For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-168

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 168 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है ।

इस बार का मिसरा जनाब 'साहिर' लुधियानवीसाहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

'क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम'

मफ़ऊल फ़ाईलात मुफ़ाईल फ़ाईलुन

221   2121   1221   212 

बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ

रदीफ़ --से हम 

क़ाफ़िया:-(अर की तुक)
जिधर, इधर,उधर,डर आदि...

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 जून दिन गुरूवार को हो जाएगी और दिनांक 28 जून दिन शुक्रवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 27 जून दिन गुरूवार  लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.comपर जाकर प्रथम बार sign upकर लें.

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक...

मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

Views: 2147

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

//रदीफ में सुधार करता हूं//

भाई, क़ाफ़िया भी ग़लत है सहीह शब्द है "उम्र" 21

मजाहिया शेर में तो उम्र को 'उमर' रहने दीजिए। फिर बाली उमर, उमरिया जैसे देशज शब्द बुरा मान जायेंगे।

//मजाहिया शेर में तो उम्र को 'उमर' रहने दीजिए//

रहने देते हैं भाई;-)))

आदरणीय समर कबीर जी,

फाइनली ये अशआर ग़ज़ल में रखने की सोच रहा हूं।

हालात वो नहीं हैं कि निकले भी घर से हम।

आते दिखे जो यार तो निकले इधर से हम।

कितना भी दिल कहे यही बोले नजर से हम।

बिल्कुल नहीं कहेंगे यूं कुछ भी अधर से हम।

पुरखों ने दी दुआओं की मजबूत सीपियां,

तब जाके बन सके हैं दमकते गुहर से हम।

भगवा, सफेद, नीले, हरे सब ही साथ हैं,

इतना ही कम-से-कम तो कहें एक स्वर से हम।

ईमान की जो बोलियां ख़ुद ही लगा रहा,

कहते भी क्या हुज़ूर मनी के लवर से हम।

लगता है ख़ाब ही रही इज़्ज़त की रोटियां,

कितने विवश थे क्या कहें अपने उदर से हम।

ताउम्र इस नज़र के लिए ख़ुद हुए हलाक़,

'क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम।'

जी, बहुत ख़ूब ।

२२१ २१२१ १२२१ २१२

वाक़िफ़ हुए हैं जब से जहाँ के हुनर से हम

डरने लगे हैं अपने ही दीवार-ओ-दर से हम १

मरने का खौफ़ है न ज़माने का कोई डर

बस्ती उजाड़ देते हैं गुज़रें जिधर से हम २

ठहरे थे शौक़ शौक़ में कुछ रोज़ मेरी जाँ

बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम ३

दुनिया की फ़िक़्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर

जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम ४

कुछ ऐसे खो गये हैं हम अपने अज़ाब में

अंजान हो गए हैं कि शाम-ओ-सहर से हम ५

ये हम भी चाहते हैं कि शाम-ओ-सहर हों अब   

उकता गए हैं रात के लंबे सफ़र से हम ६

देखीं हैं जब से दश्त की दुश्मन ये बस्तियाँ

डरने लगे हैं शहर के हर इक बशर से हम ७

अपनों की आँख में ही खटकने लगे हैं जब

क्यों चाहें फिर शिफ़ा भी किसी चारागर से हम ८

हमको तो सहना ही था ग़म इक दिन जुदाई का

वो बेमिसाल शख़्स कहाँ बे-ख़बर से हम ९

हर शख़्स को मिली है अगर अपनी मेरी जाँ

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम" १०

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं

क्यों टूट जाएँ ख़ौफ़ में जीने के डर से हम ११

(मौलिक व अप्रकाशित) 

आदरणीय आज़ी तमाम साहिब आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें, ग़ज़ल अभी समय चाहती है, मैंने त्रुटियों की ओर आपका ध्यान दिलाने का प्रयास किया है, आप स्वयं और अन्य गुणीजनों के सहयोग से इस रचना को बहतर कर सकते हैं। 

वाक़िफ़ हुए हैं जब से जहाँ के हुनर से हम

डरने लगे हैं अपने ही दीवार-ओ-दर से हम १... जहाँ का "हुनर" शब्द विन्यास यहाँ उचित प्रतीत नहीं होता है, अंडर लाइन शब्दों के विन्यास पर ग़ौर फ़रमाएं।

 

मरने का खौफ़ है न ज़माने का कोई डर

बस्ती उजाड़ देते हैं गुज़रें जिधर से हम २... क्या बे-ख़ौफ़ और बहादुर लोग यही करते हैं? 

