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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-94

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 94 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"मिले न छाँव मगर धूप ढल तो सकती है  "

1212      1122    1212       22

मुफ़ाइलुन फइलातुन मुफाइलुन फेलुन/फइलुन 

(बह्र: मुज्‍तस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर )

रदीफ़ :- तो सकती है 
काफिया :- अल (ढल, निकल, बदल, चल, संभल आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 अप्रैल दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 अप्रैल दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 27 अप्रैल दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

//दिलासावत यानि दिलासा के समान/बराबर है,जो कथ्य की मूल बात है । अत: ये शब्द ज़रूरी है यहाँ ।हाँ,उर्दू/फ़ारसी का नहीं है ये दीगर बात है ।//

मुहतरम आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि "दिलासा" शब्द फ़ारसी भाषा का है, और आपने इसे हिन्दी भाषा के शब्द "वत" से मिलाकर अजीब-ओ-ग़रीब बना दिया है,ये तो वही लतीफ़ा हुआ कि एक साहिब ने अंग्रेजी भाषा के शब्द "प्लान" का बहुवचन "प्लानात" कर दिया, वैसे मैं उमूमन आपको कुछ सुझाव देने से बचता हूँ,लेकिन मुशायरे की ख़ूबी ये है कि किसी की इस्लाह से दूसरे सदस्य भी लाभान्वित होते हैं,इसलिये मजबूरन आपको कुछ सुझाव दे देता हूँ ।

लकीरें खींचने की नहीं,मिटाने की जरूरत है।हिंदी-उर्दू में बँटवारा कैसा?

हिन्दी उर्दू में बंटवारा नहीं,ये नियम की बात है, जैसे हिन्दी शब्दों में इज़ाफ़त नहीं लगती ।

फिर जड़वत,लंबवत जैसे शब्दों का क्या करेंगे?

यह लकीर मिटाना नहीं भाषा के साथ खिलवाड़ है , दिलासा फारसी का शब्द है तो इसके साथ हिंदी व्याकरण क्यों? कल मैं शब्-ओ-प्रातः या "मैं जाइंग" या "मैं ल्यूब्ल्यू वास" करूँ तो कैसा रहेगा?

आदरणीय मनन जी तरही मिसरे पर शेर  नहीं कहा आपने फिर भी गजल के लिए मुबारकबाद कुबूल करें

आदरणीय रवि शुक्ल जी,आपका बहुत बहुत आभार।संयोग ही है कि तरही गजल कहने में 'तरह' ही गौण हो गया।

आदरणीय मनन कुमार जी आदाब,

                              तरही ग़ज़ल का अच्छे प्रयास । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।

शुक्रिया आदरणीय आरिफ जी।

जनाब मनन साहिब ,ग़ज़ल की अच्छी कोशिश की है आपने, मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें । मुहतरम समर साहिब के मश्वरे पर गौर कीजियेगा।

शुक्रिया जनाब तसदीक अहमद जी।

बने न बात मगर बात चल तो सकती है
जमी भड़ास जिगर की,निकल तो सकती है।
न इल्म हो न गुमां हो अदा अदा होती
बुलाये कोई तबीयत बहल तो सकती है।
शिखर शिखर पे जमी बर्फ सुलगा रखती हम
दिलों में आग जले ,वो पिघल तो सकती है।
नजर नजर हो गयी जब्त तेरी प्यारी शय
भरोसा कर लें मगर तू बदल तो सकती है।
उठे भले ही बवंडर जहां में मुझको क्या
दिलासावत ए हवा! तू मचल तो सकती है।
कहीं भी जाओ उमस तो जलाती,है उम्मीद-
मिले न छाँव मगर धूप ढल तो सकती है  


 

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"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
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