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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 59 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 19 मार्च 2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 59 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.


 

इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे चौपाई, दोहा और सार छन्द.

 

 

 

वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

 

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

 

 

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ

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१. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
गीत
आधार -चौपाई छंद
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
देखो आई होली
===========
प्रेम रंग
हाथों में भरलो
देखो आई होली

 

मुट्ठी भरके रंग उठाए
चलते जाते हैं वे सारे
मस्ती में सब झूम रहे हैं
छोड़ रहे हैं रंग फुहारे

 

खेल-खेलती
चलती जाए
मस्त मलंगा टोली

 

मस्ती में झूमन को चाहे
भारी-भारी है पर काया
मैं भी खेलूं फ़ाग सभी से
मेरा मन भी है ललचाया

 

प्यार भरी

लज्जा के संग
मोटी भाभी बोली

 

भूलो मनकी सारी पीड़ा
द्वेष भुला के तुम ही सारे
बस बन जाओ सच्चे साथी
बनते जाओ सब ही प्यारे

 

द्वार-द्वार पर
आज सजे बस
प्रेम सहित रंगोली।।
========
दूसरी प्रस्तुति
आधार-सार छंद
मिलन गीत
=========

मैं हो गई
प्रेम दीवानी
मिलन गीत ही गाऊँ

अबतक मैंने जो देखा था
वो था झूठा सपना
मिट्टी गारे को समझा था
मैंने सबकुछ अपना

सच्चे साथी से
मिलने को
आगे बढ़ती जाऊँ

बहुत रंग फैले देखे हैं
इधर-उधर जो मैंने
उन रंगों को कैसे समझा
बिल्कुल सच्चा मैंने

मिलकर सारे रंग
एक हों
बस ये ही समझाऊँ

सागर में ही मिल जाती है
हर सरिता की धारा
अलग-अलग जो रंग मिले तो
रंग बने वो प्यारा

रंग वही प्रियतम
का मेरे
ख़ुशी-ख़ुशी बतलाऊँ।  

(संशोधित)

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२. आदरणीय समर कबीर जी
छन्न पकैया (सार छन्द)
===============
छन्नपकैया छन्नपकैया,ख़ानदान है मेरा
रंग हथेली पर हैं सबके,बना लिया है घेरा

छन्नपकैया छन्नपकैया,गिन गिन कर हम हारे
नील,पीले, हरे गुलाबी,रँग हैं इतने सारे

छन्नपकैया छन्नपकैया,रंग सजे हैं ऐसे
ऊपर से देखूँ तो लागे, फूल खिला हो जैसे

छन्नपकैया छन्नपकैया,रंग सभी हैं पावन
रचे हथेली पर जो सबके,लगे बड़े मन भावन

छन्नपकैया छन्नपकैया ,रंग भरा ये जीवन
देखा जो ये दिलकश मंज़र,नाच उठा है तन मन
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३. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
दोहे - सात
========
रंग बिरंगे हाथ हों, पर मन रखना साफ
होली है, गलती सभी, तुम कर देना माफ

एक दूजे को मित्र हम, ऐसे देंगे रंग
नफरत के संदेश सब, रह जायेंगे दंग

रंग मात्र रंगे नहीं, भाव मिलायें संग
बिन भावों के मेल सब, लगते हैं बदरंग

हुरियारे आये पहन, सत रंगी परिधान
सतरंगी उत्साह की, फाग बने पहचान

मन कालिख उभरे न फिर, रंगो ऐसा रंग
होली के त्यौहार का, यही सही है ढंग

डालो ऐसा रंग, हों, शक़्ल-अक़्ल सब नेक
होली ही शायद करे, पूरब-पच्छिम एक

मर्यादित भाषा रहे , मर्यादित व्यौहार
पर उड़दंगी मन रहे, होली का आधार
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४. सौरभ पाण्डेय
छन्द - दोहा
============
हाथों में हम हाथ ले, बढें प्रगति की ओर
यही संदेशा दे रही. होली वाली भोर