ठहरे थे शौक़ शौक़ में कुछ रोज़ मेरी जाँ

बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम ३... किसी के दिल में शौक़ में नहीं प्यार में रह सकते हैं, वो भी अह्ल-ए-दिल की मर्ज़ी से। 

दुनिया की फ़िक्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर

जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम ४... "रू-ब-रू" में मात्रा पतन उचित नहीं लगा। 

कुछ ऐसे खो गये हैं हम अपने अज़ाब में

अंजान हो गए हैं कि शाम-ओ-सहर से हम ५..."अपने अज़ाब में" "अंजान हो गए हैं कि" शिल्प ठीक नहीं लगा।

 

ये हम भी चाहते हैं कि शाम-ओ-सहर हों अब .... मिसरे का शिल्प उचित नहीं है। 

उकता गए हैं रात के लंबे सफ़र से हम ६.... मिसरों में रब्त का अभाव है।

देखीं हैं जब से दश्त की दुश्मन ये बस्तियाँ

डरने लगे हैं शहर के हर इक बशर से हम ७... शे'र का भाव स्पष्ट नहीं है। 

अपनों की आँख में ही खटकने लगे हैं जब

क्यों चाहें फिर शिफ़ा भी किसी चारागर से हम ८ ... क्या फ़लसफ़ा है!

 

हमको तो सहना ही था ग़म इक दिन जुदाई का

वो बेमिसाल शख़्स कहाँ बे-ख़बर से हम ९ ... मिसरों में कोई रब्त नहीं है। 

हर शख़्स को मिली है अगर अपनी मेरी जाँ

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम" १० ... गिरह नहीं लगी। 

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं

क्यों टूट जाएँ ख़ौफ़ में जीने के डर से हम ११... "जीने के डर से"? ऊला भी समझ नहीं आया। 

जी शुक्रिया आ अमीर जी और गुणीजनों की टिप्पणी भी देखते हैं

आपको तो हर शेर में ख़ामियाँ नज़र आईं सिर्फ़

1 वाक्य विन्यास क्यों उचित नहीं समझ नहीं आया

2 केवल हम की बात हो रही है सभी की नहीं

3 जो लोग शौक़ में मोहब्बत के नगर में रुकते हैं वो बर्बाद हो के निकलते हैं ये भाव है

4 रू ब रू में मात्रा पतन क्यों नहीं हो सकता नियम के हिसाब से किया गया है

5 अपनी पीड़ा में जब आदमी खो जाता है कहाँ उसे रात और दिन कब हुए पता होता है

6 रात और दिन /सुख-दुख की चाहत है ये क्योंकि बहुत समय से रात/ दुख ही देखे हैं

7 शहर बस्ती जंगल काट के ही बनी हैं सब इसलिए शहर के आदमी की मात्वकांक्षाओं से डरते हैं

8 जब अपने ही बात नहीं करते तो बीमारी की दवा किसलिए लें क्यों ठीक हों

9 जुदा तो होना ही था उनमें हम में विचारों का तालमेल ही नहीं था

10 जब हर इंसान को अपनी ख़ुद की नज़र मिली है तो दूसरे की से क्यों देखें किसी को

11 आ जब बहुत से दुश्मन भी हैं ज़ख़्मी हैं ये माना पर इस दर्द और आतंक में जीने के डर क्यों टूट जाये जीने की चाह है अभी भी

//और गुणीजनों की टिप्पणी भी देखते हैं आपको तो हर शेर में ख़ामियाँ नज़र आईं सिर्फ़//

जनाब आज़ी तमाम साहिब... अन्यथा न लें, मैं सिर्फ़ अपना धर्म निभा रहा हूँ, आपको बिंदुवार बिना कोई स्पष्टीकरण दिये भी ये हक़ है कि आप मेरी टिप्पणी में की गयी मेरी तमाम आपत्तियों अथवा सुझावों को सिरे से नकार दें, मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा। हो सकता है जो मैं नहीं समझ सका वो कोई और समझ ले। 

जी आ अमीर जी मैं आपसे सहमत हूँ लेकिन इस तरह से भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए बिना सोचे समझे

आप कह रहें हैं गिरह भी नहीं लगी क्या आप बतायेंगे कैसे नहीं लगी? 

वाक़िफ़ हुए हैं जब से जहाँ के हुनर से हम

डरने लगे हैं अपने ही दीवार-ओ-दर से हम १... जहाँ का "हुनर" शब्द विन्यास यहाँ उचित प्रतीत नहीं होता है, अंडर लाइन शब्दों के विन्यास पर ग़ौर फ़रमाएं।

'हुनर' की जगह 'शर' क़ाफ़िया रखने पर विचार करें।

 

मरने का खौफ़ है न ज़माने का कोई डर

बस्ती उजाड़ देते हैं गुज़रें जिधर से हम २... क्या बे-ख़ौफ़ और बहादुर लोग यही करते हैं? 

