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अपने कोमल कान्धो पर
कचरे की बोरी ढोता बचपन
कहीं चाय के ढाबे पर
झूठे बरतन धोता बचपन

कहीं है भोजन की बर्बादी
कहीं भूख से रोता बचपन


तन पर फटे पुराने कपड़े
हाथ में भीख कटोरा पकड़े
उम्मीदों के धागों में
सपने नये पिरोता बचपन


दिन भर सड़कों चौराहों पर
मजबूरी लेकर बाहों पर
मई जून की कड़ी धूप में
अपना बदन भिगोता बचपन


अपने नन्हे हाथों से
साहब के जूते चमकाता
नाम नही है कोई इसका
ये तो बस छोटू कहलाता


जबकि कहते हैं ईश्वर का
बाल रूप है होता बचपन
कहीं चाय के ढाबे पर
झूठे बरतन धोता बचपन...

.

ललित कैलाश

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by LALIT KAILASH on February 14, 2018 at 10:37pm
बधाई के लिए , आप सभी का आभार व धन्यवाद ...
Comment by LALIT KAILASH on February 14, 2018 at 12:58pm

Thanks to all, for encouragement 

 

Comment by vijay nikore on February 14, 2018 at 10:00am

आदरणीय ललित कैलाश जी, इस अच्छी रचना के लिए बधाई।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 14, 2018 at 9:55am

बचपन की नियति, यथार्थ और संवेदनशील परिस्थितियों पर बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय ललित कैलाश जी।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 13, 2018 at 6:22pm

ओ बी ओ मंच पर आपका स्वागत है आदरणीय ललितजी , अच्छी कविता लिखी है जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई | आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब की बातों पर ध्यान दीजियेगा | सादर

Comment by LALIT KAILASH on February 13, 2018 at 4:47pm
ji, Dhanyavaad
Comment by Mohammed Arif on February 13, 2018 at 2:42pm

आदरणीय ललित कैलाश जी आदाब,

                             सर्वप्रथम ओबीओ मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है । बचपन की विवशता को रेखांकित करती बेहतरीन कविता । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ हैं जैसे:-कान्धो/कांधों, मजबूरी/मज़बूरी, नन्हे/नन्हें , बाहो/बाँहों ।

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