हरा गुलाबी लाल है, कच्चा-पक्का रंग
आँखों में सपने लिये, हाथों लिए उमंग

रंग रंग में भेद कब, रंग भाव के नाम
लेकिन कुछ निर्बुद्धि हैं, करते भेद तमाम

होली की महिमा बड़ी, होली मिलन सुभाव
रंगों से हैं रौनकें, रंग बताते चाव

बच्चे बूढ़े मिल रहे, मिलते दिखे जवान
इस होली संकल्प हो, लगे प्यार की तान
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५. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
छंद - दोहा
==============
अब समझे हम भी प्रिये, जीवन के नव ढंग
जिसकी जितनी कामना, उसके उतने रंग

सतरंगी संसार ने, छेड़ी मन में जंग
रूप दिखा तेरा मुझे, क्षण में माया भंग

दो हाथों ने बात की- "हम दोनों है तंग
पर तू है खुशरंग तो मैं भी हूँ खुशरंग"

तूने हौले से छुआ, मन में उठी तरंग
अबके होली हो गई, यादों का इक रंग

प्रियवर तेरे साथ से, पाया ऐसा रंग
सपनों के आकाश में, उड़ती हृदय पतंग

बातें हो जब फाग सी, दिल पिचकारी संग
जीवन की होली भरे, खुशियों के नवरंग

 

द्वितीय प्रस्तुति
सार छंद आधारित गीत
=================
रंग अबीर लगाओ सजना,
रंग अबीर लगाओ
पूछे कोई, कौन पिया तो, रंगों में छुप जाओ

एक उमर तक खूब बचाई, अपनी कोमल काया
प्रेम दाग़ बिन सूनी दुनिया, जैसे कुछ ना पाया
रब के जितने हाथ जगत में, उतना रंग लगा दो
इस काया की सोई सिहरन, सजना आज जगा दो
पायल बिंदिया झुमके कंगना, कुछ ना आज बचाओ
रंग अबीर लगाओ सजना.......

प्रीत, मिलन, बिछड़न सब जानो, इस दुनिया का खेला
हाथ बढ़ाओ, राह तके है, इक सतरंगी मेला
रंगों के संसार में खोकर, अद्भुत सुख पायेंगे
गीत मधुरतम फिर सहचर के, निशदिन हम गायेंगे
कितने हाथ पसारे देखो, निर्मोही आ जाओ
रंग अबीर लगाओ सजना.......
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६. आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी
'छन्न पकैया' (सार छंद)
===============
छन्नपकैया छन्नपकैया, रंग-बिरंगा मेला,
हाथ सभी का साथ सभी का, खेल ग़ज़ब का खेला।

 

छन्नपकैया छन्नपकैया, रंग रूप तो देखो,
असली-नकली या सिंथैटिक, कोई इनको परखो।

छन्नपकैया छन्नपकैया, नर-नारी को टोको,
मतभेदों के बदरंगों को, मिलने से अब रोको।

छन्नपकैया छन्नपकैया, अपशब्दों की बोली,
रंगे सियार हैं सब भैया, नेताओं की टोली।

छन्नपकैया छन्नपकैया, जनता तो है भोली,
भूले दुखड़े खेल-खेलकर, रंग,भंग से होली।

दूसरी प्रस्तुति 

[चौपाई-छंद] -प्रयास


विद्यालय हो या फिर दफ़्तर, ऐसा ही तो होता अक्सर।
भूल झमेले अपने सारे, होली खेलें ये बेचारे।

कामकाज से छुट्टी लेकर, होली पहले चकमा देकर।
नाश्ता-पानी सब कर लेते, रंग अबीर से रंग देते।

छंदोत्सव में देखा सबने, लगे रहे छंद सभी रचने।
छन्नपकैया या चौपाई, सार-छंद दोहा चौथाई।
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७. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
चौपाई छंद
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होली आई होली आई। नारी की इक टोली आई॥
लिए साथ बच्चों की टोली। आज खूब खेलेंगें होली॥

हाथों में सब रंग धरे हैं। कॉलोनी के मर्द डरे हैं॥
सास साल भर हुकुम चलाये। ससुरा बैठे बस पगुराये॥

