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चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१४ में सम्मिलित सभी रचनाएँ एक साथ...

चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१४ में सम्मिलित सभी रचनाएँ एक साथ|

 

श्री संदीप कुमार पटेल "दीप"

|| दस दोहे ||

 कठपुतली को देख के, बालक करे विचार ||

नाचे कैसन काठ ये , कौन नचावनहार ||१||

 

नाचे ऐसे झूम के, ठुमके मारे चार ||

मन बेचारा बाबरा, रम जाये हर बार ||२||

 

जा तन लागे काठ को, डोरी मन को तार ||

कठपुतली है आदमी , नचा रहे करतार  ||3||

 

नचा रहा है हाथ से,  दंग है देखनहार ||

ऊँगली पे नाचे सभी, कौन पाएगा पार ||४||

 

इतराता क्यूँ आदमी, अपनी छवी निहार ||

कठपुतली सा नाचता , मन में लिये विकार ||५||

 

कठपुतली का खेल सा, एक है नर एक नार ||

ब्याह रचाके ईश ने , मिलन किया साकार ||६||

 

कठपुलती देखे नहीं , क्या मीठा क्या खार ||

भूला बैठा आदमी , इस जीवन का सार  ||७||

 

कठपुतली बोले नहीं , कभु ना माने हार ||

हर मौसम में नाचती ,  गरमी हो कि बहार ||८||

 

कठपुतली के नाच सा, मनुज का है संसार ||

मन ही तन की डोर है, लावे विषय विकार ||९||

 

इस टी वी के दौर में, कठपुतली बेकार ||

मिलके सब हैं देखते, सास बहू का प्यार ||१०||

 

____________________________________________________________

 

अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग)

कुंडलिया छंद (दोहा +रोला =कुंडलिया )

 

कैसी चिंता में पड़े, क्योंकर हुए उदास?

दिन भर तोड़े हाड़ पर, नहीं कमाई पास.

नहीं कमाई पास, डोर जो अपने पल्ले.

मेहनत की भरपूर, नहीं पर बल्ले-बल्ले.

‘अम्बरीष’ है  डोर, राम के हाथों जैसी.

वैसी होगी भोर, भूख की चिंता कैसी??

 

________________________________________________________

श्रीमती रेखा जोशी

हरिगीतिका

झुकाएं अपने  शीश  रघुवर ,अर्चना तेरी करें  |

वंदनीय प्रभु हमारे दया ,तुम्हारी बनी रहे     ||

रहिमलाह वो है कहीं पे , है कहीं यशुमसीहा    |

ये राम तो मेरा नही ये, राम घट घट में बसे  ||

पुतले बने हम  नाचते है ,डोर तेरे  हाथ  में    |

देखना ये डोर बांधे और, प्रीति से मिलजुल रहें ||

 

मेरे प्रभु [शीर्षक]

(हरिगीतिका  छंद पर आधारित)

झुकाये हम सब अपने शीश ,तुम्हे पुकारते रहे |

हे मेरे प्रभु हे  मेरे ईश ,जगत में बच्चे तेरे ||

मुसलमानों का मुहम्मद जहां ,इसाई का मसीहा |

हिन्दु लेता नाम राम का ,पर रब तो तू सब का ||

है मानवता की काया पर ,पड़ी यह कैसी छाया |

तमस यह लेगी लीन कर ,हे प्रभु यह कैसी माया ||

मानव की इस भ्रमित बुधि को ,आज दो प्रेम दीक्षा |

भक्तजनों की अपार भक्ति की ,मत लो प्रभु परीक्षा ||

 

________________________________________________________________________

 

श्री संजय मिश्र ‘हबीब’

दोहे (प्रतियोगिता से पृथक)

ऊपर बैठा वह कहीं, थामे सबकी डोर।

पुतले सारे चल पड़े, वो चाहे जिस ओर।

 

बाल रूप धरकर करे, लीला अपरमपार।

नन्हें नन्हें हाथ में, लिए जगत का सार।

 

छोड़ उसे जाएँ कहाँ, वही मीत, वह नाथ।

अक्सर अद्भुत स्वांग धर, रहें हमारे साथ॥

 

प्रभु ने पुतले रच दिये, देकर अपना अंश।

उन्हें भूल हम हो गए, पुतलों के ही वंश॥

 

अहंकार की यातना, समझे नहीं अदेव।

देव कठपुतले तेरे, खुद बन बैठे देव॥

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(प्रतियोगिता से पृथक)

