आज उसके छह महीने पूरे हो रहे थे, कल से वह वापस अपनी खूबसूरत और आरामदायक दुनिया में जा सकता था. उसे याद आया, जब से सरकार ने नियम बनाया था कि हर डॉक्टर को छह महीने गांव में प्रैक्टिस करनी पड़ेगी, उसके लिए यह करना सबसे कठिन था. पिताजी की अच्छी खासी दुनिया थी उस महानगर में, बड़ी हवेली, भरा पूरा परिवार और हर तरह की सुख सुविधा. एम बी बी एस करने के बाद सबने यही कहा था कि छह महीने तो फटाफट गुजर जायेंगे और उसके बाद पिताजी महानगर में ही सब इंतज़ाम करा देंगे.
गांव में जिसके घर वह रह रहा था, उनकी उम्र काफी थी और वह काफी बीमार भी रहते थे. शुरू शुरू में अनिक्षा के बावजूद वह उनका इलाज करता, लेकिन धीरे धीरे उनको ठीक रखने में उसे अपनी पढ़ाई की सार्थकता दिखाई पड़ने लगी. उनकी पत्नी, जिसे वह दादी कहता था, के हाथ का बना खाना एक अलग ही प्रकार का स्वाद देता, जो उसे कभी भी अपने घर के खाने में नहीं मिला था. शहर में रहने के दरम्यान उसे कभी ऐसे अनुभव नहीं हुए थे जब किसी गरीब व्यक्ति से उसे लगाव महसूस हुआ हो.
कल जब उसने दादी से बताया कि उसका समय अब पूरा हो गया और वह वापस अपने शहर चला जायेगा तो दादी का चेहरा फक़्क़ पड़ गया. पिछले छह महीनों में वह उनके घर का हिस्सा बन गया था और बीच बीच में जब वह अपने घर जाता तो लौट कर आने पर उसको देखते ही दादी का चेहरा खिल जाता था. आस पास के गांव के काफी मरीज भी उसके यहाँ आते और इलाज़ कराकर जाते समय पैसे तो नहीं लेकिन ढेरों दुआएं जरूर देकर जाते थे. उसके जेहन में तमाम चेहरे घूमने लगे जो फटे पुराने कपड़े पहने, अधिकांश पैदल आते, कुछ साइकिल से भी आते. लेकिन उन चेहरों में जो भाव दिखाई देता, वह उसने पहले कभी नहीं देखा था. वह इस गांव या अगल बगल के जिस भी गांव में जाता, लोग इतनी इज़्ज़त देते कि वह अभिभूत हो जाता. वहीँ शहर में उसे घर के बाहर निकलने पर शायद ही कोई पहचानता था, इज़्ज़त देना तो बहुत दूर की बात थी.
"आओ बचवा, खाना खा लो, तुम्हारे पसंद की दाल बनाई है और साथ में सरसो का साग भी, कल तो तुम चले ही जाओगे", दादी की आवाज़ ने उसे वर्तमान में ला पटका. वह भरे मन से खाना खाने उठा और खाने के दौरान उसका ध्यान खाने पर कम, विचारों में ज्यादा लगा था.
खाना खाने के बाद वह बाहर अपने कमरे में आया, खिड़की से उसे बच्चे धूल मिटटी में खेलते दिखे. उसकी भी इच्छा हुई कि वह जाकर बाहर बच्चों के साथ उसी धूल मिटटी में खेले जिसके लिए वह बचपन में तरसता था. कुछ देर यूँ ही देखते रहने के बाद उसने फोन उठाया और पापा को मेसेज किया "अभी कुछ महीने और मैं यहाँ बिताऊंगा, फिर शहर का सोचूंगा. एक बार आपलोग भी यहाँ आईये, शायद मेरे फैसले की वजह समझ में आ जाएगी". और कुछ ही देर बाद वह बच्चों के साथ खेल रहा था.
मौलिक एवम अप्रकाशित
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इस सकारात्मक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी
अमूमन लोग गाँव में जाने से बचते हैं,पर जो जाते है वे जानते है आज भी नि:स्वार्थ प्रेम वहीं बसता है।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद०विनय कुमार जी ।
इस प्रोत्साहित करती टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ बबिता गुप्ता जी
बहुत बहुत आभार आ मुहतरम जनाब समर कबीर साहब
बेहतरीन रचना, उन चिकित्सकों और उनके घरवालों को संदेश देने के साथ, उस सोच को बदलने के लिए प्रेरित करती ,कि ये पेशा नाममात्र की सेवा के बदले बैंक भरने का साधन।बधाई स्वीकार कीजिएगा ,आदरणीय विनय सरजी।
जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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