सब अपनी सासू को लाओ। ससुराजी को भंग पिलाओ॥
होली धुन पर इन्हें नचाओ। साथ भांगड़ा खूब कराओ॥

सब मर्दों को रंग लगा दो। बंदर जैसी शकल बना दो।
देवर जेठ कोई न छूटे। नंदोई सब दिखे कलूटे॥

शादी हो या रहे कुँवारी। पुरुषों पर भारी है नारी॥
वो भी हमें कहाँ छोड़ेगा। ना मानूं तो मुख मोड़ेगा॥

मीठी मीठी बातें कर के। बड़ी देर तक आहें भर के॥
रूठ गई तो मुझे मनाकर। हीरो जैसी अदा दिखाकर॥

रात रात भर मुझे सताकर। खुश होगा वो मुझे हराकर्॥
यहीं हार जाती है नारी। अकड़ निकल जाती है सारी॥
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८. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
सार छंद
======
छन्न पकैया छन्न पकैया क्या अपना बेगाना |
आज नज़र आजाये जो भी उसके रंग लगाना |

छन्न पकैया छन्न पकैया साड़ी नई हमारी
बुरी भीग के हो जाएगी मत मारो पिचकारी |

छन्न पकैया छन्न पकैया होली पर्व मनाओ
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सबको गले लगाओ |

छन्न पकैया छन्न पकैया बोलें मीठी बोली
हाथों में पुड़िया गुलाल की लेकर खेलें होली |

छन्न पकैया छन्न पकैया करें नहीं मनमानी
खेलें होली सब गुलाल से सभी बचाएं पानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया होली मिलने आऐ
रंग हाथ में नीला पीला लाल हरा सब लाऐ|

छन्न पकैया छन्न पकैया हो जाये न ख़राबी
होली की टोली में कोई आ जाये न शराबी |

छन्न पकैया छन्न पकैया मत मारो गुब्बारे
हो जाये न कोई हादसा मुख्य सड़क है प्यारे |

छन्न पकैया छन्न पकैया रंगों का है कहना
होली पर्व मुहब्बत का है मिलकर सबको रहना |
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९. आदरणीय टी आर सुकुल जी
वर्णार्घ्य दान (सारछन्द)
========

बसन्त उत्सव चली मनाने , प्रकृति   की हर डाली।
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी, कहीं टहनियाॅं खाली।
अब तक वर्णमयी दुनिया के , लक्षण मन को भाये।
अर्घ्य  वर्ण का देने को द्वय, नत करतल ललचाये।
संचित हैं ये जनम जनम से, अब मौलिकता भर लो ।
ले लो ये सब वर्ण  हमारे, वर्णहीन मन कर दो।
झोंक अग्नि में भेदभाव सब , शुक्लवर्ण यह पाया।
तम आच्छादित मेघों ने अब, नव अमृत बरसाया।
(संशोधित)

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१०. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
(अवधी भाषा में )
चौपाई छ्न्द
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फागुन माह सुगंध सुहावा I होरि महोत्सव मधु नियरावा I
मिलन मनोरथ भलि बढ़ि आवा I कुसुमित बाण मदन चढ़ि धावा I

पूनम निशि विधु-रश्मि अंजोरी I बल्ला, कंडा, काठ बटोरी I
लाइ कपूर जराई होरी I करैं फागु सब चांचरि जोरी I

भेरी चंग नफीरी बाजे I भंग-रंग सब मुख पर साजे I
उड़ै अबीर गगन तक राजे I कुंकुम रोली अंगनि छाजे I

नाचत-गावत होरिहा आवै I पानी रंग गुलाल उड़ावै I
भरि- भरि तान कबीरै गांवै I उमगि गारि बौछारैं लावैं I

दोहा छन्द
=======
बीस आंजुरी है सजी सरसिज दल अनुरूप I
रंग दशाधिक पांखुरी सज्जित कंज अनूप II

