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महा-उत्सव अंक - 30 की संकलित सभी प्रविष्टियाँ

सुधीजनो,

दिनांक - 08 अप्रैल’ 13 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक -30 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. रचनाओं का प्रस्तुतिकरण रचनाकारों के नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार हुआ है. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक शिशु/बाल-रचना था. आयोजन में कुल तैंतीस प्रतिभागियों की कुल 63 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं. रचनाकारों के नाम तथा उनकी कुल प्रविष्टियों की संख्या नीचे उद्धृत है. जिन रचनाओं को बाल-रचना के तौर पर मान्यता नहीं मिली है उन रचनाओं का फ़ॉण्ट कलर नीला रखा गया है. यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आशातीत सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

इस बार के संकलन का यह महती कार्य ओबीओ की प्रबन्धन-समिति की सदस्या आदरणीया डॉ. प्राची सिंह के अथक सहयोग के कारण संभव हो पाया है.

सादर

सौरभ पाण्डेय

संचालक

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

 

कुल 63 प्रविष्टियाँ

सर्वश्री अनवर सुहैल  - 1

अमित मिश्र  - 2

अमितभ त्रिपथी - 1

अरुण कुमार निगम - 2

अरुण शर्मा अनन्त - 2

अशोक कुमार रक्ताले - 3

आशीष नैथानी सलिल - 1

कुन्ती मुखर्जी - 1

कुमार गौरव अजीतेन्दु - 2

केवल प्रसाद - 3

गणेश बाग़ी - 1

गीतिका वेदिका - 3

ज्योर्तिमय पन्त - 1

दिनेश ध्यानी - 3

परवीन मल्लिक - 1

प्रदीप कुमार कुशवाहा - 3

प्राची सिंह - 1

बृजेश कुमार - 3

राजेश कुमारी - 3

राम शिरोमणि पाठक - 3

लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला - 3

वन्दना तिवारी - 1

विजया श्री - 2

विंध्य्श्वरी प्रसाद त्रिपाठी विनय - 2

शालिनी कौशिक - 1

शिखा कौशिक - 3

सीमा अग्रवाल - 1

सतीश मापतपुरी - 1

सत्यनारायण शिवराम सिंह - 2

सरोज गुप्ता - 1

सौरभ पाण्डेय - 1

एसके चौधरी - 3

संदीप कुमार पटेल दीप – 2

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अनवर सुहेल जी

बाल-रचना

पूछा बिटिया ने पापा से

क्या हम सब इस घर में

बिन टी वी के रह सकते हैं

पापा बोले- न न न न !

धिन-धिन ता न, धिन-धिन ता न....

पूछा बिटिया ने मम्मी से

क्या हम सब इस घर में

मोबाइल बिन रह सकते हैं

मम्मी बोली- न न न न

धिन-धिन ता न, धिन-धिन ता न....

 *

पूछा बिटिया ने फिर खुद से

क्या खुद वो भी  इस घर में

टी वी और मोबाइल बिन

जी सकती है...रह सकती है

खुद ही खुद पर उत्तर फेंका

न न न न, न न न न...

 *

बोले दादाजी पोती से

दूर रही उससे हर बाधा

जिसने वर्तमान को साधा

जीवन में गर है कुछ पाना

तो छोडो यूं समय गँवाना

धिन-धिन ता न....

धिन-धिन ता न....

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अमित मिश्र जी

1.

हम बच्चे

कौन कहता है हम शैतान हैं ?
हम तो सादगी की पहचान हैं
पी के दूध, खा के मक्खन, बादाम
नन्हें-मुन्हें, पर बलवान हैं

भोलेपन का सागर, संगम हैं
ज्ञान-विज्ञान का लहराता परचम हैं
हराना सीखा है हर संकट को
विषम परिस्थिती में भी सम हैं

मत समझो हम नादान हैं
नहीं दुनियाँ से अंजान हैं
छल, कपट, लोभ, मोह, द्वेष रहित
वेदों में लिखा, हम भगवान हैं

हम गीता, पुराण, कुरान हैं
मुल्क पे कुर्बान, सच्चे संतान हैं
हर कौम, हर कुनबा मेरा है
सब साथ मिले तो हिन्दुस्तान हैं

2.

इक बात बता दे

माँ, मुझे इक बात बता दे
सपने कहाँ से आते है ?
रात भर तारे जगमग करते
सुवह होते क्यों छुप जाते है ?

गर्मी में क्यों तपती धरती ?
जाड़े में सब जम जाते हैं
हमे चाहिये जब-जब पानी
वो क्यों ओले बरसाते हैं ?

हम खाते हैं चावल-रोटी
पशु, पशुओं को क्यो खाते हैं ?
मानव हीं फोड़े बम और गोली
क्ये वो यही उपजाते हैं ?

बेटा, यह कराने बाला भगवान हैं
बिन मरजी हवा न बह पायेगी
इसलिए करते नमन हम इन्सान हैं
कुछ कृपा हम पे भी बन जायेगी

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अमिताभ त्रिपाठी अमित जी

बाल गीत

चींटी रानी, नई कार में
निकल गईं बाज़ार में
ट्रैफिक देख पसीना छूटा
घण्टों रहीं क़तार में

 

चींटा हवलदार नें पूछा
कहाँ है डी.एल. रानी जी 
रानी ने जब पर्स तलाशा
हुई बहुत हैरानी जी

 

मेक‍अप करने के चक्कर में
डी.एल. घर में छूट गया
इन्स्पेक्टर भी आ पहुँचा
अब शेष भरोसा टूट गया

 

गाड़ी का चालान कट गया
बात न कोई मानी जी
आँखों में आँसू रानी के
रानी हुई सयानी जी

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अरुण कुमार निगम जी

1.

बाल-रचना

अहा ! बालपन, बहुत निराला |

सीधा – सादा, भोला - भाला ||

 

प्यास लगे तो मम-मम बोले

भूख लगे चिल्लावे , रो ले

मातु यशोदा के सीने लग

चुप हो सो जाता नंदलाला |

 

तुतली बोली , समझे मैया

रात-दिवस की ता ता थैया

जिद तो देखो अरे बाप रे !

मांग रहा चंदा का हाला ||

 

इसको खींचे, उसको पटके

बड़े नाज-नखरे नटखट के

तुलमुल-तुलमुल करता रहता

कैसे जाए इसे सम्हाला ||

 

पलभर में ही मी हो जाता

पलभर में ही खी हो जाता

उसका अपना शब्दकोश है

और व्याकरण मस्तीवाला ||

 

2.

बाल-गीत

ढम्म लला, ढम्म लला
ढम ढम ढम ढम
झूम झूम नाचूँ मैं
छम छम छम छम ||

गड़ गड़ गड़, गरड़ गरड़
बदरा करे
रिमझिम रस बरसाता
सावन झरे
बिजुरी भी चमक रही
चम चम चम चम ||

सर सर सर, सरर सरर
बहती हवा
दे सबको शीतलता
कहती हवा
तरुवर भी झूम रहे
झम्मक झम झम ||

फड़ फड़ फड़, फड़क फड़क
नाच रहे मोर
दादुर पपीहे भी
करते हैं शोर
खेल नहीं वसुधा से
थम थम थम थम ||

जल जल जल, जाये ना
धरती कहीं
पानी बचाओ, वन
काटो नहीं
भटक भटक जाये ना
सुंदर मौसम ||

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अरुण शर्मा अनंत जी

1.

'मत्तगयन्द' सवैया

नाच नचाय रहा सबको हर ओर चलाय रहा मनमानी,

चूम ललाट रही जननी जब बोल रहा वह तोतल बानी,

धूल भरे तन माटि चखे चुपचाप लखे मुसकान सयानी,

रूप स्वरुप निहार रही सब भूल गयी यह लाल दिवानी...

 

2.

बाल-रचना

मुझको नहीं होना बड़ा - वड़ा
पैरों पर अपने खड़ा - वड़ा 
मैं बच्चा - बच्चा अच्छा हूँ ।

गोदी में सोने की हसरत मेरे जीवन से जाएगी,
माँ अपनी मीठी वाणी से लोरी भी नहीं सुनाएगी,

अच्छा है उम्र में कच्चा हूँ ।
मैं बच्चा - बच्चा अच्छा हूँ ।।

मैं फूलों संग मुस्काता हूँ, मैं कोयल के संग गाता हूँ,
चिड़िया रानी संग यारी है, मुझको लगती ये प्यारी है,

मैं मित्र सभी का सच्चा हूँ ।
मैं बच्चा - बच्चा अच्छा हूँ ।।

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अशोक कुमार रक्ताले जी

1.

गरमी के दिन छत पे बिस्तर,

बोला चुन्नू माँ से हंसकर,

माँ वो देखो चंदा प्यारा

लगता जैसे गोल गुब्बारा,

हाथ से किसके धागा छूटा?

कभी कभी क्यों लगता फूटा?

 

बतलाओं ना क्या ये तारे,

भरे हुए थे उसमे सारे?

माँ की उलझन पड़ी दिखाई

बोली.. चंदा मेरा भाई,

चुन्नू बोला चंदामामा?

चंदामामा! चंदामामा!

 

दूर गगन में क्या करते हो?

बोलो क्या माँ से डरते हो?

मुझको अपनी पीठ बिठाओ,

सारे जग की सैर कराओ,

लगी आँख और चुन्नू सोया,

मीठे सपनों में था खोया |

 2.