हरिगीतिका : एक प्रयास

ले कर खिलौने हाट को अब, जा रहा गोपाल जी।

गगरी न माखन वह कमाता, भात रोटी दाल जी।

घर की दिवारें राह तकती, कृष्ण घर को आ रहा।

बीमार मइया, आज बोतल, वह दवा की ला रहा॥

 

गोकुल घिरा है, बन गरीबी, कंस की सेना खड़ी।

व्याकुल निवासी है उदासी, हर घड़ी विपदा बड़ी॥

खुद कृष्ण ‘राधा-कृष्ण’ मूरत, बेचता भी दिख पड़े।

नन्हा सिपाही छोड़ स्कुल, घर बचे, हर विध लड़े।

 

क्यूँ शर्म ऐसे दृश्य पर यह, मुल्क ना महसूसता।

क्यूँ बालश्रम कानून अक्सर, लक्ष्य से भी चूकता॥

क्यूँ तप रहे मासूम नन्हें, नौनिहाल अङ्गार में।

क्यूँ पढ़ रहे सब, पाठशाला, छोड़ कर बाजार में॥

 

कुंडलिया 

कठपुतली के खेल में, हम सब शामिल आज.

शब्दों में क्या पंख हैं, क्या उन्नत परवाज.

क्या उन्नत परवाज, गगन छोटा है जिसको

मगन मुदित मन देख, सृजन कहते हैं किसको

कात रहे सब भ्रात, सफल भावों की तकली

देख देख हरषाय, रही होगी कठपुतली.

______________________________________________________________________

 

डॉ० प्राची सिंह

"प्रतियोगिता से बाहर "

कुण्डलिया छंद (१ दोहा + १ रोला )

 

भोला विस्मित सोचता, कठपुतली ले हाथ .

सौंपी कुदरत नें उसे, इक अद्भुत सौगात .

इक अद्भुत सौगात, ज्ञान से भरी तलैया .

राजा, रानी,रंक, और जादूगर भैया .

बदल कहानी पात्र, खोलता अपना झोला .

हमें नचाए राम, और पुतलों को भोला

___________________________________________________________________________

श्री राजेंद्र स्वर्णकार

 सात हरिगीतिका छंद

पुतली कभी हूं , आदमी हूं , मैं कभी भगवान हूं !

क्या भेद है ? क्या अर्थ है ? मैं सोच कर हैरान हूं !

इक रोज़ कठपुतली बनूं मैं , एक दिन इंसान हूं !

उसकी कृपा से नाचता मैं , अन्यथा बेजान हूं !

 

कठपुतलियों ज्यों ही जगत भर को नचाना चाहता !

मैं आदमी , ख़ुद को ख़ुदा से कम कभी कब आंकता ?

मन की सदा करता , मगर उस की रज़ा कब जानता ?

औक़ात है बेजान पुतले-सी मगर कब मानता ?

सच है , उसी के हाथ में तो हम सभी की डोर है !

कठपुतलियां हैं हम , हमारा सांस पर कब जोर है ?

देता… , वही लेता ; कहो मत – ठग लुटेरा चोर है !

क्यों जन्मने पर हर्ष , मरने पर रुदन है , शोर है ?

 

ख़ंज़र किसी की पीठ में , काटे किसी का तू गला !

इससे दग़ा , उससे दग़ा , इस को छला , उस को छला !

बेजान कठपुतली कभी कुछ कर सकी है क्या भला ?

क्यों… आदमी दो-चार कौड़ी के ! ख़ुदा बनने चला ?

 

सुन आदमी ! औक़ात अपनी वक़्त रहते जानले !

तू… सिर्फ़ कठपुतली ख़ुदा के हाथ की है , मानले !

कर आइने का सामना , ख़ुद को ज़रा पहचानले !

मिट्टी बने मिट्टी उसी पल , जिस घड़ी वो ठानले !

 

हस्ती नहीं कठपुतलियों से ख़ास ज़्यादा आदमी !

वश में नहीं दम , हुक्म दुनिया पर चलाता आदमी !

मतलब पड़े सिर को झुका कर दुम हिलाता आदमी ?

ज़र्रा नहीं ; ख़ुद को सितारा क्यों बताता आदमी ?

 

कठपुतलियों ! फिर भी भली तुम आदमी की जात से !

जो… पेश आता छल-कपट से , नीचता से , घात से !