सार छन्द
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होरी होवे या मानुष का कोई परब नियारा I
बीस हाथ की गंठजोरी में रंग नीक हो प्यारा II
कौनेव हाथे कड़ा पड़ा है कौनेव पहिरे धागा I
सबै धरम के बंधन मां हैं मनुआ भी अनुरागा II

होय अबीर गुलाबी चोला औ गुलाल का रेला I
नेह बढाते हैं आपसु में ये सबु दरसन मेला II
छहर-छहर जब होय समरपन अरपन की रस गंगा I
रोक सकै तबु कौनु सरग मां उड़ता हुआ तिरंगा II
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११. आदरणीया प्रतिभा पाण्डॆय जी
दोहा छंद
=======
दस जोड़ी ये हाथ हैं ,लिए चटख से रंग
करने को तैयार हैं ,होली का हुडदंग

कितने भी हम हों जुदा, और अलग हों राग
आज यहाँ सब भूलकर , बस खेलेंगे फाग

सारे जग में है नहीं ,होली सा त्यौहार
सोचूँ ये क्यों साल में ,आता बस इक बार

टोली ले घर से निकल ,भर कर हाथ गुलाल
जो भी फिर ना ना कहे ,पहले उस पर डाल

जीवन की इस धूप में ,उत्सव होते छाँव
ये देते आराम जब ,थक जाते हैं पाँव

फीका सा मन क्यों रखा ,कर रंगों से मेल
जीवन को यूँ ना बना ,हार जीत का खेल
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१२. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
दोहा छंद
======
लाल गुलाबी पीत औ‘, लिए नील सा रंग।
नर-नारी की टोलियाँ, फिर से देखो संग।1।

विविध रंग भर नेह के, ये दस जोड़ी हाथ।
धावा मिलकर बोलदें कहते हम तुम साथ।2।

भाँग चढाकर आ गई, फिर फगुनाई धूप।
हरे-गुलाबी-बैगनी, हुए सभी के रूप।3।

नदिया पंछी पेड़ मिल, करें हास-परिहास।
मस्ती देख बसंत की, पतझड़ हुआ उदास।4।

आँखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद।
फागुन में गोरी रचे, प्रथम प्रीत के छंद।5।

दहका टेसू पीर से, यह तो झूठी बात।
मला प्रीत का रंग है, सजनी ने कल रात।6।

सावन के दिन चार तो, फागुन का भर माह।
रंगों में बस डूब ले, मत भर ठंडी आह।7।

फागुन की तहजीब ने, कर दी ढीली लाज।
इक दिन की आवारगी, करलो जीभर आज।8।

सजन दिखे जब रंग ले, छूटा मन का धीर।
लज्जा तज रंगने चली, भर पिचकारी हीर।9।

फागों की हैं मस्तियाँ, रंगों का हुड़दंग।
मौसम की मनुहार में, थिरका लो सब अंग।10।

पिचकारी में रंग जो, उसका मतलब प्यार।
ना-ना करना व्यर्थ है, सहज इसे स्वीकार।11।

छेड़े मन के तार नित, फिर फगुनाई धूप।
होली वो सद्भाव दे, जिससे उज्ज्वल रूप।12।

सेमल कुछ-कुछ बोलता, लेकिन टेसू मौन।
खेले होली गाँव सी, महानगर में कौन।13।

आँखें अपनी नम हुईं, गाँव आ गया याद।
वो होली की मस्तियाँ, वो रंगों का नाद।14।

महानगर में गाँव सा, कहाँ किसी को चाव।
बरस बरस बस खो रही, होली अपना भाव।15।

रंगों के त्योहार की, अब तो यही पुकार।
बैर, दुश्मनी, द्वेष पर, हो रंगों से वार।16।
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१३. आदरणीया राजेश कुमारी जी
दोहा गीत
========
सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर
पिचकारी के मेह में,भीगे मन का मोर

होली के सद्भाव में ,मुखड़े खिले अनेक
नीले पीले रंग से ,हो जाते सब एक

एक सूत्र में बाँधती,कई रंग की डोर
सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर

द्वेष क्लेश का त्याग ही,होली का प्रतीक
लोग भुलाकर तल्खियाँ,आ जाएँ नजदीक

ढोली ढपड़े संग में ,हुड्दंगों के शोर
सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर

उपजी मन में भावना,शुद्द पर्व की साथ
प्रेम रंग में हैं रँगे ,दस-दस जोड़ी हाथ

फीके फीके रंग ले ,कौन उड़ा चितचोर
सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर

सच्चाई की जीत हो,यही पर्व का मर्म
जलती होली में मिटें ,सबके पाप अधर्म

सच्चाई से ही बँधा ,मृत्य लोक का छोर
सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर
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१४. आदरणीय सचिन देव जी
दोहा - छंद
========
रंग-बिरंग हथेलियाँ, देती ये सन्देश
होली के हुडदंग में, डूबा सारा देश

कोई भी फीका नहीं, रंग लिये जो पीस
दस लोगों के हाथ हैं, गिनिये पूरे बीस

दुनिया में सतरंग का, होली बस त्यौहार
मन डोले जब तन पड़े, रंगों की बौछार

आज सभी के हाथ में, दिखता रंग-गुलाल
नीला-पीला साथ में, हरा-गुलाबी लाल

घड़ी हाथ में बांधकर, करने चले धमाल
गुम ना हो जाये कहीं, रखना जरा सँभाल

हाथ दिखाई दे मगर, मुखड़े हैं अनसीन
बिन देखे ये मानिये, होंगे सब रंगीन

जमकर होली खेलिये, लेकिन रखिये ध्यान
ऐसे रंग लगाइये, करें न जो नुकसान

सोचो रंग न हों अगर, कैसा हो संसार
ये सारी दुनिया लगे, रंग बिना बेकार
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१५. आदरणीय सुशील सरना जी
सार छंद
=========
छन्न पकैया छन्न पकैया गोरी हो या काली
रंग रंग में भेद मिटे सब क्या जीजा क्या साली !!१!!

छन्न पकैया छन्न पकैया आओ खेलें होली 
भांग चढ़ा कर रंग लगाती झूम रही है टोली !!२!!


छन्न पकैया छन्न पकैया होली की रुत आयी 
पीत गुलाबी लाल हुई है यौवन की अँगड़ाई !!३!!

छन्न पकैया छन्न पकैया लाज नैन की हारी 
हुए गाल अरुणाभ दिखी जो हाथों में पिचकारी !!४!!

छन्न पकैया छन्न पकैया रंग भरी पिचकारी 
टूटे रिश्ते जुड़ जाते है प्रीत बैर पे भारी !!५!!

छन्न पकैया छन्न पकैया कैसी ये लाचारी 
गीले रंगों में दिखती है भीगी सी इक नारी !!६!!

छन्न पकैया छन्न पकैया फागुन की रुत आयी 
अब गुलाल अबीर की देखो नभ तक मस्ती छायी !!७!!

(संशोधित)

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१६. आदरणीया कान्ता राय जी
सार छ्न्द
======
होली आई होली आई , रंग- रंग की माया
नीला पीला हरा गुलाबी, मेरे मन को भाया