बाल-कुण्डलिया

 

अंतिम पर्चा क्या हुआ, गए पढाई भूल,

बच्चे अब मस्ती करें, लो भूल गए स्कूल ||

लो भूल गए स्कूल, कम्प्युटर से जा चिपके,

फेसबुकी सब मित्र, अपने-अपने लपके,

गपशप अब दिन रात, करें लाइक कुछ चर्चा,

लगते इतने व्यस्त, नहीं थे अंतिम पर्चा ||

 

नाना-नानी व्यस्त हैं, छोड़ छाड़ सब काम,

नाती की सेवा करें, तनिक नहीं आराम,

तनिक नहीं आराम, नित्य पकवान बनाएं,

खुद नहि खाएं एक, नतेडों को खिलवाएं,

हों उधमी शैतान, पिलायें सबको पानी,

फिरभी हर जिद पूर्ण, करें सब नाना-नानी ||

 

3.

मुक्तक

सभी को खिल खिलाता था, वो बचपन याद अब आये,

खिलौने खेल खेले थे, वही तो याद सब आयें,

मगर मैं जागता हूँ पल को भी तब सो नहीं पाता,

बचाने तन को ओढ़े थे, कफ़न वो याद जब आये |

 

नहीं माँ बाप को देखा, न उनके प्यार को जाना,

अकेले ही रहा मैं तो, तभी संसार को जाना,

जहां रोटी मिली भरपेट तो उसका हुआ समझो,

बिछा गत्ते सदा सोया, नहीं घर बार को जाना |

 

उड़ाते नींद मेरी हैं, वो दिन जब याद आते हैं,

वही बेखोफ से चेहरे, मुझे अब भी डराते हैं,

किया संघर्ष हरपल को, तभी बीता मेरा बचपन,

कई मासूम ये जीवन यहाँ अब भी बिताते हैं |

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आशीष नैथानी सलिल जी

बाल- दोहे

कपड़ों पर मिट्टी लगी, माथे पर है धूल

ये कीचड पैदा करे, एक कमल का फूल ।

 

बिटिया की चोटी बँधी, और हुई तैयार

विद्या का अर्जन करे, शिक्षित हो परिवार ।

 

बस्ता बाँधा पीठ पर, होंठों पर रख शोर

बाल-कदम बढ़ने लगे, विद्यालय की ओर ।

 

हिन्दी-अंग्रेजी पढ़ें और पढ़ें इतिहास

पर पढना मत भूलिए आपस में विश्वास ।

 

कलम चली पहले पहल, हाथ हो गए स्याह

करत-करत अभ्यास से, सुलझेगी हर राह ।

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 कुंती मुखर्जी जी

बाल-रचना

फूल गुलाब के
बचपन में लगाया था 
एक बाग छोटा, गुलाब का -
कड़ी धूप से उसे बचाती, 
देती उसे पत्तों की छाया.

प्रकृति भी थी मेहरबान 
रिमझिम पानी बरसा देती - 
पौधे थे मस्त हो झूमते,
हवा भी हौले हौले बहती.

कलियाँ आयी छ्ह महीने में
उन पर अटक गयी थी आँखें -
रुपहले ओस की बूँदें लेकर,
खुलने लगी थी उनकी पाँखें.

लाल पीले और सफ़ेद गुलाब
एक एक कर खिलने लगे -
फेफड़े भर मैं सुगंध लेती,
मेहनत मेरी रंग लाने लगे.

पर मेरा था एक पड़ोसी
रोज़ देखता बगिया मेरी -
घुसा एक दिन बाग में चुपके, 
तोड़ लिया फूल चोरी चोरी.

देख मुझको उदास, माँ ने
कहा ‘’ पूजा के लिये है तोड़ा ”,
फूल से भगवान और मुझमें
एक रहस्यमय नाता जोड़ा.

भोली भाली मैं मन की  ठहरी
पड़ोसी को नित्य फूल देती -
सुबह आकर वह चुन ले जाता,
पौधों को मैं पानी देती.

मैं खुश थी फूल देकर,
प्रकृति ने देखी मनमानी -
बारिश के बौछारों के बीच,
लिख दी उसने नयी कहानी.

उस दिन भी वह आया था, जैसे
नियमित फूल चुनने आता -
यह तो बस संयोग ही था
कि भूल गया वह अपना छाता.

देने छाता उसको वापस
जब मैं गयी पड़ोसी के घर -
देखा वह तो रौंद रहा था,
फूलों को, विकट अट्टहास कर.

अगले दिन वह फिर से आया
'' आज शिव पूजन है बेटा '' -
इस बार वह सच कह रहा, 
पूजा उसका था इरादा.

यह अजीब सी बात थी 
बाग में एक भी फूल न था -
कुछ इंसान की कुदृष्टि से,
कुछ बरसात से बिखरा था .

उसकी थी विस्फारित आँखें
मैंने उसको ताने मारे -
‘ जिन फूलों को रौंदा जाता,
वे ऐसे ही स्वर्ग को जाते ‘.

उसके मुँह से बोल न फूटा
खड़ा रहा वैसा ही जड़्वत -
कहने लगा “ माफ़ करोगी,
या फिर मैं करूँ दण्डवत “.

“ मन में द्वेष भाव था मेरे
देख तुम्हारा सुंदर कानन -
ईर्ष्या की आग में जलकर,
ख़ाक हुआ मेरा अंतर्मन ”

इतना कहकर उस पड़ोसी ने
किया बस करजोड़ निवेदन -
‘ ईश्वर का आशीष हो तुम पर,
प्रेममय हो तुम्हारा जीवन ‘

अभिभूत हो उठी पल भर में
चंचल हुआ अबोध शिशु मन -
क्षमा किया पड़ोसी को मैंने,
धन्य हो गया मेरा जीवन.
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 कुमार गौरव अजीतेंदु जी

1.

कह-मुकरियाँ

(1)
जो चाहोगे दिलवाएगी,
काम हमेशा ये आएगी।
खिलवाएगी खूब मिठाई,
क्या वो परियाँ? नहीं "पढ़ाई"॥

(2)
सबसे अच्छी दोस्त तुम्हारी,
बात बताती प्यारी-प्यारी।
देती हरदम सही जवाब,
क्या वो मीना? नहीं "किताब"॥

(3)
डरना कभी न जिसने जाना,
हमने-तुमने "हीरो" माना।
भागा जिनके डर से पाजी,
स्पाइडरमैन? नहीं "शिवाजी"॥

(4)
भारत को वो जीत दिलाते,
दुनिया में लोहा मनवाते।
दुश्मन कहते जिन्हें "तबाही",
धोनी, वीरू? नहीं "सिपाही"॥

(5)
खेल हमारा जाना-माना,
गाँव-गाँव जाता पहचाना।
जिसमें हमसे सभी फिसड्डी,
क्या वो क्रिकेट? नहीं "कबड्डी"॥

(6)
बड़े-बड़ों को दे पटकनिया,
उसके आगे झुकती दुनिया।
जीते हरदम वही लड़ाई,
अंडरटेकर? नहिं "चतुराई"॥

 2.

बाल-दोहे - होता उल्टे काम का, गलत सदा परिणाम

 

मटकू गदहा आलसी, सोता था दिन-रात।
समझाते सब ही उसे, नहीं समझता बात॥
मिलता कोई काम तो, छुप जाता झट भाग।
खाता सबके खेत से, चुरा-चुरा कर साग॥
बीवी लाती थी कमा, पड़ा उड़ाता मौज।
बैठाये रखता सदा, लफंदरों की फौज॥
इक दिन का किस्सा सुनो, बीवी थी बाजार।
मटकू था घर में पड़ा, आदत से लाचार॥
जुटा रखी थी आज भी, उसने अपनी टीम।
खिला रहा था मुफ्त में, दूध-मलाई, क्रीम॥
उसके सारे दोस्त थे, छँटे हुए बदमाश।
खेल रहे थे बैठ के, चालाकी से ताश॥
मौका बढ़िया ताड़ के, चली उन्होंने चाल।
मटकू को लड्डू दिया, नशा जरा सा डाल॥
जैसे ही मटकू गिरा, सुध-बुध खो बेहोश।
शैतानों पर चढ़ गया, शैतानी का जोश॥
सारे ताले तोड़ के, पूरे घर को लूट।
बोरी में कसके सभी, लिये फटाफट फूट॥
बीवी आई लौट के, देखा घर का हाल।
रो-रो के उसका हुआ, हाल बड़ा बेहाल॥
मटकू को ला होश में, बतला के सब बात।
मारी उसको खींच के, पिछवाड़े पर लात॥
मटकू भी रोने लगा, पकड़-पकड़ के कान।
नहीं दिखाऊंगा कभी, ऐसी झूठी शान॥
सीख लिया मैंने सबक, पड़ा चुकाना दाम।
होता उल्टे काम का, गलत सदा परिणाम॥

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केवल प्रसाद जी

1.

चम्पक चाचा!!

चंपक चाचा चाक चलाते।
चंदा मामा राह दिखाते।।
तरह तरह के बने खिलौने।
चांदनी से उजले बौने।।
सूरज दादा दिखे सबेरे।
तरह तरह के रंग बिखेरे।।
दुनिया का मेला जब आया।
बच्चों का मन भी हरषाया।।

 

2.

