिनों ने काला चोला पहन के

अच्छे दिनों को अगवा कर लिया है

जीवन को तहस-नहस करके दबा दिया है

अश्रुओं की नमकीन धारा बढ़ायी

महंगाई, भ्रष्टाचार बड़े ठग

निकले बड़े आततायी

एक शीशा कहीं कोने में खड़ा

दिखा रहा है चहरे की रंगत

जवानी में झुर्रियां हैं या झुर्रियों में जवानी

नशे का शिकार युवा,

बेसुध क्या जाने - अच्छे दिन

अच्छे दिन किसी मदारी के बन्दर हैं

मनचाहा नाच नचाओ

हिचकोले खाते हुए कमर मटकाओ

मदारी के पास बढ़िया चाबुक है

बन्दर की पीठ पे जब-तब जड़ता है

गले में फाँस है बेचारा

दर्द से कहराता है, दांत भींच के डरता है

संसद में सफेद पोशों की भीड़ ने

पैंसठ सालों से बेहिसाब

सारा माल-टाल खाया

दाद देनी पड़ेगी, एक भी डकार न आया

भाई मेरे,

अच्छे दिन तो नेताओं के आये

भारतवासी बाबाजी का ठुल्लू पाये

अच्छे दिन अख़बारों में,

मिडिया में देखे सुने

सच तो ये है अच्छे दिन लोगों के

ज़हन में रहते हैं, रहेंगे, सारी उमर

अपराधी बन कर

काश के अच्छे दिनों के बीज मिलते

खेती करके उपजे दानों को

सारे विश्व में बांटता ..... 

 

 

 

14

आ० दयाराम मेथानी जी

मुक्तक

आयेंगे जरूर अच्छे दिन जरा इंतजार कीजिये,
हम ही लायेंगे ये दिन खुद को हिस्सेदार कीजिये,
चांद का चमकना व सूरज का उगना अभी बाकी है, 
मिटेंगे गम, महकेगा चमन आप ऐतबार कीजिये

 

 

 

15

आ० जवाहर लाल सिंह जी

प्रथम प्रस्तुति

अच्छे दिन की आस में, खोले हमने द्वार |*

झांक झाँक कर देखते,  बाहर ही हर बार ||

कई राज्य अपने हुए, दिल्ली अब भी दूर|

करनी है कुछ घोषणा, हम भी हैं मजबूर || 

 

* संशोधित 

द्वितीय प्रस्तुति

अच्छे दिन की याद में, बीत रहे हैं अपने दिन,

राहें नित दिन देख रहा हूँ, कब आएंगे अच्छे दिन.

खाता मैंने खुलवा ली है, रुपये लाखों आयेंगे.

नींव महल की खुदवा ली है, बीत रहे हैं दिन गिन गिन

कसमे हमने खाई है, साफ रहूँगा साफ़ करूंगा

उठा रहा हूँ गलियों से, कचरा तिनका हर पल छिन

हमले अब न होएंगे, सीमा के उस पार से

गोली की आवाज न रुकती, मरें जवान रात अरु दिन.

खाऊँगा न खाने दूंगा, अब भी मुझको याद है

अफसर लेते है रुपये, रखते गड्डी को गिन गिन

देश और कई प्रान्तों में, सत्ता उनकी आई है

अब कहते हैं याद रखो, चार-पांच बच्चे लो गिन.  

गाँधी को अपनाते है, नाथूराम के गुण गाते

हिंसा का तांडव होता, देख देख आती है घिन

राहें नित दिन देख रहा हूँ, कब आएंगे अच्छे दिन.

 

 

 

16

आ० सचिन देव जी

अच्छे दिन की देश में, बस इतनी परिभाष 

रोटी कपड़ा साथ में, रहने को आवास

 

जनता बाँधे है खड़ी, अच्छे दिन की आस  

मोदी जी अब तुम करो, अपने सद्प्रयास

 

थाली से मजदूर की, गायब रोटी दाल 

ऑफीसर सरकार के, होते मालामाल 

 

अच्छे दिन की आस में , निकले सरसठ साल 

गिरे दांत, मुँह पिचके ,  गायब सर से बाल    

 

अच्छे दिन आ जायगें, काला धन जब आय

आटोमैटिक बैंक में, मनी डबल हो जाय

 

 

 

17

आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति :

बचपन से हम मरते दम तक I  ताका करते अम्बर लक-झक I

होती अंतस  में है धक –धक I  जाते  लोचन करुणा  में  थक I

पावस आता लेकर मृदु जल  I  मानव जीवन   का हत संवल ?

