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एक ग़ज़ल इस्लाह के लिये

उजड़ गई क्यों प्यार की महफिल,कुछ भी कहा नहीं जाता
मैं सच्चा था या था बुजदिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

दिल का टूटना जिसे कहा था वह दुनिया का खेल था इक
अब आकर जो टूटा है दिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

सीधा रस्ता मान रहे थे जिसको हम वो उलझन थी
खुद अपने सपनों के कातिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

इक दिन मर जाना है सबको दिल में बैठ गई ये बात
कैसा रिश्ता कैसे मंजिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

नैतिकता अपराध बन गई अधिकारों की धरती पर
मर्यादा के टूटे साहिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

भूख से लड़ने में जो निर्धन का सहयोग नहीं करती
ऐसी शिक्षा से क्या हासिल,कुछ भी कहा नहीं जाता

नजर गड़ाए चला जा रहा था,रपटीली राहों पर
पर अम्बर से टूटी मुश्किल,कुछ भी कहा नहीं जाता

सोच हमारी जिजीविषा का एक महल थी अब जिसमें
मायूसी के सांपों के बिल,कुछ भी कहा नहीं करता

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on July 30, 2019 at 8:45pm

हार्दिक आभार dandpani जी

सादर

Comment by मनोज अहसास on July 28, 2019 at 10:49pm

बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहब मैं आपके सुझाव पर तुरंत ध्यान देता हूं सादर आभार

Comment by Samar kabeer on July 28, 2019 at 2:36pm

जनाब मनोज अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'कैसा रिश्ता कैसे मंजिल,कुछ भी कहा नहीं जाता'

इस मिसरे में 'मंज़िल' शब्द स्त्रीलिंग है,देखियेगा ।

'सोच हमारी जिजीविषा का एक महल थी अब जिसमें'

इस मिसरे की बह्र चेक करें ।

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