सूरज

सूरज तुम कितने कायर हो, सर्दी देख छिप जाते हो।

यूं तो चिटकाते फिरते खेत, भाते न तनिक दिखते जेठ।

अपनी गर्मी से जलते हो, औ बादल देख छिप जाते हो।।सूरज......

फिर भी तपन चिलकाती है, घमघम घमौरी निकलती है।
तुम जरा सी राहत पाने को, सात समुन्दरों मे नहाते हो।।सूरज....

यूं तो निकलते सुबह पांच, जाड़े में ढक कर सोते माथ।
सर-सर सर्दी में ठरते हो, औ कुहासों से भी शर्माते हो।।सूरज.....

यूं बिना नाश्ता-भोजन के, तुम दूर-दूर तक जाते हो।
औ तनिक सी ठण्डक खाकर, कई दिन लिहाफ मे सोते हो।।सूरज...

फूलें सरसों, लहलहाये गेहॅू, तुमको इसकी परवाह नही।
ज्यों शिशिर मास झूमें मस्ती में, तब आंखें दिखलातें हो।।सूरज....

 3.

इशान
इशान था इक छोटा बच्चा।
बड़ा मेहनती बाल सच्चा।।
रोज सबेरे उठ जाता था।
समय पर वो स्कूल जाता था।। 
नहीं अक्ल का था वह कच्चा।
बड़ो - बड़ो को देता गच्चा।।
इक दिन देखा अजनबी आया!
साइकिल में रख टिफिन लाया।।
बोला इशान बेटा आओ।
चाकलेट सब खा जाओ।।
अंकल थोड़ा सा रूक जाओ।
मेरे दोस्त को भी खिलाओ।।
दौड़कर टीचर को बताया।
टीचर ने झट पुलिस बुलाया।।
एक आतंकी पकड़वाया।
साहस का तमगा फिर पाया।!

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गणेश बागीजी

बाल-रचना

प्यारे पापा अच्छे पापा, 
परियों का घर दिखलाओ ना |

रंग बिरंगे वन उपवन में,
मुझको तुम सैर कराओ ना |

 

फूलों से है बातें करनी,
तितलियों के संग उड़ना है
चिड़ियों से कॉपी लिखवाऊँ
कुछ ऐसी जुगत लगाओं ना । 

प्यारे पापा अच्छे पापा, 
परियों का घर दिखलाओ ना |

 

बादल में मैं छुप जाऊँगी,
परियों से जादू सीखूँगी,
टॉफी की बारिश हो जाये,
जादू की छड़ी दिलाओ ना । 
प्यारे पापा अच्छे पापा, 
परियों का घर दिखलाओ ना |

 

चन्दा पर झूला झूलूँगी, 
तारों से लूडो खेलूंगी,
नींद आ रही जोरों की अब,
लोरी तुम जल्द सुनाओ ना ।

प्यारे पापा अच्छे पापा, 
परियों का घर दिखलाओ ना |

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गीतिका वेदिका जी

1.

"छोटा भैया घर आया"

आहा! आहा! अहा! अहा!

गीतू वेदू मन हरषाया

बोलूँ बोलूँ बोलूँ क्या

छोटा भईया घर आया

 

मोटू मोटू गोरा गोरा

लाल गुलाल गाल प्यारे

नजर अभी न ठहरा पाता

चंचल नैना कजरारे

 

बाकी तो सब अच्छा

लेकिन एक है बात नयी

भैया दिन भर सबका राजा

मम्मी मुझको भूल गयी

 

पापा ने समझाया 'वेदू'

दीदी बन फुलझड़ी हो गयी

भईया प्यारा तुम भी प्यारी

उस दिन से मै बड़ी हो गयी

2.

हम सबकी प्यारी मम्मी 

सुबहा से जल्दी उठ जाती 
और काम में है जुट जाती ....हम सबकी प्यारी मम्मी 

चौका, बर्तन, पानी भरती 
नाश्ते की तयारी करती   ....हम सबकी प्यारी मम्मी 

टिफिन बनाती है सबको 
करती स्कूल रवाना 
पापा को दफ्तर भेजा 
आखिर में खाती खाना   .....हम सबकी प्यारी मम्मी 

शाम लौट हम घर में आते 
माँ को काम में उलझा पाते 
स्वागत करती है मुस्काती 
हम सबको वह चाय बनाती  ...हम सबकी प्यारी मम्मी 

सँझा की तैयारी करती 
तुलसीदल में दियला धरती 
आपका दिन कैसा है गुजरा 
फिर सबसे है पूछा करती    .....हम सबकी प्यारी मम्मी 

हम खेलें और टीवी देखें 
रात का खाना माँ की ड्यूटी 
फिर मुस्काती 'खाना खा लें' 
थकी नही वह, कभी न रूठी    ...हम सबकी प्यारी मम्मी 

खाकर हम सोने को जाते 
तब भी मम्मी खटपट करती 
सोने की तैयारी करना 
काम ख़त्म वह झटपट करती ...हम सबकी प्यारी मम्मी 

कब कहती गहने बनवा दो 
नकली मंगलसूत्र पहन के 
मेरे बच्चे, सच्चा हीरा  
गर्व से कहती रहती तन के    ...हम सबकी प्यारी मम्मी 

कब हम उनका हाथ बटाते 
खेल-कूदते, पढ़ते, खाते  
क्यों न माँ की मदद करा लें 
माँ से कह दें 'वे सुस्ता ले'   .....हम सबकी प्यारी मम्मी

 3.

अलबेला बचपन कैसे गुजर गया  

भीग गया बारिश में ये तन 
हर पल हो जैसे मधुवन  
न सुलझन न कोई उलझन 
न विचार न कोई चितवन 
मीत मेरा अलबेला बचपन ...........कैसे गुजर गया 

सूरज की किरने अलबेली 
बौछारें थी मेरी सहेली 
हर जिज्ञासा एक पहेली 
नैया बहती मगर अकेली 
कैसी होगी भोर नवेली 
इक उडान  मैंने भी ले ली 
तुतलाती बोली का जादू ...............जाने किधर गया 

मीत मेरा अलबेला बचपन .............कैसे गुजर गया 

सुन्दरता से दूर रही 
नुपुर छमछम बजी नही
चिल्लाकर हर बात कही
क्या होता है गलत सही 
मै बचपन बचपना यही 
अब भी मै 'वेदिका' वही
फिर भी क्यों लगता है कुछ .............टूटा बिखर गया  
  
मीत मेरा अलबेला बचपन ...............कैसे गुजर गया

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ज्योतिर्मयी पन्त जी

हाइकू

कोरा कागज़ 
बच्चों का भोला मन 
अमिट  छाप .

 २

जादू की छड़ी 
सोने चाँदी  महल 
उडती परी .

परी  कथाएँ
नानी दादी सुनाएँ 
मन लुभाएँ .

बच्चों की प्रीति
न ऊँच -नीच  रीति 
सच की नीति .

बच्चों का साथ 
सिखाता . सच्चे पाठ
निश्च्छल प्रेम

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दिनेश ध्यानी जी

1

मुझे मत मारो

मुझे भी देखने दो

स्वपनिल आकाश 

खुली धरती

उगता सूरज

छिटकी चाँदनी 

ऋतु परिवर्तन

वसंत बहार

मुझे भी जग में आने दो।

होने दो मुझे परिचित

जगत की आबोहवा से

जिन्दगी की धूप छांव से

जीने के अहसास से।

लेना चाहती हूँ  सांस

मै भी खुली हवा में,

पंछियों की चहचहाट 

और हवा की सनसनाहट में।

देना चाहती हूँ  आकार 

मैं अधबुने सपनों को,

ख्वाबों और खयालों को

उड़ना चाहती हूँ 

अनन्त आकाश में

पंछियों की मानिंद

बहना चाहती हूँ 

हवा की  भांति ।

मुझे मत मारो

माँ , बाबू जी

दादा जी, दादी जी

आने दो

मुझे इस संसार में

जी लेने दो 

मेरा जीवन।

गिड़गिड़ा रही थी 

एक लड़की 

जब की जा रही थी

उसकी भ्रूण  हत्या 

अपनों के द्वारा।

2.

मेरी बहना

 

मेरी बहना का क्या कहना

माने नहीं किसी का कहना

उलठ-पुलट सब कर जाती 

जब वह गुस्से में है आती 

उसका गुस्सा पड़ता सहना

मेरी बहना का क्या कहना।

छोटे-छोटे उसके कर हैं

पांवों में जैसे उसके पर हैं।

सरपट आंगन में आ जाती

आते-जाते हमें बुलाती

सबकी आंखों का है गहना

मेरी बहना का क्या कहना।

जब भी उसको भूख सताती

मां-मां कहकर वों चिल्लाती

जब मां खेतों से आ जाती

मां की छाती से लग जाती

गोदी  में रहने को करती बहाना

मेरी बहना का क्या कहना।

अक्सर काम उलट वह जाती

मां, दादी का खूब सताती

उछल कूछ दिनभर वो करती

दिनभर भारी जिद वो करती

माने नही किसी का कहना

मेरी बहना का क्या कहना।।


3.