होली आई होली आई , कैसी है ये तड़पन
फागुन में पिया बिन सखी री , कौन सुनेगा धड़कन

होली आई होली आई , मेरा प्रीतम पागल
रंग गया चुपके से आकर , बहका मेरा काजल

होली आई होली आई ,याद रही वो होली
हाथ मरोड़ी तुमने साजन , छूट गई थी झोली

होली आई होली आई, कली - कली खिल जाना
मन बसंती जोगिया मोरा , भँवरा हुआ दिवाना

होली आई होली आई ,कैसी तन रंगाई
पीत -चीर हो उठी गुलाबी , नथनी हुई पराई

होली आई होली आई , ब्रज में अजब लड़ाई
फूलों की होली भी खेली , लाठी भी बरसाई

होली आई होली आई , नटवर काला-काला
पियर -पीताम्बर राधामय , मेरा मुरली वाला

होली आई होली आई , आज अवध में होली
राम लला के सीता लल्ली , सूरत भोली-भोली

होली आई होली आई ,सद्भावों की होली
शीला संग जमीला खेले , उनकी अपनी टोली

होली आई होली आई, यह संजोग निराला
दिलवाले छक कर पीते है , शिव का आज प्याला

होली आई होली आई , छन-छन छन्न पकाई
भाँग छान कर, रस में रमकर ,सुन ली और सुनाई
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१७. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
चौपाई छन्द
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रंग अबीर लिए हाथ में, खेल रहे मस्ती की होली |
रंग अबीर दुलाल लगाती,घूम रही रसियों की टोली ||
खुशियों का त्यौहार मनाते, आकर प्रेम भाव से मिलते |
रंग बिरंगे सजे हाथ से, सब आपस में मुखड़ा रँगते ||

अलमस्त मगन है ये रसिया,सब मिल करते खूब ठिठोली |
कितनी अच्छी लगती भोली, मन मोहक रसियों की टोली ||
कुछ तो पीकर झूम रहे है, सबको कैसी मस्ती छाई |
देख मुखौटे रंग बिरंगे, पीकर मस्ती की ठण्डाई ||

देवर भाभी और सहेली, खेले भर भर कर पिचकारी |
ऐसा ये त्यौहार हमारा, आते खुशियाँ लेकर भारी ||
रंग बिरंगा मेला लगता, सबका तन मन होता चंगा |
जन जन का है प्रेम पर्व यह, लेना न किसी से पंगा ||
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१८. आदरणीय रवि शुक्ल जी
दोहा छ्न्द
======
चित्र धर दिया ताक पर उठा लिया है भाव
साथ रहूँ मैं आपके इसी बात का चाव

दिखने में तो दिख रहे अलग अलग सब रंग
लेकिन इनके मूल में नहीं किसी से जंग

लगा हुआ हो रंग तो सब कुछ है रंगीन
निज के रंग प्रसंग ही करें बात संगीन

होली का मतलब यही एक मिला सन्देश
खुशी बीच आते नही भाषा बोली वेश

मिलते सारे रंग जब दिखता रंग सफ़ेद
सार यही है , सत्य का नहीं किसी से भेद
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१९. आदरणीय प्रदीपकुमार पाण्डेय जी
सार छंद (छन्न पकैय्या)
==============
छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या ,हुडदंगों की टोली
देख लजाती भाभी भागी ,ना वो इतनी भोली 

छन्न पकैय्या छन्न पकैय्या ,जल की किल्लत भारी
खूब गुलाल लगाओ सजना ,मत भरना पिचकारी

छन्न पकैय्या छन्न पकैया ,फाग मनाने जाना
शाम ढले पर देखो सजना , झूम ,झूम मत आना

छन्न पकैया छन्न पकैय्या ,रंग जमाओ चोखा
इन रंगों को जो बाँटे मत ,उनसे खाना धोखा I
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२०. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी
सार छंद आधरित गीत
===============
आई होली आई होली, मस्ती भर कर लाई ।
झूम झूम कर बच्चे सारे, करते हैं अगुवाई ।

देखे बच्चे दीदी भैया, कैसे रंग उड़ाये ।

रंग अबीर लिये हाथों में, मुख पर मलते जाये ।
देख देख कर नाच रहे हैं, बजा बजा कर ताली ।
रंगो इनको जमकर भैया, मुखड़ा रहे न खाली ।
इक दूजे को रंग रहें हैं, दिखा दिखा चतुराई ।
आई होली आई होली.......

गली गली में बच्चे सारे, ऊधम खूब मचाये ।
हाथों में पिचकारी लेकर, किलकारी बरसाये ।।
आज बुरा ना मानों कहकर, होली होली गाते ।
जो भी आते उनके आगे, रंगों से नहलाते ।।
रंग रंग के रंग गगन पर, देखो कैसे छाई ।
आई होली आई होली.......

