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कथा में सुगना का संकल्प का निर्वहन खूब हुआ है। एक छोटी सी महज़ १३ साल की लड़की ने किस तरह अपने संकल्प को विपरीत परिस्थिति में भी बनाये रखा , सोच बहुत ही उद्द्वेलित करने वाली है यहां। सुगना से प्रभावित निष्ठां चाह कर भी मदद नहीं कर पायी। सरकारी तंत्र की रिश्वतखोरी पर करारा प्रहार हुआ है कथा में। कुल मिलकर कहे तो किस्सा तो लाज़वाब रोपित हुआ है लेकिन यहाँ यह एक कहानी लेखन का सन्दर्भ हो गया है। जैसा की आपको मालूम है आदरणीय शहज़ाद जी कि लघुकथा क्षण विशेष को कहने की विधा है ,और
***इसी सन्दर्भ में सर जी अपने आलेख "लघुकथा : तेवर और कलेवर" - में कहते है कि लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में "लघु" है और उसमे "कथा" तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। जिस प्रकार उपन्यास खुली आँखों से देखी गई घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या कई घटनाओं का वर्णन होती है। इसके विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति के एक विशेष और महीन से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है।---- किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाईलाइट करने का नाम ही लघुकथा है।लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंग देख-गिन लेने की कला का नाम है। स्थूल में सूक्ष्म ढूँढ लेने की कला ही लघुकथा है। भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हँसी को साफ़ साफ़ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूँढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।***
यहां कथा में आपने एक क्षण विशेष को कहने में कई क्षण विशेष समेट लिए है यानी
//अपने नौ साल के भाई और अस्सी साल की दादी की परवरिश //---
// प्रशासन के आगे कई बार मदद की गुहार और सुनवाई का न होना //--- ,
//तुम भी फिर से अपनी पढ़ाई शुरू करोगी ! मैं तुम्हें सरकारी मदद दिलवाऊंगी ! " - निष्ठा का आश्वासन //---
//टाला-मटोली और रिश्वतख़ोरी की असली तस्वीर//----
//शासन के लुभावने प्रकल्प और लचर भ्रष्ट व्यवस्था का जिक्र //--
// सुगना के सामने निष्ठां का बोना महसूस करने का क्षण //--
//निष्ठा के उस संकल्प की हार //----- कितना कुछ समेटने की कोशिश की है आपने एक लघुकथा में जो की विधा के मानकों पर सही नहीं है जरा भी।
" कथा में क्या कहना है " इसका भटकाव साफ़ -साफ़ इंगित हो रहा है यहां।
उम्मीद करती हूँ की इस विवेचना के बाद आप सम्पूर्ण तरह से चीजों को समझ पाएंगे कि कैसे और कहाँ आपकी लघुकथा बोझिल हुई है।आपने प्रयास किया जो सराहनीय है। सादर।
हमारे ख्याल से एक बात को लेकर ही तुलना दिखाइए ....वैसे हम कौन सा करते हैं ख्यालो के साथ उड़ते जाते हैं |
आपके इस विवेचना से मार्गदर्शन हमको भी मिला दी ..आभार
सरकारी दांव पेंच ,और उसमेपिसता आम आदमी ,कब बदलेगी ये तस्वीर ? सार्थक लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय उस्मानी जी
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी!बेहतरीन लघुकथा !समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करती सशक्त प्रस्तुति!पुनः बधाई!
आदरणीय भाई जी, मैं यहां आदरणीय योगराज सर की बात से बिल्कुल सहमत हूं। आपने कथानक तो अच्छा चुना परन्तु इसकी पेशकारी में कमी रह गई जिससे रचना सम्प्रेषणीय नहीं बन पाई । आदरणीय कांता जी ने जिन बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है वह भी विचारणीय है । आपकी यह कथा अनावश्यक विस्तार का भी शिकार हो गई है जैसे - कथा में निष्ठा चरित्र के होने या ना होने से कोई अंतर नहीं आता। सुगना की मां 'जमुनाबाई' और पिता 'रामदास' की जगह 'गंगाबाई' या 'लक्ष्मणप्रसाद' होते तो क्या फर्क पड़ता। नौ साल के भाई की कक्षा और सरकारी स्कूल का जिक्र भी अनावश्यक है। लघुकथा में कम परन्तु संतुलित शब्दों का चयन ही करना चाहिए। एक जगह शरतचंद्र जी ने नारी के सौन्दर्य का वर्णन यों किया है- 'यौवन जैसे इसके शरीर में ठहर गया था।' क्या यह एक पंक्ित उन वृहदाकारी ग्रंथों से ज्यादा प्रभावशाली नहीं है जो नारी के सौंदर्य बखान में लिखे गएं है। लघुकथा का सबसे अहम वैशिष्ट्य उसकी अभिव्यक्ित क्षमता है जो थोड़े में बहुत कुछ कहने में सक्ष्ाम है। जैसे आभूषणों के अन्तर्गत नाक की नथ में अन्य नगों के साथ जड़ा हुआ कोई छोटा नग अपना अलग से उतना प्रभाव नहीं देता जितना कि वह नाक की ही किसी लौंग या कील में जडा जाकर देता है। नाक की लौंग आकार में बहुत छोटी होती है वह अपने नग के अनुपात के सापेक्ष गढ़ी जाती है अत अपने अनुरूप दायरे में वह नग प्रखर प्रभावयुक्त बन जाता है जबकि नथ के बड़े दायरे में अन्य नगों के मध्य वह अपनी स्वतन्त्र पहचान देने में असमर्थ रहता है । सो अनावश्यक विस्तार से सूक्ष्म कथ्य अपना स्वतंत्र प्रभाव खो देते हैं जबकि इन्ही सूक्ष्म कथ्यों के सयंमता से प्रयोग से लघुकथा सघन व प्रभावशाली बनती है। सादर
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