मत रो मुन्नी

मत रो मुन्नी क्यों रोती है

सुन्दर मोती क्यों खोती है

देखो सब बच्चे आये हैं

पढ़ने लिखने ये आये हैं।

तुम भी पढ़ लिख जब जाओगी

तुम भी मैड़म बन जाओगी

सबको पढ़ना ही पड़ता है

स्कूल भी जाना पड़ता है

मां की चाहे याद सताये

चाहे कुछ हो पर पढ़ना है

यह जीवन में गढ़ना है

तभी तो कुछ जग में पायेंगे

हम भी कुछ तब बन जायेंगे।

जीवन इतना सरल नही है

आगे बढ़ना तो है पढ़ना

इसीलिए कहता हूं सुन लो

पाटी बस्ता हाथ में ले लो

चलो चलें स्कूल को जायें

आओ मुन्नी तुम भी आओ।।

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परवीन मलिक जी

एक दिन जब मैं बड़ा हो जाऊँगा 

माँ की आँखों की रौशनी बन जाऊँगा 

 

पिता जी की लाठी का सहारा बन जाऊँगा 

बन श्रवण कुमार माँ बाप की सेवा करूँगा !

 

एक दिन जब मैं बड़ा हो जाऊँगा 

देश का एक अच्छा नागरिक बनूँगा 

 

अपनी वोट का इस्तेमाल करूँगा 

देश के लिए अच्छा नेता चुनूँगा !

 

एक दिन जब मैं बड़ा हो जाऊँगा 

देश की खातिर जान भी लगाऊँगा   

 

देश से भूख - गरीबी को मिटाऊँगा 

अपनी संस्कृति का परचम लहराऊँगा !

 

एक दिन जब मैं बड़ा हो जाऊँगा

क्या मैं अभी जो देश की सोचता हूँ 

 

बड़ा होकर भी उसे पूरा कर पाऊँगा ?

क्या मैं एक दिन  जब बड़ा हो जाऊँगा  

 

तब मैं क्या आज की तरह सोच पाउँगा ?

*********************************************************

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी

 1.

बचपन

देखूं मेरा बचपन कैसा था

जैसा आज हूँ  वैसा था क्या .

हाँ पर शायद नहीं

मैं भी अपवाद नहीं

लौट अतीत के पन्नों में

उन शब्दों को ढूढता हूँ

जिनसे बने वाक्य

फिर एक सुदर रचना

उसका ही  प्रति रूप मैं

आज चाहता हूँ बचना

परिवर्तन की अंधी दौड़

राह कठिन अंधे मोड़

तार तार होती संस्क्रति

मौन देखते हैं विक्रति

जीवन जिया न जाए

काश वाक्य टूट जाये

शब्द बन लौट चलूँ

वापस बचपन में

देखूं मेरा बचपन कैसा था

जीता  हूँ आज मैं  जैसे

वो  दिन भी क्या  ऐसा था.

 2.

अपना बचपन

जेठ की दुपहरिया  में

नागिन सी काली सड़क

नन्हें नन्हे दो पाँव

मंजिल की तलाश में

राह में पड़े  पत्थर

हरेक  ठोकर पर

मंजिल है कहीं और

का निशान  देते हैं

बढ़ जाते है कदम

टपकते लहू के साथ

आने वालों के लिए

राह नयी दिखाते हैं

क्वार की धूप से

आबनूस हुआ तन

पावस की बरखा से

धुलता हुआ बदन

पूस माघ कड़क ठण्ड

चलती शीतल पवन

नहीं करती विचलित

पग आगे बढते जाते हैं

माँ का तार तार आँचल

अम्बर और धरा मध्य

जीवन है यही क्या

का एहसास कराते  हैं

हर दिन सवेरे शाम

बचपन था यहीं कहीं

कूड़े के ढेर में

ढूँढने जाते हैं

अपना  बचपन

3.

बन्दर  और घड़ियाल

बन्दर  और घड़ियाल की 

कथा बहुत पुरानी 

बचपन में रोज सुनाते  

मुझको  नाना नानी 

नदी किनारे पेड पर 

रहता था एक बन्दर 

उचल कूद खूब मचाता 

समझे अपने को सिकंदर 

घड़ियाल उसका दोस्त पुराना 

गहरी थी उनकी यारी 

प्रतीक्षा में रहता बन्दर 

नदी पार जाने की कर तैयारी 

बीच नदी घड़ियाल पीठ पर 

बन्दर रोज था नहाता 

बदले में घड़ियाल लौट किनारे 

मीठे फल था खाता 

बीत रहा था समय यूँ ही 

बीते दिन कई घड़ियाल न आया 

अनहोनी सोच मन ही मन  

बन्दर बहुत घबराया 

बैठा चिंता मगन बन्दर

तभी घड़ियाल नजर आया 

कूदा डाल  से दौड़ा बन्दर  

झट उसको गले लगाया 

आओ बैठो  पीठ पर 

तुमको सैर कराऊँ 

कहाँ रहा इतने दिन 

फिर सारी बात बताऊँ 

नदी बीच पहुंचे दोनों 

घड़ियाल धीरे से बोला 

बीमारी मित्र अपनी ऐसी 

पीना तेरे जिगर का घोला

परिस्थित भांप बन्दर बोला 

चिंता कतई करो न भाई 

जिगर क्या जान भी दूंगा 

जल्दी लगो किनारे जाई 

पहुँच किनारे बन्दर बोला 

बोलो युक्ति किसने बताई

आते अगर पास तुम मेरे 

दिलवाता बढ़िया दवाई 

बरसों पुरानी अपनी दोस्ती 

जीना मरना था संग संग 

स्वार्थ में अपने जीने के 

बदल दिए क्यों  रंग ढंग 

समझ गया घड़ियाल शीघ्र ही 

दुश्मनों ने था भड़काया 

अपनी दूषित करनी पर 

मन ही मन बहुत पछताया

प्यारे बच्चों तुम भी समझो 

गंदी दुनिया की नीति 

लाख लड़ाएं मन भरमाये 

छोड़ो कभी न प्रीत की रीत

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 डॉ० प्राची सिंह

धरा हमारी

 

रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे फूलों की फुलवारी है ...

परियों की दुनिया सी न्यारी सुन्दर धरा हमारी है ...

 

गोल-गोल जो घूमे धुरि पर

दिवस रात तब आते हैं,

चाँद,सितारे,सूरज आकर

अपने खेल दिखाते हैं,

रात चाँदनी से शीतल है, और सुबह उजियारी है ...

परियों की दुनिया सी न्यारी सुन्दर धरा हमारी है ...

 

ऊँचे पर्वत, गहरे सागर

हरे भरे हैं वन उपवन,

विविध रूप में प्राणी सारे

थामें धरती का दामन,

कुदरत नें रंगों को चुन-चुन, इसकी छटा सँवारी है ...

परियों की दुनिया सी न्यारी सुन्दर धरा हमारी है ...

 

ग्रीष्म,शरद, सावन,वसंत के

मौसम इसे सजाते हैं,

फूल-तितलियाँ पशु-पक्षी सब

झूम-झूम इतराते हैं,

जीवन का आधार धरा है, माँ सी हमें दुलारी है ...

परियों की दुनिया से न्यारी सुन्दर धरा हमारी है ...

***************************************************************************

बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज) जी

1.

बचपन का अलग रूप

 

मलिन चेहरा

धूल धूसरित,

 

समय की धूप में

स्याह पड़ता गौर वर्ण,

 

क्रूर चक्र में

दलित बचपन

 

अज्ञात गर्भ का जना

अनजान वंश का अंश

चैराहे की लाल बत्ती पर

गाड़ी पोंछता

अपनी फटी कमीज से

 

पैसे के लिए हाथ फैलाते ही

बिखर गया था बाल पिण्ड

 

सूखे होठों पर

किसी उम्मीद की फुसफुसाहट

 

लाल बत्ती हरी हो गयी

गाड़ी चल पड़ी

गन्तव्य को

बचपन पीछे छूट गया

एक कोने में खड़ा

कमीज को अपने

बदन पर डालता

 

आंखों में

भूख की छटपटाहट

 

व्यवस्था के पहियों तले

दमित बचपन

बेचैन था वयस्क हो जाने को।

 

2.

देखो देखो आया सूरज

नया सबेरा लाया सूरज

 

अंधकार का नाश हो गया

जग उजियारा लाया सूरज

 

पूरब में है लाली छायी

गोल सलोना भाया सूरज

 

सपनों से तो जागे हैं हम

कुछ उम्मीदें लाया सूरज

 

बागों के सब फूल हंसे

नई चेतना लाया सूरज

 

अपने अपने घर से निकलो

आसमान पर छाया सूरज

 

सभी समय से काज करो तुम

यह संदेशा लाया सूरज

 3.

हायकू/ बचपन

 1

ये बचपन

परी, तितली, कथा

सुन्दर मन!

 2

कोमल काया

न छल, न कपट

दंभ न माया।

 3

मां का आंचल

प्यार और दुलार

सदा चंचल।

 4

चंदा है मामा

गुड़िया है सहेली

झबला जामा।

 5

सब अपने

आकर्षक मुस्कान

देखे सपने।

 6

दूषित धरा

मेरे लिए क्या बचा

दूषित हवा।

 7

महुआ क्या है?

किस जहां की बातें

पपीहा क्या है?

******************************************************************

राजेश कुमारी जी

अनंत जिज्ञासा

गोल गोल  ये बनती जाती

चकले बेलन पर घुमाती

जो अपनी है भूख मिटाती

माँ कहाँ से आई चपाती ??