कान्हा के पिचका से रंगे, दादाजी की धोती ।
दादी भी तो बच ना पाई, रंग मले जब पोती ।
रंग गई दादी की साड़ी, दादाजी जब खेले ।
दादी जी खिलखिला रही अब, सारे छोड़ झमेले ।
दादा दादी नाच रहे हैं, लेकर फिर तरूणाई ।
आई होली आई होली.......
********************************
२१. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळे जी

अलग-अलग हर रंग है, जुड़े हुए पर हाथ |
हुई ऋतू रंगीन यह , पाकर सबका साथ ||

मनमोहक हर रंग है, नीला पीला लाल |
आनन रंगों या करो, तिलक किसी के भाल ||

आये चल दहलीज तक, फागुन के मृदु पाँव |
झूम उठे उल्लास से , गली नगर अरु गाँव ||

होली है उल्लास का, रंग भरा त्यौहार |
उसपर भी दिखने लगी, मँहगाई की मार ||

रंगा अम्बर गेरुआ, ऐसा किया धमाल |
राधा कोरी रह गई , हुए कन्हैया लाल ||
*************************************
२२. आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी
सार छंद
======
बसंत आया बसंत आया, रंग कितने लाया
लाल पिला हरा सिंदूरी, रंगाई है काया

बसंत आया बसंत आया, रंग देवरा लाया
मन रंगे थे पहले सबके, अब रंगाते काया

बसंत आया बसंत आया, चटक रंग अब डालो
जीवन एक महकती बगिया, फाग अब तुम गालो

बसंत आया बसंत आया, देखो टेसू फूले
लिख देती कुदरत पहले, टहनी केसर झुले

बसंत आया बसंत आया, फूले गेहूँ बाली
पीत पीत स्वर्णिम भंडार, अमलतास की डाली

बसंत आया बसंत आया, भीगी होली खेले
छोडो दुनिया की चिंता, दूर करो मन मैले
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Replies to This Discussion

जब से देर  रात  रचना  पढना मेरे लिए मुश्किल हो गया,  "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 59 " का  विशेष महत्त्व मेरे  लिए  और और बढ़ गया  आदरणीय, इस  हेतु तसंकलित  रचना  तवरित उलब्ध करे  के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका आ. सौरभ भाई  जी |  

श्रद्धेय सर।
आपके मार्गदर्शन का आभारी हूँ।आपका यह मार्गदर्शन आगामी रचना कर्म में पाथेय होगा।यह मैं समझ ही गया हूँ की किसी भी प्रकार से जल्दबाज़ी रचनाधर्मिता को बुरी तरह से प्रभावित करती है।सोशल मीडिया पर अनेकों साहित्यिक ग्रुप पनपते हुए दिख रहे हैं।इस मंच से जुड़े रचनकारों एवम् नव विद्यार्थियों को छोड़ ज्यादातर दागो और भागो अथवा चलताऊ टिप्पणियों से झूठी सराहना भी कर देते हैं।हर प्रकार से ईमानदार टिप्पणी इस सम्मान्य मंच के आलावा अन्य मंचों पर विरली ही देखने को मिलती है।
यहीं सिखने सीखाने का सच्चा दौर चलता है।
आपके मार्गदर्शन की कृपा से साभार मैने उक्त गीत को इस प्रकार से संशोधित किया है।
यदि यह नवगीत सुंदर बन पा रहा है तो वह आपके कुशल मार्गदर्शन से ऐसा होगा।यदि कोई कमी रह भी गई है तो वह मुझ अल्पज्ञ की भूल है।

प्रयास इस प्रकार निवेदित है:


==================
मैं हो गई
प्रेम दीवानी
मिलन गीत ही गाऊँ

अबतक मैंने जो देखा था
वो था झूठा सपना
मिट्टी गारे को समझा था
मैंने सबकुछ अपना

सच्चे साथी से
मिलने को
आगे बढ़ती जाऊँ

बहुत रंग फैले देखे हैं
इधर-उधर जो मैंने
उन रंगों को कैसे समझा
बिल्कुल सच्चा मैंने

मिलकर सारे रंग
एक हों
बस ये ही समझाऊँ

सागर में ही मिल जाती है
हर सरिता की धारा
अलग-अलग जो रंग मिले तो
रंग बने वो प्यारा

