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खूब सूरत गुनाह कर बैठे ।
हुस्न पर हम निगाह कर बैठे ।।
आप गुजरे गली से जब उनके ।
सारी बस्ती तबाह कर बैठे ।।
कुछ असर हो गया जमाने का ।
ज़ुल्फ़ वो भी सियाह कर बैठे ।।
देख कर जो गए थे गुलशन को ।
आज फूलों की चाह कर बैठे ।।
जख्म दिल का अभी हरा है क्या ।
आप फिर क्यों कराह कर बैठे ।।
किस तरह से जलाएं मेरा घर ।
लोग मुझसे सलाह कर बैठे ।।
लोग नफरत की इस सियासत में ।
आपको बादशाह कर बैठे ।।
दुश्मनी जब चले निभाने हम ।
वो हमें खैरख्वाह कर बैठे ।।
उस जमीं का उदास मंजर था ।
हम जिसे ईदगाह कर बैठे ।।
वो तो सरकार की सियासत थी ।
आप क्यूँ आत्मदाह कर बैठे ।।
अब तस्सल्ली उन्हें मुबारक़ हो ।
मुल्क जो कत्लगाह कर बैठे ।।
उन शहीदों को है सलाम मेरा ।
मौत से जो निक़ाह कर बैठे ।।
सिर्फ पहुँचे वही खुदा तक हैं ।
इश्क़ जो बेपनाह कर बैठे ।।
डॉ - नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन जी।बेहतरीन गज़ल।
उन शहीदों को है सलाम मेरा ।
मौत से जो निक़ाह कर बैठे ।।
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