खेतो से जब गेहूं पक कर घर में आता है

तेरा पापा उसको चक्की में पिसवाता  है

आटे की बोरी जब आती

उससे  ही बनती है चपाती।।

अहा  सुन्दर  फ्राक है मेरा

उसपर रेशम का है घेरा

जो प्रकाश में करता चम् चम्

माँ कैसे बनता है रेशम ??

मीठे शहतूत  वृक्ष  पर जब  कीड़े आते हैं

अपनी मेहनत से मुलायम  जाल बनाते हैं

चिप चिप होता  झिलमिल चमचम

उससे ही बनती है रेशम।।

 

कितना सुन्दर है मेरा घर

जिसमे रहते हम मिल जुल कर

ना कोई भय ना कोई डर

सुन माँ कैसे बनता है घर??

माटी से सांचे में एक-एक ईंट बनाते

सीमेंट से सब जोड़-जोड़ दीवारे बनाते

परिश्रम औ पैसा लगता पर

फिर मेरे बच्चे  बनता घर।।

 

मेरी बहना मेरी मुनिया

जिसे प्यार से कहते चुनिया

जिससे  रोशन मेरी दुनिया

माँ कहाँ  से आई  चुनिया ???

 2.

सात रंग

सतरंगी जो इंद्र धनुष

बादलों में लटक रहा

मुझको लाकर देदो माँ

मन उसमे ही अटक रहा

माँ ---

इंद्र धनुष  के सातों रंग

देख तेरे पास हैं

मेरी प्यारी नन्ही गुड़िया

फिर भी क्यूँ उदास है ?

तेरी सुन्दर फ्राक है पीली

उसका बाडर  लाल है

हरी- हरी तेरी  चूड़ियाँ

नारंगी रुमाल है |

जामुनी है रीबन उसपर

गहरा नीला जाल है

हलके नीले जूते तेरे

देखो तो कमाल है|

तुझ में ही  है इंद्र धनुष

कैसा ये कमाल है

अब तो हंस दो प्यारी गुडिया

बोलो क्या ख़याल है ||

 3.

मेरी नातिन और पोता

मैं इसकी इन्नी बहना  हूँ ये मेरा  भैया गुड्डू

ये मुझको चिन्नी कहता है और मैं इसको लड्डू

मेरे गल्लू खींच ये बोले  देखो अंडे अंडे

नाक इसकी भींच के मैं बोलूं बोल सन्डे मंडे

इसकी मम्मी मेरी मामी है और  पापा मामा

इसकी दादी इसके दादा हैं मेरे नानी नाना

हर दम मेरे बाल खींचता मैं करती ताता थैया

फिर भी  जाने क्यूँ लगता है मुझको प्यारा  भैया

**********************************************************************

राम शिरोमणि पाठक जी          

1.

बदली

 

रंग बिरंगी आयी बदली ,
कितनी सुन्दर लगती बदली !
उमड़ -घुमड़ के गर्जन करती ,
देखो नभ पे छाई बदली !!

 

बड़ी दूर से आती बदली, 
बड़ी दूर को जाती बदली! 
साथ ना जाने कितना पानी 
देखो ये भर लाती बदली !!

 

चकाचौंध करने को आयी ,
रंग दिखाने आयी बदली! 
अपने आँचल में नीर लिए, 
शीतल करने आयी बदली!!

 

गर्मी से तपती धरती को, 
ठंडा करने आई बदली!
धरती के सभी प्राणियों की, 
प्यास बुझाने आयी बदली !!

 

कभी तेज़ कभी मंद गति से , 
करतब खूब दिखाती बदली! 
कभी सुदूर गगन में जाती, 
कभी पास आ जाती बदली!!

 

इन्द्रधनुष को साथ लाती ,
मौसम को रंगीन बनाती! 
हरियाली छा जाती है जब ,
जमकर जल बरसाती बदली!!

 

देखो बच्चों बदली सेवा, 
सबको खूब हर्षाती बदली!
तुम भी ऐसे करते रहना, 
हमको ये बतलाती बदली !!

2.

मत्तगयंद सवैया

चाल बड़ी मनमोहक लागत, खेलत खात फिरे बहु भांती !
गाल गुलाब लगे उसके अरु, होंठ कली जइसे मुसकाती!!
भाग रहा वह रोटि लिए जब, मात पुकारत पास बुलाती !
स्नेह भरे अपने कर से फिर, मात दुलारत जात खिलाती !!

 3.

मोटी रानी

सुन लो बच्चों एक कहानी ,

वह थी मोटी सी रानी !

ढेरो कुंतल खाना खाती,
पीती बाल्टी भर पानी !!१

 

लाल टमाटर जैसी आंखे ,
हथिनी जैसी थी काया!
रूप अनोखा पाया उसने ,
था रूप अनोखा पाया !!२

 

बहुत बड़ी पेटू चट्टू थी ,
बहुत बड़ा मुह फैलाती !
भूख लगे जब कुछ भी दे दो,
वह सबकुछ थी खा जाती !!३

 

अगर कहीं वह बैठ गयी तो,

खुद से ना फिर उठ पाती!
कई लोग मिल उसे उठाते,
थोड़ी सी तब हिल पाती !!४

 

रानी मोटी हो गयी क्यूंकि,
गलती यह कर जाती थी !
चबा-चबाकर वह खाने को ,
कभी नहीं वह खाती थी !!५

 

मोटी रानी के जैसे ही ,
चबाकर नहीं खाओगे !
तो फिर ठीक रानी की तरह ,
तुम मोटे हो जाओगे !!६

 

मेरी बात ध्यान से सुन लो,
जब भी तुम खाना खाओ !
खूब चबाकर खाओ बच्चों ,
तुम खूब चबाकर खाओ !!७

***************************************************************************

लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी

1.

निर्धनता में जो पलते है, 
संघर्षो की दुनिया उनकी
जिनकी राह बिछे कांटे है, 
नित बदलती सूरत उनकी ।

कांटो को वे पुष्प समझते, 
चुभन से न कभी वे है डरते 
अंगारों पर चलना सीखले, 
जलने से वे कभी न डरते ।

कुआँ खोद नित पानी पीते, 
प्यास बुझाना उनको आता
मात-पिता और गुरु के आगे, 
शीश झुकाना उनको भाता ।

घर से दूर गुरुकुल में पढ़ते, 
संघर्षों से वे नाता रखते,
लहू भरी स्याही से लखते, 
ऊसर भू पर भी खेत जोतते ।

सच्चे दिल से प्यार करे जो, 
भारत माँ ही उनकी माता,
शीश झुकाना मंजूर नहीं है, 
शीश कटाना उनको भाता ।

2.

रोशन घर को यही करेगा

 

सच्चे बच्चे सबको भाते,

झूंठ से उनका क्या नाता,

कहदे पापा घरपर नही है

झूँठ बोलना उसे न आता|

 

माँ को बेटा खूब लुभाता,

नित नयी वह चीजें लाता

चोरी करते बच्चे से पहले-

चोरी से देखो माँ का नाता।

 

बेटे तू टाफी ले, ज़रा बैठना,

किटी पार्टी में मुझको जाना

कार्टून भले तू देखते रहना,

थोड़ी देर से मुझको आना |

 

दादी तेरी खस खस करती,

टे बोलने में कर रही देरी,

उसके धन से कार खरीदना,

उठाले ईश्वर,यही प्रार्थना |

 

गुरुजी ने बच्चे को समझाया,

फिर उसकी माँ को बुलवाया,

गुरूजी बोले बच्चा सुनता सब है,

पर जवाब नहीं वह कुछ देता

बाद में प्रतिक्रया आने पर,

मुझे बहुत ही अच्छा लगता |

 

माँजी, बच्चा है बड़ा सयाना,

पौष्टिक खाद से पोषण करना

गलत संस्कार इसको दो ना,

खुद के लिए गड्ढा खोदो ना |

याद रहती बाते, कल वही-

अनुसरण कर रोशन घर को यही करेगा |

 3.

अनुपम सा उपहार

मेरे दोनों पुत्र से,  मेरा  यह  परिवार,

पोते पोती से बना, सुखं का यह संसार ।

 

चखना हो यदि प्रेम रस, बच्चो से कर प्रीत,

तुतलाते से बोल भी,  लगे सुगम संगीत ।

 

बेटी मेरे लाल की,मेरा तो वह  ब्याज,

साठ साल के बाद में, मुझे मिला है साज।

 

मुझसे आकर बोलती, भैया नहीं खिलाय,

बात बात पर डाँटते, मम्मी से पिटवाय ।

 

आकर पोता यह कहे, परी खेल नहि पाय,

आप बताओ क्या करे, इसे कौन समझाय ।

 

मेरे मुखरित पृष्ठ पर, बच्चों की मुस्कान,

धन्य धन्य इनसे हुए, ये बूढ़े अरमान ।

 

आँगन में सौरभ खिला, अनुपम सा उपहार,

उसमे खिल रही कलियाँ, प्रभु का ही उपकार |

******************************************************************

वंदना तिवारी जी

मुझे बचाना(हायकू)

आ जाओ खेलो
शीतल छाया देगें
मित्र बुलालो

थक जाओ ज्यों
आराम करो सब
पंखा नीचे,ज्यों

पक्षी देखोगे?
मेरे आंगन आओ
चूजे भी पाओ

छतरी खो दी!
बारिश से बचना
आ जाओ नीचे

भूखे,प्यासे हो?
फल खाओ या चूसो
घर लौटो जब

क्यूं पहचाना?
पेड़ मुझे कहते
मुझे बचाना

***************************************************************************

विजयाश्री जी

1

अक्षर वाणी

 