अमित जी का सवाल - लेखक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किन्तु कोई निडर वीर बस्ती क्यों उजाड़ना चाहेगा?

ठहरे थे शौक़ शौक़ में कुछ रोज़ मेरी जाँ

बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम ३... किसी के दिल में शौक़ में नहीं प्यार में रह सकते हैं, वो भी अह्ल-ए-दिल की मर्ज़ी से। 

अमित जी का सुझाव - शौक़ शौक़ की जगह शौक़-ए-इश्क़ या इससे मिलता-जुलता कुछ सोचें।

दुनिया की फ़िक्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर

जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम ४... "रू-ब-रू" में मात्रा पतन उचित नहीं लगा। 

मेरा तर्क - जहाँ मात्रा पतन के कारण लय भंग हो रही हो वहाँ मात्रा पतन करना उचित नहीं है। (नियमानुसार भी "रू" का मात्रा पतन नहीं किया जा सकता है।) 

कुछ ऐसे खो गये हैं हम अपने अज़ाब में

अंजान हो गए हैं कि शाम-ओ-सहर से हम ५..."अपने अज़ाब में" "अंजान हो गए हैं कि" शिल्प ठीक नहीं लगा।

अमित जी की इस्लाह - 'अज़ाब अल्लाह की ओर से बुरे कार्यों की सज़ा

के लिए इस्ति'अमाल किया जाता है। 

अंजान हो गए हैं कि शाम-ओ-सहर से हम ५

यहाँ 'कि' भर्ती का शब्द है।

ये हम भी चाहते हैं कि शाम-ओ-सहर हों अब .... मिसरे का शिल्प उचित नहीं है। 

उकता गए हैं रात के लंबे सफ़र से हम ६.... मिसरों में रब्त का अभाव है।

अमित जी की इस्लाह - उला में शाम-ओ-सहर की जगह सिर्फ़ सहर का प्रयोग करें।

देखीं हैं जब से दश्त की दुश्मन ये बस्तियाँ

डरने लगे हैं शहर के हर इक बशर से हम ७... शे'र का भाव स्पष्ट नहीं है। 

अमित जी की टिप्पणी - जो आप कहना चाह रहे हैं वो ठीक से व्यक्त नहीं हो पाया 

 

अपनों की आँख में ही खटकने लगे हैं जब

क्यों चाहें फिर शिफ़ा भी किसी चारागर से हम ८ ... क्या फ़लसफ़ा है!

अमित जी की टिप्पणी - अपनों की आँख में खटकना क्या इतना बड़ा कारण है कि कोई जीने की इच्छा छोड़ दे?

सानी मिसरा अच्छा है उला और अच्छा सोचें।

 

हमको तो सहना ही था ग़म इक दिन जुदाई का

वो बेमिसाल शख़्स कहाँ बे-ख़बर से हम ९ ... मिसरों में कोई रब्त नहीं है। 

अमित जी की टिप्पणी - सानी का भाव स्पष्ट नहीं हुआ 

हर शख़्स को मिली है अगर अपनी मेरी जाँ

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम" १० ... गिरह नहीं लगी। 

मेरा तर्क - ऊला में 'अगर' शब्द भर्ती का है। 

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं

क्यों टूट जाएँ ख़ौफ़ में जीने के डर से हम ११... "जीने के डर से"? ऊला भी समझ नहीं आया। 

अमित जी का सुझाव - सानी और अच्छा सोचें । 

क्या अब भी आप यही कहेंगे?? 

" इस तरह से भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए बिना सोचे समझे" 

मैं इतने विस्तार से समझाने और बहुमूल्य समय देने के लिए आदरणीय यूफोनिक अमित जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। 

जी आ सुधार किया गया है ग़ौर कीजियेगा

हर शख़्स को मिली हैं यहाँ अपनी इक नज़र

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम"

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"स्वागतम"
3 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
3 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय चेतन जी सृजन के भावों को मान और सुझाव देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
12 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय गिरिराज जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
12 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। स्नेह के लिए आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरनीय लक्ष्मण भाई  , रिश्तों पर सार्थक दोहों की रचना के लिए बधाई "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  भाई  , विरह पर रचे आपके दोहे अच्छे  लगे ,  रचना  के लिए आपको…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई चेतन जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद।  मतले के उला के बारे में…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए आभार।"
yesterday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  सरना साहब,  दोहा छंद में अच्छा विरह वर्णन किया, आपने, किन्तु  कुछ …"
yesterday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ.आ आ. भाई लक्ष्मण धामी मुसाफिर.आपकी ग़ज़ल के मतला का ऊला, बेबह्र है, देखिएगा !"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service