धरती  भीगी    धानी  अंचल  I सूखी   सरिता    भंगुर  चंचल I

 

नीचे  मानव  जीवन अशांत  I ऊपर  करुणा-सागर  प्रशांत  I

उनके मन में है क्या अभ्रांत  I वे   ही   जानें  ईश्वर  अश्रांत  I

कब है  बरसे करुणा के घन  I कब है भीजा मानव का मन I

बदला है कब जग का जीवन I निर्भर कब है निर्धन का तन I

 

रातें काटी  तारे गिन –गिन  I अच्छे  दिन आना  था  इक दिन I

सूना  जीवन  वादों  के   बिन I पर अब आती   उनसे भी घिन I

विपदा अपनी  कह दूं किससे I करुणा आशा सब थी जिससे I

कितना मांगू  मै अब विभु से I  बोलो प्रिय कैसे किस मिस से ?

 

जीवन रजनी  आयी है घिर I क्या अब भी है आशा प्रिय थिर I

बादल  अशंक  आये  है फिर I  माना  तेरा यह  प्रण है चिर I

जगती में  तम छाया  है घुप I  आयें  कैसे  अच्छे  दिन  चुप I

बैठे  सिमटे  अपने   में  छुप I   मांगे  की   रोटी  खाते  गुप I

 

समझो प्रांगण रण का यह जग I इसमें भर कर सत्वर दो डग I

दोगे कम्पित कर जब अग-नग I दुर्दिन  सारे  जाएँ   तब भग I

करुणा-सागर  जगता  है तब I उद्दम यह  जग करता है जब I

दूषण उस  पर रखते है सब  I अपनी करनी करता जग कब ?

 

आकर जग में चाहो श्रम बिन I केवल तारक अम्बर के गिन I

मिट सकते है सत्वर  दुर्दिन  I झर –झर आते अच्छे से दिन I

तब तो सपना  बुनते प्रिय तुम I सपने  सा  ही   होना है गुम I

रहना जीवन भर है गुम-सुम  I बिखरी रोली बिखरा कुंकुम !

 

अब भी प्रिय तुम कहना मानो I इस जग से रण भीषण ठानो I

अपना पौरुष अनथक छानो  I तब दिन अच्छे करतल जानो I

जनता  को  भ्रम  देते   है वो I  उनको  उत्तर  वैसा   ही  दो I

जग में रहता  आश्रित  है जो I बोलो  उसकी  कैसे  जय हो ?

 

द्वितीय प्रस्तुति :          

अच्छे दिन की आस में  बीता गत मतदान

स्वप्न बेचते है यहाँ     नेता सभी  महान

नेता सभी महान      जीत संसद में आये 

पूरा वादा एक      नहीं अबतक कर पाए

कहते है गोपाल       सुनो बातों के लच्छे

है किसकी औकात    यहाँ दिन लाये  अच्छे 

 

अच्छे दिन तो आ गए  किसे नही मालूम

कितनी रेवड़ी बंट गयी बस जनता मजलूम

बस जनता मजलूम  न उसका एक सहारा

कौन करे उपकार   भाग्य ने जिसको मारा

कहते है गोपाल      दिखा जादू के लच्छे

बैठे है अब शांत    बना अपने दिन अच्छे

  

अच्छे दिन तो है नहीं     भारत से अब दूर

नेता के बस का नहीं       वे वेवश मजबूर

वे बेबश मजबूर        हमी परचम लहरायें

पुरुष-अर्थ को सत्य     आज जीवन मे लायें

कहते हैं गोपाल       हाथ आयें सब लच्छे

श्रम की जय-जयकार देश के दिन भी अच्छे

 

 

 