अ से अनार , आ से आम

जप ले अब तू राम का नाम

इ से इमली , ई से ईख

अच्छी बातें ले तू सीख

उ से उल्लू ,ऊ से ऊँट

जीवन में तू बोल ना झूठ

ऋ से बनता है ऋषि

सबके जीवन में हो बस ख़ुशी

ए से एड़ी , ऐ से ऐनक

रेल आई छुकछुक छुकछुक

ओ से ओखली , औ औरत

पढ़ लिख कर कमा शोहरत

अं से अंगूर , अः खाली

दोनों हाथों से बजे ताली

 

क से कबूतर , ख ख़रगोश

अपने जीवन में रख तू जोश

ग से गमला , घ से घड़ी

हर पल है अनमोल घड़ी

ड तो होता है डमरू

बाँध के पायल नाच ले तू

च से चम्मच , छ छतरी

अम्बर पर है छाई बदरी

ज से जहाज़ ,झ झंडा

रोज़ खाओ इक अंडा

ण तो होता है खाली

आई मस्तों की टोली

ट से टमाटर , ठ ठठेरा

जीवन सबका हो उजला

ड से डेरा , ढ ढक्कन

कान्हा खाए है मक्खन

त से तरबूज , थ थरमस

रेल का इंजन भारी भरकम

द से दवात , ध से धनुष

अच्छा बन तू ए मानुष

न से नल , प से पतंग

रिश्तों में तू भर ले रंग

फ से फल , ब बकरी

जान ले तू जीवन चकरी

भ से भालू , म मछली

खिल रही है कली कली

य से यज्ञ , र से रेल

जीवन में रख सबसे  मेल

ल से लट्टू , व से वक

जीवन का हर रंग तू चख़

श से शलगम , ष षट्कोण

सही रख तू दृष्टिकोण

क्ष से क्षत्रिय , त्र त्रिशूल

किसी के लिए तू बन न शूल

ज्ञ से होता है ज्ञानी

सुना दे तू ये अक्षर वाणी

 

2.

माँ का लाल

खुश हो रहा माँ का लाल

पालने में लेटा बाल 

खुश हो वो अंगूठा चूसे

कभी वो पकड़े माँ के बाल

खुश हो रहा माँ का लाल

 

 ठुमक ठुमक चलत बाल

 देख के माँ हुई निहाल

 धक् धक् धड़के उसका जिया

 गिर ना जाये उसका लाल

 खुश हो रहा माँ का लाल

 

 पा-पा-माँ-माँ जब वो बोले

 माँ का हिया ऐसे डोले

 इत उत भागे उसके पिछे

 नया शब्द कुछ बोले लाल

 खुश हो रहा माँ का लाल

 

 माँ का पल्ला मुहँ से खींचे  

 का है का है जब वो पूछे

 माँ तो सुनके उसपे खीजे

 बार बार क्यूँ पूछे सवाल

 खुश हो रहा माँ का लाल

 

 कोई भी नया चेहरा जो देखे

 भागे छुप जाये माँ के पीछे

 तौन आया तौन आया

 माँ से पूछे उसका लाल

 खुश हो रहा माँ का लाल

***************************************************************************

विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी

1.

घनाक्षरी छंद 1-भोला बचपन


भोले भाले बालकों की तोतली है बोली प्यारी,
सरल सहज ये चपलता सुहाती है॥
नन्हें-नन्हें पैरों से ठुमुक ठुम भागते हैं,
देखना नयन भर छाती को जुड़ाती है॥
गिरते हुए भूमि माँ कहके पुकारे जब,
दौड़ के उठा के माँ हृदय से लगाती है।
जानती है लाल गिर-गिर के उठेगा जब,
तभी दौड़ पाये किन्तु वेदना जताती है॥

घनाक्षरी छंद 2-बच्चों के प्रश्न

चिलगम चबाने नहीं देते हैं मुझे पापा,
दिनभर पान किन्तु खुद क्यों चबाते हैं।
कहते हैं छोटे हो साइकिल चलाओ नहीं,
तेज रफतार रोड गाड़ी क्यों चलाते हैं॥
घर से बाहर मुझे खेलने न देते शाम,
पीकर शराब देर रात घर आते हैं।
कहते हैं आपस में झगड़ना ठीक नहीं,
मम्मी के ऊपर रोज लाठी क्यों उठाते हैं॥

 

2.

बचपन के दिन भूलत नाही।
धूरि पंक तन पोति मातु पितु, दउरि कंठ लपटाही॥
हठकरि मातु पिता से जब तब, वस्तु उहै मोहि चाही।
वह कंचा वह गिल्ली डंडा, आँखमिचौली वाही॥
वह जहाज वह कागज नौका, फिरँगी पतंग उड़ाही।
दीदी के गुल्लक से पइसा, कंचा लेन चुराही॥
गुड़-शक्कर माँ थकै छुपावत, ढूढ़ि- ढूढ़ि हम खाही।
वायुयान को देखि गगन में, दउरत हम चिल्लाही॥
मुनमुन चिड़िया को दे दाना, पानी मगन पियाही।
फुदकि- फुदकि बइठे कंधा पर, हंसि हंसि तालि बजाही॥
अंग्रेजी के टीचर टाइट, गन्ना रोज लुकाही।
नाना विधि समझावत मइय्या, तब्बो पढ़ै न जाही॥
सोंच सोंच मन मगन सरस दिन, अब्बो भरत उछाही।
विनय करत कर जोरि प्रभू, कुछ दिन देत्यो लउटाही॥

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शालिनी कौशिक जी

बच्चा जब फिर वहीँ आ लिया .

आँख चुराकर ,मुहं छिपाकर ,

मुझसे थोडा बच-बचकर ,

आस-पास के बच्चे देखें ,

मेरी बगिया को ललचाकर .

कुर्सी पर जो बैठकर देखूं ,

घर से आगे बढ़ जाएँ ,

टहल-टहल जो छिपूं कभी मैं ,

बगिया के द्वारे आ जाएँ .

मैं भी पक्की हूँ शरारती ,

लुका-छिपी तो खेलूंगी ,

फूल खिले जो हैं बगिया में ,

उनको आज बचा लूंगी .

थोडा सा मैं छिपकर बैठी ,

बच्चा एक था ऊपर आया ,

बगिया के बाहर से उसने ,

फूल के ऊपर हाथ बढाया .

दौड़ी उस पर तेज़ भागकर ,

बच्चा नहीं पकड़ में आया ,

दूर से जाकर औरों से मिल ,

उसने मुझको खूब चिढाया .

गुस्सा आया उस पर मुझको ,

अपनी हार से शर्मिंदा थी ,

पकडूँगी पर इन्हें कभी तो ,

आस मेरी अब भी जिंदा थी .

घर के अन्दर जाने का फिर,

मैंने खूब था स्वांग रचा,

जिस में फंसकर एक शिकारी ,

बच्चा लेने लगा मज़ा .

खूब उछलकर,कूद फांदकर ,

बगिया में था धमक गया ,

तभी मेरे हाथों में फंसकर ,

उसका हाथ था अटक गया .

 

रोना शुरू हुआ बच्चे का ,

मम्मी-मम्मी लगा चीखने ,

देख के उसका रोना धोना ,

मेरा मन भी लगा पिघलने .

 

थोडा सा समझाया उसको ,

फूलों से भी मिलवाया ,

नहीं करेगा काम कभी ये ,

ऐसा प्रण भी दिलवाया .

 

खुश थी अपनी विजय देखकर ,

फूलों को था बचा लिया ,

माथा पकड़ा अगले दिन तब ,

बच्चा जब फिर वहीँ आ लिया .

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 शिखा कौशिक जी

1.

चंदा मामा चंदा मामा बतला दो अपना मोबाइल नंबर !!

चंदा मामा चंदा मामा

तुम हो कितने सुन्दर !

जल्दी से बतला दो अपना

तुम मोबाइल नंबर !!

 

मिला के नंबर रोज़ करेंगें

दिन में तुमसे बात ,

छत पर चढ़कर रात में

होगी तुमसे मुलाकात ,

भांजे तुम्हारे हम हैं धुरंधर !

जल्दी से बतला दो अपना

तुम मोबाइल नंबर !!

 

एस.एम्.एस. करेंगें ,
करेंगें एम्.एम्.एस. ,
स्विच ऑफ मत करना ,
ये प्रार्थना  है बस !
रिंगटोन बजाकर  गूंजा देंगें अम्बर !

जल्दी से बतला दो अपना

तुम मोबाइल नंबर !!

 2.

दादा -दादी में हुई लड़ाई

 

दादा -दादी में हुई लड़ाई ,

दोनों ही जिद्दी हैं भाई ,
दादा जी ने मूंछे ऐंठी   ,
दादी ने त्योरी थी चढ़ाई !

 

यूँ मुद्दा था नहीं बड़ा 
पर लड़ने का शौक चढ़ा ,
दादा चाहते मीठा खाना ,
दादी का डंडा है कड़ा !

 

डायबिटीज  की लगी बीमारी 
दादा जी की ये लाचारी ,
इसी बात पर दादी अकड़ी 
बोली अक्ल गयी क्या मारी ?

 

दादा जी को गुस्सा आया ,
दादी को बिलकुल न भाया ,
हुई शरू यूँ तू तू मैं मैं ,
मैंने माँ को शीघ्र बुलाया !