अनजान जो… औरों के ग़म से , दर्द से , जज़बात से !

जो… ढूंढ़ता ख़ुद का भला , हर बात से , बेबात से !

___________________________________________________________________________________

श्रीमती राजेश कुमारी जी

दोहे

(1)

नन्हीं  सी कठपुतलियाँ ,बालक को ललचाय

देख के दो दो गुड्डे  , सोते  से जग  जाय

(2)

कपड़े की कठपुतलियाँ देख- देख ललचाय

राजा- रानी की  छबी  ,आँखों में बस जाय

(3)

बत्तीसों कठपुतलियाँ ,सिंहासन मढ़ वाय

और विक्रमादित्य को ,नैतिक पाठ पढाय

(4)

बालक  बूढ़े औ सभी ,  मन में  जाते झूम

मच जाये जब  गाँव में ,कठपुतली की धूम

(5)

ज्ञान  के पट रे बन्दे  ,खोल सके तो खोल

कठपुतली सम जगत में ,डोल सके तो डोल

(6)

पुतलियों की तभी चली ,नाटकों की बहार

चलचित्रों संग आज कल  ,क्रिकेट की भरमार

(7)

जीवन रंग मंच सकल ,नाटक कई हजार

खेलना है सभी वही, रब  के हैं  किरदार

(8)

सुन्दर सी कठपुतलियाँ ,देख कहूँ मैं बात

मुझको तो प्यारी लगें  ,जैसे माँ औ तात

(9)

चार दिनों की जिंदगी ,चार दिनों का साथ

नाच जैसे कठपुतली ,डोरी उसके हाथ

(10)

सर्व प्रथम कठपुतलियाँ, इजिप्ट दियो बनाय

तब फिर जयपुर में बनी  ,अंतरजाल बताय

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कुंडली छंद

प्यारी सी कठपुतलियाँ ,थक-थक नाच दिखाय
बालक यह मनहर मगन , मंद- मंद मुस्काय
मंद -मंद मुस्काय , ख़ुशी सब संगी- साथी
रसिक राजा रानी , मगन मतवाला हाथी
नाच नचावै डोर , हरी की इच्छा न्यारी
मानव की छबी ज्यों , लगे कठ पुतली प्यारी

 

 

______________________________________________________________________________

 

श्री अविनाश एस० बागडे

दोहे...

आँखों की ये पुतलियाँ,थम जाती है आज.

कठपुतली क़े खेल का ,देख सुखद अंदाज़.

--

हाँथ लिए कठ-पुतलियाँ,सोच रहा ये बाल.

हम भी ऐसे ही जिसे,नचा रहा है काल!!

--

जीवन की आपा -धापी,सांसों का संग्राम!

जन्म और मृत्यु महज़ ,कहलाते पैगाम.

--

रंगमंच पर पुतलियाँ,हाँथ किसी क़े डोर.

कला मुखर हो बोलती, दर्शक भाव-विभोर.

--

परंपरा  क़े गीत है, अनुभव  क़े  हैं  बोल.

कड़वे मीठे कच्चे पर ,सबके सब अनमोल.

--

लय में सब कुछ है बंधा,नियम-बद्ध संसार.

आनेवाला जायेगा,जीवन का यह सार.

---------------------------------------------------------------------

रोला:एक प्रयास(११-१३)

-----

कठपुतली का खेल,हमें दिल से दिखलाये.

राजस्थानी - कला, हमारा मान  बढ़ाये.

सधी उंगलियाँ करें,डोर से खींचा-तानी.

तब होती साकार,मंच पर सुखद कहानी.

-----

सुंदर सा ये खेल,हमें कुछ है सिखलाता.

ऊपरवाला  हमें , देखिये  खूब  नचाता.

हमें दिखे ना कभी, नचाती चपल उंगलियाँ!

फिर भी हरकत करें,जगत की सभी पुतलियाँ.

-----

फिर काहे हम करें , बताओ दंभ अकारण.

ऊपरवाला जब हो , सकल सृष्टि का कारण.

यही सोचता दिखे , बाल-कठपुतलीवाला ,

तेरी-मेरी डोर , हिलाता  ऊपरवाला...!!!

_________________________________________________________________________________

श्री नीलेश

 

सम्बंधित छंद का नाम का उल्लेख न करने के कारण निम्नलिखित

दोनों रचनाओं को प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है

मंच संचालक

 

नक्काशी कर दिया किसी ने रंग भर दिया

.................................................