18

आ० सुशील सरना जी

आज पहली तारीख है 
पहली तारीख है
नहीं खुश क्यों जमाना
आज पहली तारीख है
क्यों पड़ा हमें नज़रें चुराना 
जबकि आज पहली तारीख है
दिल चाहता है
आज का सूरज सो जाए 
रात कुछ लम्बी हो जाए
पानी,बिजली और टेलीफोनों के 
भुगतानों की तारीखें
सर में हथोड़े की तरह
चोट करती हैं
धोबी,काम वाली और मेहतरानी
भी अपनी तनख़्वाह की ताकीद करती हैं
ऊपर से बैंक लोन की
कार की किश्त,
मकान किराया’
पप्पू की फ़ीस,महीने भर का राशन
पेट्रोल,रिश्तेदारी,सामाजिक दायित्व
पूरे परिवार की फ़रमाइशें
और उस पर
कोड़ में ख़ाज
आयकर की जबरदस्त कटौती
वेतन तो ऊँट के मुँह में जीरे के सामान
हाथ में आया
कैसे होगा सब 
बस यही सोच दिल घबराता है
कैलेंडर की एक तारीख से 
हर बार ये दिल डर जाता है
चादर कितनी भी बड़ी करुँ
पैर फिर भी बाहर हो जाता है
उधार की चमक से
दिल का सकूं जल जाता है
सुविधाओं के जंजाल में
खुद ही इंसान फस जाता है
माना वक्त के साथ 
खुद को भी बदलना जरूरी है
पर बदलने के लिए क्या
उधार के दल,दल में
गिरना जरूरी है 
सच कहता हूँ 
अगर इंसान उधार के 
प्रलोभन और आकर्षण के 
जाल को पहचान जाएगा 
भौतिक सुख से अधिक 
आत्मिक सुख में शान्ति पायेगा
अच्छे दिन किसको कहते हैं 
ये वो समझ जाएगा 
फिर वो एक दिन नहीं 
हर दिन हर पल 
अच्छा दिन मनाएगा 

 

 

 

19

आ० लक्ष्मण धामी जी

गजल
शोर है अच्छे दिनों का फिर गली चैपाल में
खीर, पूड़ी और हलुवा, फिर सजेगा थाल में /1


बाघ बकरी जल पियेंगे साथ मिलकर ताल में
अब न मछुआरा  करेगा  मीन  कोई जाल में /2

 

दिन कटेगा अब न यारो एक भी तिरपाल में
दर्द घोड़े  का  मिटेगा  जो बसा है नाल में /3

 

रोटियाँ चुपड़ी मिलेंगी साथ मक्खन की डली
और कंकड़  का  न होगा नाम यारो दाल में /4

 

दिन फिरेंगे सत्य कंकालों के यारो अब यहाँ
झुर्रियों को त्याग लाली फिर उगेगी गाल में /5

 

लौट   आएगी   जवानी   फिर  दवा के  जोर से
दिख न पाएगी सफेदी की झलक भी बाल में /6


फिर सजेंगी महफिलें कुछ फिर भरेंगे जाम नव
चिलमनों में छुप के हिस्सा फिर बॅंटेगा माल में /7


किस के हिस्से हाड़ होगा किसके हिस्से बोटियाँ
जानते  हैं   भेडि़ये  जो   सज्जनों   की  खाल  में /8


पाँच  दसकों   से गरीबी  को   मिटाने   की पहल
है पड़ी ये सोचिए मत आज भी किस हाल में /9


दिन सुहाने आ रहे जब कह रही सरकार है
फर्क   आएगा   न   पूछो   झोपड़ी  के  हाल में /10


है ‘मुसाफिर’ बात मीठी सिर्फ राहत कान को
कर्म   तो   होते   रहेंगें   सब   फिरंगी  चाल   में /11

 

 

 

