आदरणीय साथिओ,
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वाह, बहुत बढ़िया और बोल्ड रचना प्रदत्त विषय पर| वैसे आखिरी पंक्ति //यह सुनकर दिनेश पिताजी की तस्वीर के सम्मुख जडवत हो गया// हटा दी जाये तो रचना और प्रभावी हो जाएगी क्योंकि इस पंक्ति से यह एक बोध कथा जैसी लग रही है| बहुत बहुत बधाई इस प्रभावी रचना के लिए
अच्छा विषय चुना है आपने आदरणीय वसुधा जी , जिसके लिए बधाई स्वीकारें |
वाह ! अच्छा विषय और कथानक भी । आपको बधाई इसके लिए आ0 वसुधा जी !!
बाकी भाई सुनील जी की बात पर भी गौर कर लीजिये ।
एक ख़ास विषय पर बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है आपने आपकी लघु कथा शायद पहली बार पढ़ रही हूँ
हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर आद० वसुधा जी |
सुख, अपनों का !
‘‘ आपने मुझे पाला, पढ़ा लिखा कर योग्य बनाया, तो यह तो आपका कर्तव्य था। अब आप हमसे यह अपेक्षा क्यों करते हैं कि हम इस कारण आपके आदेशों के गुलाम बने रहेंगे?‘‘ रवि अपने चाचा से कहते हुए उठ खड़ा हुआ।
‘‘ यह बात नहीं है बेटा! तुम्हारी भलाई के लिए ही हम अपने अनुभव की बात करते हैं, तुम्हारे पिता होते तो क्या उनसे भी यही कहते?‘‘
‘‘ क्यों नहीं ? मेरा अपना सोच है, अपनी मान्यताएं हैं, उनमें कोई बाधा डाले यह मैं नहीं चाहता ।‘‘ कहते हुए रवि बाहर चला गया।
पास में बैठे रवि के चाचा के मित्र बोले,
‘‘ मलय ! तेरा पुत्र और पुत्री भी इसी प्रकार अपने अड़ियलपन से विदेश जाकर वहीं बस गए। अब ये भतीजा भी बगावत पर उतर आया है, इसने तो मेरा भी लिहाज नहीं किया ! धिक्कार है ऐसी संतान पर ! ‘‘
‘‘ शायद अपनों का सुख इसे ही कहते हैं‘‘
‘‘ जिससे अन्य लोग शेर की तरह डरते हों उसे अपने ही घर में क्या हो जाता है ?‘‘
‘‘ अब क्या बताएं नरेश !‘‘
‘‘क्या मतलबं?‘‘
‘‘ मेरी स्थिति भी ‘भारत‘ की तरह हो गई है, वह ‘चीन‘ और ‘पाकिस्तान‘ कीे बमबारी से एक साथ जूझ सकता है पर अपने ही घर के पत्थरबाजों के सामने पंगु हो जाता है, मूक हो जाता है।‘‘
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय डॉक्टर सुकुल जी बहुत अच्छी बात कही है. सब अपने के आगे पंगु हो जाते है. बधाई आप को साधारण बात से असाधारण कथन कहने के लिए.
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