नक्काशी कर दिया किसी ने रंग भर दिया
एक बेजान को भी खुदा, रूहानी कर दिया

कठपुतलियों की शहर की है ये दास्ताँ
नन्हे मुन्हो से पंछियों ने असर कर दिया

हाथ छूटे हो इनके शोहरत और अमीरी से
हाथ थाम कर किसी को दिल में घर दिया

इनकी कहानियों को भी सुन ले कभी खुदा
बीज-ऐ-अमन को जिन्होंने शज़र कर दिया

चस्म-ऐ-पुरनम है इन्ही की गूंजों से सदा
दश्त में भी आज देखो शहर कर दिया

" नील " आँखों में छुपे हैं दर्द के सागर
ख़्वाबों की कश्ती से शुरू सफ़र कर दिया

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प्रतियोगिता से परे (कठपुतली)

कठपुतली मानव बना , है फिर भी सीनाजोरी

अक्ल बांटता बादशाह, क्यूँ ऊपर थोड़ी थोड़ी

ले ली है पतवार हाथ में ,ये जीवन मंगल हो

क्यूँ आपस में गुत्थम गुत्थी ,क्यूँ  अब दंगल हो

ज़रा ज़रा सी बात पे ,है कठपुतली नाराज़

बालक मन रूठ गया ,बिखर गया है साज

देख तमाशा दुनिया का , है बालक मन घबराया

हाथ थाम कठपुतली का ,उसने फिर जीना सिखाया

दिल में बेचैनी पली की माँ को है कौर खिलाना

ए कठपुतली नाच ज़रा ,मेरा साथ निभाना

बूढ़ा चरवाहा लौटेगा ,ले बकरी ,गैया , सपने

कठपुतली में जान आ गयी ,लगी स्वयं थिरकने

 

_____________________________________________________________________

श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

(दोहा)
बाल सुलभ मन में हुआ,प्रश्न जटिल साकार।
कठपुतली सम जगत है,डोर हाथ करतार॥

सबके निश्चित पात्र हैं,सबके निश्चित काम।
कठपुतली ज्यों नाचते,सुबह दोपहर शाम॥

(चौपाई)
उसकी जैसी इच्छा होती।कठपुतली हर हरकत करती॥
जैसा चाहे नाच नचावे।जन्म देय या मृत्यु करावे॥

भिन्न-भिन्न वह रुप बनावे।जीर्ण छोड़ि नव पट पहिरावे॥
वो अद्भुत लीला रचता है।सबका मनरञ्जन करता है॥

उसकी आंखों में दुश्चिंता।क्या खतरे में मेरी सत्ता॥
जबसे विज्ञान क युग आया।लीला पर संकट मडराया॥

ईश्वर पर मानव भारी है।उसकी कुदरत बेचारी है॥
मनरञ्जन तकनीकि नयी है।कठपुतली अब फीकि पड़ी है॥

(दोहा)
बाल रूप हरि सोचते,संकट में है सृष्टि।
कैसे मैं रक्षा करूं,प्रश्नाकुल है दृष्टि॥


देखो ये कठपुतलियां,लगती मृतक समान।
सोच रहा है सूत्रधर,कैसे फूंकूं जान॥

(सोरठा)
दीनबंधु भर्तार,सृष्टि बचाना चाहते।
लेव धरा अवतार,मंदिर मस्जिद छोड़ि के॥

देखै तुहका लोग,कठपुतरी यदि चाहती।
करो नया प्रयोग,परिवर्तनमय जगत है॥

_____________________________________________________________________

श्री दिनेश रविकर

कुंडली

बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |
मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  | 
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |

हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।

डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

 

दूसरी प्रस्तुति

कुंडली

नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |

देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |

मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

 

तीसरी प्रस्तुति

दोहे

कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |

*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??

*पोटली

बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |

कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||

*बालक **चालाक

राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |

चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||

भूप उवाच-

कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?

चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||

*नागफनी / बिछौना

बबलू उवाच-

हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |

माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

 

रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |


प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ ने आज, सत्य ही मान बढाया |


अरुण निगम आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

 

कुंडलिया

गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।

सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।

निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।

करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |

है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |

रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

 

 _____________________________________________________________________________

 

श्री दिलबाग विर्क

कुंडलिया

 

कठपुतली-सा आदमी, नचा रहा भगवान

जो समझ न पाया इसे , दुखी वही इंसान |

दुखी वही इंसान , करे है चिंता फल की

कर्म हमारे हाथ , बात ना हमने समझी |

खुदा के हाथ डोर , वही ताकत असली

करना उसका ध्यान , सभी उसकी कठपुतली |

 

___________________________________________________________________________________

श्री अरुण कुमार निगम

कुण्डलिया छंद
जिज्ञासा यह बाल मन ,कठपुतली निर्जीव
कैसे नाचे मंच पर , अभिनय करे सजीव
अभिनय करे सजीव , लगाए लटके ठुमके
पग पैंजन झंकार , झमाझम झमके झुमके
कहे अरुण कविराय , जिन्दगी खेल तमासा
लेकिन मुश्किल काम,शांत करना जिज्ञासा .

___________________________________________________________________________________

श्री आलोक सीतापुरी

 

(प्रतियोगिता से अलग)

छंद कुंडलिया (दोहा+रोला)

 

कठपुतली दीवार पर, टंगी हुई बेजान.

मनोयोग से देखता, यह बालक नादान|

यह बालक नादान, नाचती नहीं नवाबो|

खूब लड़ी थीं रात, गुलाबो और सिताबो|

कहें सुकवि आलोक, बंधी माया की सुतली|

नियति नटी नित नचा, रही जग है कठपुतली||

___________________________________________________________________________________
श्री नीरज

चार - चौपाइयाँ

काया काठ दिखे अति प्यारी.पहिने जो पोशाक निराली..
धागा से संचालित होई.कठपुतली जानै सब कोई..[१]
गांव नगर द्वारे चौपारी.भीड़ लगी दौरे नर नारी.
कठपुतली का नाच निराला.करतब करै मुनीजर लाला.[२]
पप्पू एकटक रहे निहारी.कठपुतली पर द्रष्टी डाली.
कठपुतलिन ते ज्ञान सिखाई.करैं गुलब्बो खूब लड़ाई.[३]
जैसे लाला करतब करई.कठपुतलिन मां जीवन डरई.
अइसेन कठपुतली संसारा.ईश्वर एक नचावन हारा[४]

 

___________________________________________________________________________________

श्री धर्मेन्द्र शर्मा

 

कुछ दोहे.......

.
आज हमारे गाँव में, होगी रेलमपेल 
सांझ ढले होगा यहाँ,कठपुतली का खेल (१)

.
ठंडी इनको लग रही, झीना है पहनाव

चादर ओढा दूँ इन्हें, इनका होय बचाव (२)

.
बीन बजाना बाद में, कर लो कुछ आराम

गुडिया से बतिया ज़रा, मैं कर लूँ कुछ काम (३)
.
तेरी दुनिया खाब की, मेरी चिंता रोज

तुमको घर में टांगते, मेरा घर इक खोज (४)
.
कठपुतली का खेल था, उसको लगा विराम
नेता हमसे खेलते, उनका ही यह काम (५)

.

ग़ुरबत के इस दौर में, बालक ढूंढे प्यार

ऊपर वाले ने किया, कैसा अत्याचार (६)

 ________________________________________________________________________________

 

श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

 (प्रतियोगिता के नियमानुसार सम्बंधित छंद के नाम का उल्लेख न किये जाने के कारण इसे प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है)

 

चल रही प्रतियोगिता  बैठा आस लगाय

प्रथम गुर  चरण वंदना  दूसर न कोई सहाय

 

दीजे अब  आशिस मुझे   प्रस्तुत  छन्द  समान

है  दोहा या छन्द  ये  इसका न   अबहू   ज्ञान

 

निरख निरख पुतलियाँ  मन हुआ भाव विहोर

एक डोर मेरे हाथ है दूजी प्रभु की ओर

 

रंग बिरंगी पुतलियाँ नयनन रही लुभाय

चिततेरे भगवान् की देखो महिमा गाय

 

कठपुतलियां निर्जीव हैं मानव में  है जान

इन्हें नचाता मानव है मानव को भगवान्

 

भले भलाई करन  लगे पकड़ प्रीत की डोर

पल  भर  में मिट जाएगा  कंचन काया  छोड़

 

पुतलियाँ  निष्काम  है मानव है सरबोर

लोभ   दासता से भरा कपटी लम्पट चोर

 