20

आ० आशा पाण्डेय ओझा जी

पिता चले गए 

साथ अपने ले गए

ज्यों सारी ऋतुएं

खुशहाली ,तीज त्योंहार

छोड़ गए साए में अनमने

उम्र काटते दिन

पूजा घर से अब नहीं उठती

धूप,अगरबत्ती की खुशबू

न ही गूंजता शंखनाद

नहीं उच्चारित होते

महामृत्युंजय के जाप

नब्जों में ठहर गई 

वो तमाम दुआएं 

नित करती थी जो बेटियां

उनकी सलामती के लिए 

पिता चले गए

चली गई सर से

प्रेम की घनेरी छाया

तमाम अच्छे दिन 

उबलने लगा

विस्तृत सूने मैदान सा 

क्षण-क्षण जीवन

स्मृतियाँ सहेजते    

एक दूजे को तसल्ली देते 

दिन उजाड़ सा काटते 

दुबक कर कोने में रोती

छुप-छुप कर सबकी रात  

दिवाली,होली बीज,तीज

लौटने लगे डॉम खली हाथ

अब कोई नहीं मांगता 

किसी के वास्ते

दे कर उन्हें कुछ

बदले में झोली भर-भर आशीष

पिता चले गए

चली गई खुशहाली, चली गई बहार

बेटियां घर की रौनक होती है

कहते थे पिता

पिता के जाने के बाद जाना 

ये रौनकें पिता ही भरते थे 

हम बेटियों की साँसों में  

 

 

 

21

आ० महर्षि त्रिपाठी जी

जन्मदाता के दर्शन से ,सुबह की शुरुवात हो 

घर के अगन में  ही ,दिवाकर के दर्शन प्राप्त हो 

न रहे कोई प्रतिशोध ,मन में न कोई अघात हो 

मीठी बोली सब बोलेंगे ,मुख में न होगी गाली 

अच्छे दिन तब आएंगे जब होगी खुशहाली |

जिसके दम पे मिली ख्याती, भारत कृषि प्रधान है 

वो बेचारा कोई नहीं, बस भारतीय किसान है 

किसानो की आत्महत्या को ,रोकना आसान है 

जब किसान के चेहरों और खेतो में होगी हरियाली 

अच्छे दिन तब आएंगे जब होगी खुशहाली |

राजनीत के कारन ही  हम आपस में लड़ते रहते 

आग न निकले फिर भी हम ,पत्थर रगड़ते रहते 

दूसरों के भोजन छीन,हम  खुद पेट भरते रहते 

अन्धकार को चीर कर जब आएगी उजियाली 

अच्छे दिन तब आएंगे जब होगी खुशहाली |

धन की लालसा ने  हमें ,अपनों से दूर किया 

खुद की खुशियों को ,हमने ही  नासूर किया 

मन के दीये को स्वार्थ ने ,बुछने पर मजबूर किया 

मन का दीया होगा रौशन  घर-घर होगी  दीवाली 

अच्छे दिन तब आएंगे जब होगी खुशहाली ||

 

 

 

22

आ० जितेन्द्र पस्तारिया जी

आज तक

हाँ! अभी भी

याद हैं, मुझे

वो खुशियों से भरे

दिन और रात

 

केवल रोशनी ही थी

बस! छाँव थी

न अँधेरे थे, दूर तक

धूप भी न थी

यूँ ही तो निकल गये

वो पल

फिसलते रहे

जैसे! रेत हो, मुट्ठी भर

मुझे तो चाह थी, रेगिस्तान की

याद है न! तुम्हे भी

छूट गये

छोड़ ही गये

क्या..? वो दिन

अच्छे थे

जो बीत गये

उन दिनों से तो

अच्छे लगने लगे हैं

अपने-अपने से    

ये   दिन....

 

 

 

23

आ० चौथमल जैन जी

अच्छे दिन आ गये हैं , करो सफाई देश की।

न केवल सड़कों की , घरों और परिवेश की।।

शौच की और सोंच की , आपस के विचार की।

जिससे मिटें ये दूरियाँ ,दिलों के दरम्यान की।।

रक्षा करो तुम देश के , आन की और मान की।

होली जला दो आज तुम , भृष्ट के अरमान की।।

उठो जवानों देश के , ले मशाल आज तुम।

विश्व को ये दिखादो , भारत की हो शान तुम।।

अच्छे दिन लाना गर , है हमारे हाथ में।

फिर क्यों ये सोंचते ,कुछ मिले हमें सौगात में।।

कार्य हम ऐसा करें , देश का उत्थान हो।

भारत का संसार में ,पुनः गुरू सा मान हो।

 

