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नश्वरता ....

तुम
कहाँ पहचान पाए
उस बुनकर की
आदि और अंत की
अनंत बुनती को

तुम
बुनकर बन
असफल प्रयास करते रहे
विधि के बनाये
आदि और अंत के
नग्न शरीर की
कृति पर
सच-झूठ ,अच्छा-बुरा ,
तेरा-मेरा ,पाप-पुण्य की सजावट से
दुनियावी वस्त्रों को
अलंकृत करने का

मैं
धागा था
तुम्हारे दर्द का
तुम
बुनकर हो कर भी
मुझे न पहचान पाए

जानते हो
उसकी
और
तुम्हारी
बुनती
क्या फ़र्क है
उसकी बुनती
अमरत्व को जन्म देती है
तुम्हारी बुनती
नश्वरता को


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 2, 2018 at 6:46pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,हमेशा की तरह सुंदर और प्रभावशाली कविता, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Shyam Narain Verma on May 2, 2018 at 4:07pm
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सादर 

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