आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब जी, अनुमोदन के लिए विनम्र आभार।
आदरणीया शिखा तिवारी जी, कथा पर सार्थक टीप देने तथा उस पर अपना अनुमोदन के लिए विनम्र आभार।
अच्छी लघुकथा है आ० डॉ टी आर सुकुल जी, बधाई प्रेषित है. "सोच" के स्त्रीलिंग/पुल्लिंग होने पर पर बहुत सारी दलीलें दी जा सकती हैं, लेकिन इस कथा मैं इस शब्द का इस्तेमाल एक संवाद में किया गया है इसलिए इस पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता क्योंकि आम बोलचाल की भाषा व्यक्ति दर व्यक्ति अलग अलग हो सकती है. लेकिन यह बात मैं भी कहना चाहूँगा कि रचना से "सुख" किसी तरह भी उभर कर सामने नहीं आ रहा. अपनों की पत्थरबाजी के समक्ष मूक अथवा पंगु हो जाने में कौन सा सुख मिलता है, यह बात साफ़ नहीं हुई. इसे विवशता या परिवार के प्रति कर्तव्य तो कहा जा सकता है, लेकिन सुख क़तई नहीं. (मैंने यह बात कथा को गंभीरता से और कई बार पढने के उपरान्त पूरी जिम्मेवारी के साथ कही है) स्वतंत्र रूप में यह लघुकथा प्रभावशाली और मारक है.
धन्यवाद आदरणीय योगराज प्रभाकरजी , यहाँ निवेदन यह है कि कथा का नायक यह भलीभांति जानता है कि उसकी छाती पर मूंग दली जा रही है पर वह फिर भी सुखानुभूति करता है कि वह अन्य कोई नहीं अपने ही हैं। सादर।
बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, बधाई आपको
विनम्र आभार आदरणीय ।
आदरणीय डॉ सुकुल जी बहुत अच्छी कथा है आपकी | हार्दिक बधाई |
विनम्र आभार आदरणीया।
बहुत खूब ! अच्छी लघु कथा , आदरणीय ।
विनम्र आभार आदरणीया।
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