 

 

24

आ० गुमनाम पिथोरागड़ी जी

कैसे ये दिन अच्छे हैं 
भूखे बेबस बच्चे हैं

घोटालो में जेल हुई 
तुम कहते हो सच्चे है

भगा रहे जो लड़की को 
कुछ कोठो के दल्ले है

ऊंची कुर्सी पर बैठे 
सबसे बड़े निठल्ले हैं

 

 

 

25

आ० लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी

अच्छे दिन की आस लिए, जन जन ने मतदान किया

लोकतंत्र मजबूत हुआ, जग को यह आभास दिया |

 

अच्छा दिन की बात करें, रोजगार जब सुलभ करें  

बेघर का जब ध्यान धरें, सबकें घर आबाद करें |

 

गाँव गाँव स्कूल खुलें,  शिक्षा का आधारं  बने

सड़कों का जब जाल बिछें, गाँव तभी देहात बनें |

 

प्रशासन को जन चुस्त करें, जनता का झट काम करें

जन जन को अधिकार मिले, अपने हक़ की मांग करें |

 

सस्ता सुलभ जब न्याय मिले, त्वरित गति से न्याय करे

बच्चों के संस्कार मिले, अच्छें दिन का भान  करे |

 

 

 

26

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी

ऐसे भी आयें कभी, अच्छे दिन भगवान |

रहे न भूखा एक भी, इस जग में इंसान ||

इस जग में इंसान , धर्म का बने सहारा,

बने न खुद ही धर्म, निरंकुश औ हत्यारा,

रहे न कोई भेद, सहोदर हो जग जैसे,

समरसता सँग प्रेम, लिए दिन आयें ऐसे ||

 

अच्छे दिन ऐसे सुनो, सिर पर हुए सवार |
फटफटिया को बेचकर, लाये मोटर कार ||

लाये मोटरकार, और फिर धूम मचाई,

सैर सपाटा नित्य, खूब ही मौज उड़ाई,

खुटा जेब का माल, गुले अंगूरी लच्छे,

अबके बेची कार, और दिन लाये अच्छे ||

 

आये अच्छे दिन मगर, किस मुश्किल के साथ |

शासन ने सौगात में, दी जब झाड़ू हाथ ||

दी जब झाड़ू हाथ, कलम हमने भी धर दी,

कर देंगे सब साफ़, मुनादी भी यह कर दी,

नेताओं की भीड़, देख पर हम घबराये,

करें कहाँ से साफ़, समझ में ही ना आये ||

 

 

 

27

आ० हरि प्रकाश दूबे जी

तुम अन्नदाता ,मैं भिक्षुक

जी रहा क्षुधिततः में, मैं

एक  रोटी, उधार दे दो !

 

तुम कृष्ण, मैं नग्न हूँ

जी रहा नग्नता में, मैं

थोडा वस्त्र, उधार दे दो !

 

तुम विश्वकर्मा ,मैं बेघर

जी रहा निराश्रय में, मैं

एक झोपड़ी उधार दे दो !

 

तुम विष्णु, मैं निर्धन हूँ    

जी रहा निर्धनता में, मैं

थोडा धन, उधार दे दो !

 

तुम ज्ञानी,मैं महामूर्ख

जी रहा अज्ञानता में, मैं

थोडा ज्ञान, उधार दे दो !

 

तुम शिव, मैं असक्त

जी रहा निर्बलता में, मैं

थोडा बल , उधार दे दो !

 

तुम इन्द्र ,मैं कुरूप

जी रहा कुरूपता में, मैं

थोडा सौंदर्य , उधार दे दो !

 

तुम नटराज , मैं  भांड

जी रहा कलाहीनता में, मैं

थोडा तांडव , उधार दे दो !

 

तुम ब्रह्म ,मैं चार्वाक

जी रहा नास्तिकता में, मैं

थोडा अध्यात्म, उधार दे दो !