 

माँ लायी थी रसमलाई ,
दादा जी ने खुश हो खाई ,
बोली दादी से माँ हँसकर
'शुगर फ्री ' है ये मिठाई !

 

दादा हँसे हँसी दादी भी ,
मुझको भी हँसी थी आई ,
दोनों मुझको लगते प्यारे ,
माँ भी हल्के से मुस्काई !

3.

भैया हमको साइकिल चलाना सिखा दे !

एक बार एक बार गद्दी पर बैठा दे ,

भैया हमको साइकिल चलाना सिखा दे !

पैडिल पर कैसे  करते हैं वार ?
कैसे हो साइकिल पर हम भी सवार ?
हैंडिल का बैलेंस करके दिखा दे !

भैया हमको साइकिल चलाना सिखा दे !

 

 कैसे लगाते हैं एकदम से ब्रेक ?
घंटी बजाकर मजे लें अनेक ,
साइकिल सवारों में नाम लिखा दे !
भैया हमको साइकिल चलाना सिखा दे !

*******************************************************************

सीमा अग्रवाल जी

दूर तक दिखती नही है,आस की

कोई किरण

बचपना बंदी है जिम्मेदारियों के

पाश मे

क्या कभी बदलेगा इनके

वास्ते परिदृश्य

क्या थकी आंखे भी देखेंगी

मनोहर दृश्य

 

देह नाज़ुक  फूल सी पर

प्रौढता ढोते हुए

आंसुओं संग जी रहे

चुपचाप  होठों को सिये

इक सितारा भी नहीं उनके लिए आकाश मे

क्यों खुशी उनको समझती है सदा अस्पृश्य

क्या थकी आँखें भी .........

 

लेखनी,कागज,किताबे

खेलना और कूदना

दौड़ना उन्मुक्त मन वो

खिलखिलाना रूठना

है निरूपण कामनाओं का सभी बस' काश' मे

आज बंजर कल विरूपित आज के सादृश्य

क्या थकी आँखें भी ..............................

***************************************************************************

सतीश मापतपुरी जी

गीत - गुदगुदाते रहो और हंसाते रहो

 

अपने आँगन के हँसते सुमन को सदा ,

गुदगुदाते रहो और हंसाते रहो.

 

अभी नाज़ुक हैं , मासूम - सुकुमार हैं ,

ये तो कुदरत के अनमोल उपहार  हैं .

हर कदम पे सम्भालो - दुलारो इन्हें ,

ये कली तेरे सपनों का सिंगार है .

इनको खिलने दो हर रंग - हर रूप में ,

ग़म की आँधी से इनको बचाते रहो .

 

अपने आँगन के हँसते सुमन को सदा ,

गुदगुदाते रहो और हंसाते  रहो.

प्यार - ममता को इन पे लुटाते रहो ,

हौसला हर कदम पे बढ़ाते रहो .

आज दो इनको तुम - तुमको कल देंगे ये ,

इनकी पलकों पे सपने सजाते रहो .

 

चाह होती जहाँ - राह होती वहाँ ,

ये यक़ीं नन्हें दिल को दिलाते रहो .

अपने आँगन के हँसते सुमन को सदा ,

गुदगुदाते रहो और हंसाते रहो.

***************************************************************************

सत्यनारायण शिवराम सिंह जी

बचपन के दिन लगते प्यारे

 

मम्मी पापा हमको प्यारे

हम मम्मी पापा को प्यारे

पापा के हम आँख के तारे

मम्मी के थे राजदुलारे

 

जब रूठें हम, हमें मनाती

लोरी गाकर हमें सुलाती

चंदा मा के गीत सुनाती

दूध भात नित हमें खिलाती

 

पापा हाथी-घोडा बनते

अपनी पीठ पर हमें घुमाते

खेल खेल में हमें पढ़ाते

भले बुरे का भेद सिखाते

 

तितली जैसे न्यारे न्यारे

बचपन के थे दिन मतवारे

मम्मी पापा के सम सारे

बचपन के दिन लगते प्यारे

 

2.

बाल-दोहे

भाषा बोलें तोतली, नहीं जगत से छोह।

शिशु के भोले भाव ही, मन को लेते मोह।।

 

जीवन के अध्याय का, प्रथम सर्ग शिशु मान।

मातृत्व बोध का जहाँ, मिलता पहला ज्ञान।।

 

पोथी वेद कुरान से, शिशु होता अनजान।

मीठी सी मुस्कान ही, पहली शिशु पहचान।।

 

अपनी लटपट चाल से, गिरे शिशु दुःख पाय।

माँ के आंचल से लगे, सब पीड़ा मिट जाय।।

 

शिशु का सीमित देश था, खुशियाँ थीं भरपूर।

बढ़ा देश परिवेश तो, खुशी हुयी काफूर।।

***************************************************************************

 डॉ० सरोज गुप्ता जी

किससे करूँ माँ मैं झगड़ा 

माँ अब नहीं करूंगी झगड़ा ,
भैया ही करता मुझसे झगड़ा !

बात-बात में मुझसे अकडा ,
सारा खेल देख मेरा बिगाड़ा ,
मुझे धूप में बनाया लंगडा ,
मेरी स्याही में कलम डुबोया ,
अपना होमवर्क मुझसे करवाया,
बाबू जी से मुझको ही डंटवाया,
मेरे हिस्से के आम भी खाया ,
माँ में किससे करूँ अब झगड़ा ?

माँ अब मैं नहीं करूंगी झगड़ा ,
तू ही तो सम्भाले मेरे नखरे ,
तेरी चुप्पी मुझे बहुत अखरे ,
चांटे जब भी तूने मुझे मारे ,
तू रात भर गिनती रही तारे ,
चंदा मामा से मांगती दूध कटोरे ,
माँ में किससे करूं अब झगड़ा !

*************************************************************************

सौरभ पाण्डेय जी

बाल-रचना : मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं 

मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं  
किसकी-किसकी बात करूँ मैं, सबके सब बेहद तगड़े हैं 
                                     मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं  

एक भोर से लगे पड़े हैं 
घर में सारे लोग बड़े हैं
चैन नहीं पलभर को घर में
मानों आफ़त लिये खड़े हैं
हाथ बटाया खुद से जब्भी, ’काम बढ़ाया’ थाप पड़े हैं 
                                    मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं 

घर-पिछवाड़े में कमरा है
बिजली बिन अंधा-बहरा है 
इकदिन घुस बैठा तो जाना.. . 
ऐंवीं-तैंवीं खूब भरा है
पर बिगड़ी वो सूरत,  देखा.. बालों में जाले-मकड़े हैं 
                                   मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं 

फूल मुझे अच्छे हैं लगते  
परियों के सपने हैं जगते 
रंग-बिरंगे सारे सुन्दर 
गुच्छे-गुच्छे वे हैं उगते 
उन फूलों से बैग भरा तो सबके सब मुझको रगड़े हैं 
                                  मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं

***************************************************************************

एस० के० चौधरी जी

1.

बाल गीत

 

सुबह सबेरे दिल से मेरे

लाल लाल सूरज का गोला

गंगा से बाहर उछल यूँ बोला

कर नैया में सवार

ले चल मांझी उस पार

जहाँ नन्ही परी करे मेरा इंतज़ार,

 

नदिया किनारे

दिन भर धमाचोकड़ी में गुजारे

तभी आयी दुपहरी

सूरज तो तमतमाया

गुस्से में धमकाया

चलो बच्चों अब घर जाओ

खेल कूद बंद अब खाना खाओ

 

सांझ परे जब फिर होगा गोला लाल

तब फिर आयेंगे

तब फिर खेलेंगे कूदेंगे मौज मनाएंगे

चांदनी का होगा बिछौना

चाँद होगा अपना खिलौना

जैसे मृग का छौना

 

2.

लो आज मेरी शानू एक  साल की हो गयी||

स्पंदित ह्रदय की हर कलि खिल खिल गयी

अकस्मात दादा कह कर अचंभित कर गयी

जीवन के इस मोड़ पर एक साथी मिलगयी

लो आज मेरी शानू एक  साल की हो गयी||

 

आगे तो ठुमक-ठुमक चल कर बढ़-बढ़ आना

पीछे दादाजी के संग भजन पर ताली बजाना

सस्मित रूप चित्ताकर्षक,खुशियों का खजाना

तिमिर उर के नष्ट कर, उजियारा  बन गयी

लो आज मेरी शानू एक  साल की  हो गयी||

 

उषा में नयन खुलते ही शतदल सी आती है

चहक सुबह सबेरे ह्रदय सुरभित कर जाती है

जीवन सलोना कर,अब कुछ कुछ तुतलाती है

विगत स्मृति को भुला जीवनाधार बन गयी

लो आज मेरी शानू एक  साल की हो गयी ||

 

तीन दशक की उदासीनता को कर दूर आयी है

इससुने घर के वातावरण में किलकारी लाई है

कर दूर सूनापन पीढ़ी की प्रथम संतान पाई है

आशीष दादा दादी की, सब के मन बस गयी

लो आज मेरी शानू एक  साल की हो गयी ||

 3.