रंग वही प्रियतम
का मेरे
ख़ुशी-ख़ुशी बतलाऊँ।।

आदरणीय, यथा निवेदित तथा  संशोधित 

शुभ-शुभ

सादर हार्दिक आभार श्रद्धेय सौरभ सर।सादर नमन।

आदरणीय सौरभ सर होली पर्व के पूर्व चित्र से काव्य तक छंदोत्सव-59 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन के लिए आपको दिल से बधाई। संकलन में मेरे प्रयास को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार। सर अनुरोध है की निम्नानुसार संशोधित सार छंद संख्या २ तो ७ को मूल प्रस्तुति में प्रतिस्थापित कर अनुग्रहित करें। असुविधा के लिए क्षमा प्रार्थनीय है।बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


छन्न पकैया छन्न पकैया आओ खेलें होली
भांग चढ़ा कर रंग लगाती झूम रही है टोली !!२!!
छन्न पकैया छन्न पकैया होली की रुत आयी
पीत गुलाबी लाल हुई है यौवन की अँगड़ाई !!३!!

छन्न पकैया छन्न पकैया लाज नैन की हारी
हुए गाल अरुणाभ दिखी जो हाथों में पिचकारी !!४!!

छन्न पकैया छन्न पकैया रंग भरी पिचकारी
टूटे रिश्ते जुड़ जाते है प्रीत बैर पे भारी !!५!!
छन्न पकैया छन्न पकैया कैसी ये लाचारी
गीले रंगों में दिखती है भीगी सी इक नारी !!६!!

छन्न पकैया छन्न पकैया फागुन की रुत आयी
अब गुलाल अबीर की देखो नभ तक मस्ती छायी !!७!!

आदरणीय, यथा निवेदित तथा  संशोधित 

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ सर निवेदन को मान देने का हार्दिक आभार। 

आदरणीय सौरभ सर छंदोत्सव-५९ में आपने जिस प्रकार मेरा मार्गदर्शन किया उसके लिए मैं आपका दिल से आभारी हूँ। प्रयास करूंगा की कम से कम इंगित त्रुटियों की पुनरावृति न हो। उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार।



सादर धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी.

आदरणीय सौरभ भाईजी

सफल आयोजन संचालन और संकलन के लिए हृदय से बधाइयाँ शुभकामनायें

लगातार पिछले कई दिनों से तबियत ठीक न होने के बाद भी  होली मस्ती उत्साह और उमंग का त्योहार है यही ध्यान रखते हुए मैंने छंदोत्सव में  भाग लिया।

सभी प्रतिभागियों और सभी सदस्यों को होली की बधाइयाँ शुभकामनायें।

सादर

आदरणीय भाईजी, आपकी उपस्थिति ऊर्जस्वी रखती है ! शीघ्र स्वस्थ हो कर पुनः सक्रिय हों !

सादर

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी! आयोजन के सफल सञ्चालन और यथसंभव शीघ्र संकलन के लिए बधाई। मेरी रचना में आपके द्वारा लाल रंग से  चिन्हित किये गए पदांश को आपके निर्देशों के अनुकूल व्यवस्थित कर दिया है , अब क्या इसे निम्नांकित  प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है ? यदि हाँ तो संकलन में इसे इस रूप में ही स्थान देने की कृपा कीजिये। सादर आभार।  
वर्णार्घ्य दान (सारछन्द)
================
बसन्त उत्सव चली मनाने , प्रकृति   की हर डाली।
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी, कहीं टहनियाॅं खाली।
अब तक वर्णमयी दुनिया के , लक्षण मन को भाये।
अर्घ्य  वर्ण का देने को द्वय, नत करतल ललचाये।
संचित हैं ये जनम जनम से, अब मौलिकता भर लो ।
ले लो ये सब वर्ण  हमारे, वर्णहीन मन कर दो।
झोंक अग्नि में भेदभाव सब , शुक्लवर्ण यह पाया।
तम आच्छादित मेघों ने अब, नव अमृत बरसाया।
(मौलिक और अप्रकाशित)

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