 

तुम व्यास,  मैं गणेश 

जी रहा शुन्यता में, मैं

एक कलम , उधार दे दो !

 

तुम शारदा , मैं कवि

जी रहा मनोविदलता में, मैं  

दो शब्द , उधार दे दो  !

 

लौटा दूंगा , सब कुछ

बस जीवन के कुछ दिनों, में

अच्छे दिन , उधार दे दो  !!

 

 

 

28

आ० दिनेश कुमार जी

नेता करते ठाठ हैं , राजनीति व्यापार
जनता पर तो पड़ रही, अच्छे दिन की मार

 

अच्छे दिन की आस में , बदला तो है राज 
लेकिन कौड़ी दूर की , हमको लगता आज

 

अच्छे दिन पर हो रही , चर्चा है चहुँ और 
P.M जी को चाहिए , करना कुछ तो ग़ौर

 

मेहनत जो भी नर करे, उसको रब का साथ 
अच्छे दिन तो हैं सदा, मानव तेरे हाथ

 

पेट भरा है आप का , कविता टाइम पास 
अच्छे दिन हैं आप के, मेरा है विश्वास

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आदरणीया डॉ. प्राची जी, सादर अभिवादन!

मेरी रचना को संकलन में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार 

दोहा जनित शिल्प में त्रुटि की तरफ इशारा किया गया था मैं पुन: सशोधन युक्त दोहे पेश कर रहा हूँ अगर यह सही लगे तो इसे प्रतिस्थापित कर दें!

अच्छे दिन की आश में, खोले हमने द्वार |

झांक झाँक कर देखते,  बाहर ही हर बार ||

कई राज्य अपने हुए, दिल्ली अब भी दूर|

करनी है कुछ घोषणा, हम भी हैं मजबूर || 

सादर 

जवाहर लाल सिंह 

आ० जवाहर लाल सिंह जी 

आयोजन में स्वीकृत सभी रचनाएं संकलन में स्थान पाती हैं... लेकिन ये ज़रूर है कि हर बार अपनी रचना संकलन में देख कर मन आनंदित भी होता ही है 

आपकी दोहावली को यथा निवेदित प्रस्थापित कर रही हूँ ...

आश शब्द को आस कर रही हूँ 

आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी सादर, महोत्सव की रचनाओं का शायद यह अब तक का सब से शीघ्र संकलन होगा. बहुत-बहुत आभार इस श्रेष्ट कार्य के लिए. व्यस्तता के कारण मैं बहुत अधिक समय अपनी उपस्थिति नहीं दे सका.  यहाँ तक की अपनी रचना पर आयी प्रतिक्रियाओं पर भी सबका आभार प्रकट नही कर सका. मैं आज उन सभी गुनीजनो का दिल से आभार प्रकट करता हूँ. आज संकलन में भी सभी छूटी हुई रचनाएं पढ़कर आनंद आया. सादर.

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी 

संशोधनों को अब संकलन की पोस्ट पर निवेदित करने के कारण अब संकलन कर्म में काफी आसानी हो गयी है... इसीलिए जैसे जैसे रचनाएं पढ़ते जाओ साथ ही साथ हर रचना संकलित करते जाओ ...तो संकलन भी अंतिम पोस्ट के पढने तक पूरा..और समय की भी बचत. यही कारण रहा कि इस बार संकलन आयोजन समाप्ति से काफी पहले ही पूरा हो गया और पोस्ट भी हो गया :)

इस गति को आपका अनुमोदन मिला शुभकामना मिली आपका सादर धन्यवाद 

आदरणीया मंच संचालिका प्राची जी,

महोत्सव के सफल आयोजन और संकलन कार्य के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

द्वितीय प्रस्तुति में बस एक संशोधन .................

हाय- हाय कर दिन बीते ...................  रो- रो कर बीते दिवस, ॥  

सादर 

आदरणीय अखिलेश श्रीवास्तव जी 

निवेदित संशोधन कर दिया गया है 

डॉ प्राची सिंह जी तीव्रतम संकलन हेतु तथा इस सफल आयोजन के लिए हार्दिक बधाई ..अच्छे दिन की अद्भुद अनुभूति के लिए आभार

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