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ग़ज़ल~ बलराम धाकड़ (इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे)

1212 1122 1212 112/22

इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे।
तरीक़ा उनका था जैसे शहीद कर देंगे।

वो एक बार सही महफ़िलों में आएं तो,
उन्हें हम अपनी ग़ज़ल का मुरीद कर देंगे।

उम्मीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,
तो कैसे तुमको भला नाउम्मीद कर देंगे।

जो तुमने ख़्वाब भी देखे बराबरी के तो,
वो ऐसे ख़्वाब की मिट्टी पलीद कर देंगे।

तुम उनसे पानी, सड़क, रौशनी तो मत माँगो,
तुम्हें वो चाँद-सितारे ख़रीद कर देंगे।

सितम न ढाएंगे ऐसी उम्मीद भी मत रख,
तुम्हें वो अपने सितम का मुफ़ीद कर देंगे।

~मौलिक/अप्रकाशित

~ बलराम धाकड़

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Comment by Balram Dhakar on October 31, 2018 at 10:35pm

हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया, आदरणीय बृजेश जी।

सादर।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 31, 2018 at 12:26pm

बढ़िया ग़ज़ल कही है आदरणीय..आदरणीय समर साहब ने जानकारी भी अच्छी दी है।

Comment by Balram Dhakar on October 30, 2018 at 11:36pm

हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया, आदरणीय विजय निकोर जी।

Comment by vijay nikore on October 30, 2018 at 10:29am

आपकी गज़ल अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आदारणीय बलराम जी।

Comment by Balram Dhakar on October 29, 2018 at 1:07pm

धन्यवाद, आदरणीय समर सर। आपकी समझाइश के मुताबिक सुधर कर लूँगा।

सादर।

Comment by Samar kabeer on October 28, 2018 at 10:25pm

"मश्क़-ए-सितम"---सितम का अभ्यास ।

"मज़ीद"---ज़ियादा ।

वैसे "मज़ीद" अच्छा नहीं लगे तो "शदीद"(तेज़) क़ाफ़िया भी रख सकते हैं ।

Comment by Balram Dhakar on October 28, 2018 at 9:47pm

आदरणीय समर सर, ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया! आप जैसे उस्ताद शाइर से इतनी शाबाशी भी प्रोत्साहक होती है।

अपने एकदम दुरुस्त फ़रमाया,

मतले में इस्तेमाल किया गया मुहर्रम मातम के अर्थ

में ही लिया गया है क्योंकि इसका स्थापित एवं प्रचलित

अर्थ यही प्रतीत होता है। इसका कारण आप स्वयं 

बता चुके हैं।

बाकी आपने ठीक कर ही दिया है परंतु 

"वगरना मश्क़-ए-सितम वो मज़ीद कर देंगे"

इस मिसरे के माइने मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

मश्क़-ए-सितम और मज़ीद का अर्थ कृपया बताने का कष्ट करें।

सादर!

Comment by Samar kabeer on October 28, 2018 at 8:59pm

जनाब बलराम धाकर जी आदाब,आजकल ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हो रहा है,और वो भी मुश्किल ज़मीन और क़वाफ़ी में,बहुत बहुत मुबारकबाद ।

' इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे।
तरीक़ा उनका था जैसे शहीद कर देंगे'

मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,दूसरी बात ये कि 'मुहर्रम' शब्द का अर्थ आपने शायद ग़लत समझा है,आप 'मुहर्रम' का अर्थ शायद मातम या ग़म ले रहे हैं,आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूँ कि "मुहर्रम" इस्लाम धर्म के एक महीने का नाम है,जो नये साल का पहला महीना होता है,और इस्लाम धर्म के मुताबिक़ जबसे दुनिया बनी है,ये मुक़द्दस महीना माना जाता है,और इसकी आमद से मुसलमान ख़ुश होते हैं,लेकिन इत्तिफ़ाक़ से कर्बला का सानिहा भी इसी महीने में होने की वजह से कुछ नादान इसे मातम का महीना समझ बैठे,और ये इतना प्रचलित हो गया कि वो इसमें ख़ुशी मनाना अपने ऊपर हराम कर लेते हैं,जबकि ऐसा नहीं है ।

दूसरी बात 'शहीद' शब्द की,इस्लाम में शहीद होना ख़ुश नसीबी की बात होती है,और इस्लाम के मुताबिक़ शहीद दुनियावी नज़रिये से मर जाते हैं,लेकिन उन्हें ज़िन्दा तस्लीम किया जाता है,औए शहीद का मातम नहीं होता, उम्मीद है आप मेरी बात समझ रहे होंगे ।

' उम्मीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,
तो कैसे तुमको भला नाउम्मीद कर देंगे'

इस शैर के दोनों मिसरों में 'उम्मीद' शब्द की वजह से लय बाधित हो रही है,इस शैर को यूँ लिखें:;

उमीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,
तो कैसे तुमको भला नाउमीद कर देंगे'

सितम न ढाएंगे ऐसी उम्मीद भी मत रख,
तुम्हें वो अपने सितम का मुफ़ीद कर देंगे'

इस शैर के ऊला मिसरे में भी 'उम्मीद' शब्द की वजह से लय बाधित हो रही है,दूसरी बात ये कि इस शैर में शुतरगुर्बा दोष भी है, तीसरी  बात ये कि क़ाफ़िया 'मुफ़ीद' यहाँ काम नहीं कर रहा है,इस शैर को यूँ कर सकते हैं:-

'  सितम न ढाएंगे ऐसी उमीद भी मत रख

वगरना मश्क़-ए-सितम वो मज़ीद कर देंगे'

बाक़ी शुभ शुभ ।

'  

Comment by Balram Dhakar on October 28, 2018 at 12:11pm

जनाब राज़ साहब, हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!

सादर!

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 11:47am

आ० बलराम धाकड़ जी, आदाब. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें. सादर.  

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