रंग बिरंगी पुतलियाँ मन को खूब लुभाती

नशा गरीबी उन्मूलन जग शिक्षा दे जाती

 

___________________________________________________________________________________

श्री विवेक मिश्र

(प्रतियोगिता के नियमानुसार सम्बंधित छंद के नाम का उल्लेख न किये जाने के कारण इसे प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है)

तुम  काठ  के  शिल्प   न  मात्र  लगौ,
नव  सृष्टि  को  आज  सन्देश  दई l
जस  प्रेम  के  धागन  माहिं  बंधी,
तस  प्रेम  के  नेह  के  गेह  मई l
तुम  शाँत  रही  नित  सिन्धु  तना,
दुःख  दर्द  की  पीर  छुपाय   गई l
जन  में  नित  हास  बिखेरइ   का,
अपने  मन  मा  प्रण ठानि   लई ll


तुम   मानि  जमूरे  की  बात  सबै,
हमका  दीन्हें  उपदेश  कई l
भटकूँ  भगवान  की  राह  से  ना ,
मन  माथे  हमारे  ये  सीख  दई l
यह  माटिक  देह  मिली  सबका,
तुमरी  यह  काठ  कि  छाप  नयी l
अब  केवट   बानि    विवेक  लगै ,
कलिकाल  में   आय  के  साँच भईll

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Replies to This Discussion

भाव  सभी  अनमोल  हैं , मोती धारे सीप.

आ जाएगा शिल्प भी, स्वागत मित्र प्रदीप..

सादर

अंबरीश जी सभी रचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करने के आपको बहुत धन्यवाद और बधाई !!

आदरणीय डॉ० सूर्या बाली सूरज साहब ! आपका हार्दिक आभार !

आज चर्चा मंच पर, हो रही चर्चा अनोखी |
ओबिओ की प्रस्तुती, पुतलियों की देख शोखी |

कृपया देखें-

charchamanch.blogspot.com

ओबीओ के छंद को, मिला सभी का प्यार.

देखा  चर्चा  मंच  पर,  भाई  जी  आभार..

हाल की व्यस्तता के कारण मंच पर आवश्यक समय न दे पाना खलता है. इसी कारण आदरणीय अम्बरीषजी आपके प्रस्तुत महती कार्य को आपसे सूचना पा कर देख पा रहा हूँ.  इस हेतु बिना शर्त क्षमा प्रार्थी हूँ.

लेकिन एक बात, कल की दूरभाष पर हुई आपसे अपनी बातचीत एक बात अवश्य पुनः रेखांकित कर गयी कि अपने इमोशनल एमिशन की फ्रिक्वेंसी सिंक्रोनाइज़्ड है. ... :-)))))))

जय ओबिओ.. . !!

स्वागत है आदरणीय सौरभ जी ! जय हो जय हो :-)))))))

जय ओबिओ.. . !!

अम्बरीश जी, सभी रचनाकारों की कृतियाँ बहुत सुंदर लगीं. उनका एक जगह संकलन करने के लिये आपका बहुत धन्यवाद. 

आदरेया शन्नो जी, आपका हार्दिक आभार !

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"किसी भोजपुरी रचना पर आपकी उपस्थिति और उत्साहवर्द्धन किया जाना मुझे अभिभूत कर रहा है। हार्दिक बधाई,…"
9 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post दोहे (प्रकृति)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम दोहे रचे हैं हार्दिक बधाई।"
14 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुन्दर लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
14 hours ago
Shyam Narain Verma replied to Saurabh Pandey's discussion गजल : निभत बा दरद से // सौरभ in the group भोजपुरी साहित्य
"नमस्ते जी, बहुत ही सुन्दर भोजपुरी ग़ज़ल की प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
yesterday

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Saurabh Pandey added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
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गजल : निभत बा दरद से // सौरभ

जवन घाव पाकी उहे दी दवाईनिभत बा दरद से निभे दीं मिताई  बजर लीं भले खून माथा चढ़ावत कइलका कहाई अलाई…See More
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Sunday
Shyam Narain Verma commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"नमस्ते जी, बहुत ही सुन्दर और ज्ञान वर्धक लघुकथा, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted blog posts
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted blog posts
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। बोलचाल में दोनों चलते हैं: खिलवाना, खिलाना/खेलाना।…"
Friday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आपका आभार उस्मानी जी। तू सब  के बदले  तुम सब  होना चाहिए।शेष ठीक है। पंच की उक्ति…"
Friday

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