लाल हरे पीले, रंग रंगीले

सपने लेकर सोया था

बचपन की यादों में खोया था,

खेल खेल में लड़ कर घर आना

आकर माँ की गोदी में दुबक जाना,

सुबक सुबक कर फिर रोना

माँ का अंचल लगे तब सलोना,

नैनो से जल धार जो टपकी

रोक देती माँ की ममता भरी थपकी,

आँखों से बहते ये मोती

लोरी के सुरों में माँ उन्हें पिरोती,

भूल सारे दुःख दर्द सुख सपनो में खो जाऊं

बचपन के वो दिन भुलाये भुला न पाऊं |

गली मोहल्ले के बच्चे कितने प्यारे कितने अच्छे

निष्कपट निश्चल कितने सच्चे

खेल खेलते कितने न्यारे न्यारे

कहाँ गए वो खेल अब बेचारे

छुप छुप्पवल, गुडिया का ब्याह

कभी धुप कभी छांह

गिल्ली डंडा, आँख मिचौली

लंगड़ी घोड़ी, हंसी ठिठोली

लट्टू की नोक, कंचे की मार

गुड्डी की ढील, मंजे की धार

लड़ते झगड़ते फिर भी लगते प्यारे प्यारे

एक घर सा मोहल्ला था लोग थे अपने सारे के सारे

अब तो घर भी बेगाना सा हुआ क्या क्या बतलाऊं

बचपन के वो दिन  भुलाये भुला न पाऊं |

बचपन में ही बच्चे बड़े हो गए हैं,

उम्र से बहुत पहले ही वे अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं,

अब तो खेल निराले हैं, \

कंप्यूटर विडियो के खेल आँख फोड़ने वाले हैं

पीढ़ियों का यह अंतराल पीढ़ी का न होकर

सदियों का हो गया है

परिपक्वता इतनी आ रही है

बचपन में ही पूर्ण ज्ञान हो गया है

सदी की चाल  विद्युत् गति सी अग्रसर है

विज्ञान शिखर पर युवा विजेता सा प्रखर है,

नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी की यह खाई कैसे भर पाऊं

बचपन के वो दिन भुलाये भुला न पाऊं |

************************************************************

संदीप कुमार पटेल जी

1.

पञ्च तत्व

 

धरती अगन पवन नभ पानी

कहते पञ्च तत्व सब ज्ञानी

इनके बिन मुश्किल हो जीना

सुनो ध्यान से राजू मीना

 

धरती ये माता कहलाती

सकल संपदा जीवन दाती

पर्वत कानन बहती नदिया

इसमें ही खिलती है बगिया

 

वीरों की है गौरव गाथा

दमके इस चंदन से माथा

सहन शीलता सीखो इससे

मान सदा मिलता है जिससे

 

खोद इसी को अन्न उगाता

सकल समाज उसी को खाता

हो आराम परम सुखदाई

बिछे धरा पे अगर चटाई

 

तत्व दूसरा पावक भ्राता

जिससे जीवन भर हो नाता

ये पावक है बहु उपयोगी

भोज पकाएं योगी भोगी

 

यज्ञ हवन बिन इसके कैसे

अस्त्र शस्त्र भी ढलते कैसे

धातु पात्र सब बनते कैसे

शीत भरे दिन कटते कैसे

 

तीजा तत्व हवा है न्यारी

चलती जिससे साँस हमारी

यहाँ वहाँ हर जगह यही है

सोच समझ यह बात कही है

 

आग बिना इसके कब जलती

नभ पर इससे बदली चलती

पेड़ पौध सब साँसें लेते

जो हमको आक्सीजन देते

 

चौथा तत्व है गगन हमारा

है अनंत जिसका विस्तारा

सूर्य चन्द्र सब झिलमिल तारे

प्रखर प्रखरतम दिखते सारे

 

इनसे जीवन रोशन होता

अन्धकार पल में है खोता

पंछी नभ में उड़ते सारे

रँग बिरंगे न्यारे न्यारे

 

तत्व पांचवा है यह पानी

कौन कहो इसका है सानी

सभी जीव का यह आधारा

कहलाता यह जीवन धारा

 

पानी सबको है उपयोगी

स्वस्थ रहे या फिर हो रोगी

कभी नहीं ये व्यर्थ बहाना

याद रखो है इसे बचाना

2.

"चिड़ियाघर की यात्रा" {सरसी/सुमंदर या कबीर छंद आधारित}

पापा चलिए अब चिड़ियाघर, होने आई शाम 
प्रोमिश अपना पूरा करिए, छोड़ सभी अब काम
देखेंगे हम भी जा कर अब, चिड़िया तोता राम 
और जानवर कैसे करते, खड़े खड़े आराम

 

ओ के बेटा हो जाओ तुम, जल्दी से तैयार 
पापा तुमको ले जाएँगे, देंगे कुछ उपहार 
मम्मी जी से बोलो वो भी, हो जाए तैयार
ज़्यादा वक़्त नही है कर लें जल्दी से श्रन्गार

आ पहुँचे है अब हम बेटा, चिड़ियाघर के द्वार 
गुब्बारे प्यारे हैं देखो, कैसा है उपहार 
हर इक्षा पूरी होगी तुम, बोलो तो इकबार 
पापा जी बेटा रानी से, करते इतना प्यार 

देखो बेटा देखो राजा है जंगल का शेर 
इसके दमखम के आगे हैं, बड़े बड़े भी ढेर 
देखो उन पिंजरों मे देखो, चिड़िया एक बटेर 
और पपीहा डोल रहा है, पीहू पीहू टेर

वो देखो मिर्ची खाता जो, प्यारा तोता राम 
गर्मी के मौसम मे भाता, इसको मीठा आम 
वो देखो अजगर है मोटा, करता नित आराम 
कभी कभी खाने उठता है, और नही है काम

 

देखो मृग सुंदर है कितना, चंचल इसकी चाल
चीता तेज बहुत है रखता, फुर्ती बड़ी कमाल

वो बंदर लंगूर देखिए, करता खूब धमाल 
साँप भले ये है ज़हरीला, बने नेवला काल

चीतल सांभर देखो सुंदर, देखो चतुर सियार 
नील गाय कहलाती है ये, करती साकाहार 
मोर निराला देखो बिटिया, अनुपम है शृंगार 
हाथी देखो भारीभरकम, आंको इसका भार 

भालू देखो ये काला सा, देखो तुम घड़ियाल 
कोयल देखो काली काली, उड़ उड़ बैठे डाल
ये दरियाई घोड़ा देखो, मोटी इसकी खाल 
गिरगिट शातिर है खुद को हर , रँग मे लेता ढाल 
चलो चलें अब घर को बेटा, होने आई रात 
चिड़ियाघर मे क्या क्या देखा करना ढेरों बात 
फिर आएँगे हम सब बेटा, सॅंग सॅंग अगले साल 
जन्मदिवस के अवसर पर हम, कैसा लगा ख़याल

************************************************************

 

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ओ.बी.ओ. लाइव महोत्सव की आशातीत सफलता के बाद हमारा हृदय गदगद है। सभी रचनाओं को एकत्रित रूप से पढ़कर आयोजन में सभी रचनाओं को न पढ़ पाने का मलाल नहीं रहा।रिप्लाइ बटन काम न करने की वजह से सभी रचनाओं पर मैं प्रतिक्रिया नहीं कर पाया था, लेकिन आयोजन में मुझे कुमार गौरव जी की कहमुकरी रचना कई स्तरों पर हृदय की गहराई तक प्रभावित करती है,अन्य रचनायें भी श्रेष्ठतम हैं।
रचनाओं के संकलन हेतु आदरणीया प्राची दीदी को भूरिश: बधाई।तथा आयोजन के सफल संचालन हेतु पूज्य गुरुदेव श्री सौरभ पाण्डेय जी को मैं प्रणाम करते हुए हार्दिक अभिनंदन करता हूँ।

ओबीओ लाइव महा उत्सव-30 की  सभी रचनाए एक साथ पढने,समझने, और आनंद लेने के लिए उपलब्ध कराने 

के लिए हार्दिक आभार | कौनसी रचना बाल रचना है, और कौनसी बाल रचना की श्रेणी में नही आती, इसका

अहसास कराकर चिंतन करने के लिए किया गया प्रयास भी अच्छा लगा | इस सफल आयोजन के संचालन,

इसके विश्लेषण और सभी प्रविष्टियों को एक साथ संकलन करने के आपका और डॉ प्राची सिंह जी को हार्दिक

बधाई आदरनीय श्री सौरभ जी 

आयोजन की सभी प्रविष्टियों का एकल संकलन के  श्रम साध्य कार्य हेतु हार्दिक बधाइयाँ  प्रिय प्राची वर्णों के वर्गीकरण से बाल कविता वर्ग में होने न होने को स्पष्ट करने से पाठक लाभान्वित होंगे ऐसा मेरा विशवास है |  आयोजन की सफलता की बधाई | 

आदरणीय एडमिन जी, महा.उत्सव अंक . 30 की संकलित सभी प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने हेतु एवं बालमन रूपी गंगा में पावन गोते लगाकर जो आत्मीय आनन्द हम लोगों को मिला उससे कहीं ज्यादा आनन्द तो अब उसमे से चुनी मोतियो के हार से सुख की अनुभूति हो रही है। इस सफल आयोजन के लिए ओ0बी0ओ0 की कार्यकारिणी एवं मंच संचालक आ0 गुरूवर सौरभ सर जी का अथक प्रयास ही है। इस पुनीत कार्य हेतु आप सभी को हार्दिक बधाई हो। सादर,

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